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                              "किसान राजनीति" कई दिनों से किसी तरह से चूल्हा जल रहा था , आज तो चूल्हे में आग भी नहीं जली , बच्चों के पेट की आग , पिता के माथे पर साफ दिखाई पड़ रह थी , उसकी बेबसी कुछ यूँ बढ़ने लगी कि जीवन का अर्थ ही खो बैठा , सुबह उसके न उठने पर जब किसी तरह से दरवाजा खोला गया , तो उस किसान का शरीर मिट्टी बन चुका था। अन्नदाता , देश का पालनहार भूख से हार गया , अब उसके बच्चों का पता नहीं क्या होगा ? अखबारों में फोटो छपी , टीवी पर लम्बी-चौड़ी बहसें बहुत देर से जारी है। राहत और सहायता की घोषणाएँ होने लगी हैं। सुना है पिछले साल के सूखे का मुआवजा इस साल के बाढ़ मे बाँटा गया। अपने देश के संदर्भ में कृषि और कृषक सदैव से एक संवेदनशील विषय रहे हैं , जहाँ आज भी देश की 70% आबादी कृषि पर किसी न किसी प्रकार से निर्भर करती है जबकि सकल घरेलू उत्पाद मे कृषि का योगदान महज़ 13% रह गया है। इस विसंगति को आसनी से समझा जा सकता है कि क्यों भारत कि एक बहुत बड़ी आबादी गरीबी और मुफलसी का जीवन जी रही है। जहाँ एक ओर विकसित देशों मे जनसंख्या का 5 से 10% ही कृषि कार्य में संल