Women reservation bill

नारी शक्ति वंदन अधिनियम

128th constitutional amendment 

हमारी जो राजनीतिक व्यवस्था है उसी ने महिला आरक्षण आरक्षण विधेयक का नाम "नारी शक्ति वंदन अधिनियम" रखा है।लोकसभा में इस बिल के पक्ष में 454 वोट पड़े थे, सिर्फ दो सांसदों ने इसका विरोध किया था जबकि राज्यसभा में इस बिल का किसी ने विरोध नहीं किया, वोटिंग के दौरान राज्यसभा में 214 सांसद मौजूद थे सभी ने बिल के पक्ष में मतदान किया इस तरह दोनों सदनों में बिल सर्वसम्मत से पास हो गया था। 

       29 सितंबर दिन शुक्रवार 2023 को इस बिल को राष्ट्रपति ने भी मंजूरी दे दी और उनकी मोहर लगते ही यह बिल कानून बन गया क्योंकि लोकसभा और राज्यसभा से पारित होने के बाद किसी भी बिल को अंतिम मंजूरी के लिए राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है । 

लेकिन अब इसमें कुछ और भी चीज होनी बाकी है और इसे अभी राज्यों से भी मंजूरी लेनी  है क्योंकि अनुच्छेद 368 के तहत अगर केंद्र के किसी कानून से राज्यों के अधिकार पर कोई प्रभाव पड़ता है तो कानून बनाने के लिए कम से कम 50% विधानसभाओं की मंजूरी लेनी होगी अर्थात यहां कानून देश भर में तभी लागू होगा जब 50% राज्यों की विधानसभाएं पारित कर देंगी। 

         उसके बाद जो इसमें दूसरा पड़ाव यह है कि कोई भी कानून जब कानून बनता है तो उसको कब से और कैसे लागू किया जाएगा यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है तो सरकार ने इस बिल में जो प्रावधान किया है कि यह महिला आरक्षण बिल आगामी जनगणना होने के बाद लागू की जाएगी अर्थात 2021 में जो जनगणना होनी चाहिए थी वह कॉविड के कारण नहीं हो पाई और अब 2024 में लोकसभा का चुनाव होने वाला है ऐसे में 2024-25  में ही हमारी अगली जनगणना हो पाएगी और फिर सीटों का परिसीमन होगा तब नई जनगणना के आधार पर यह लागू होगा।

          अभी फिलहाल जो सीटों का परिसीमन है अर्थात किस राज्य में लोकसभा की कितनी सीट  होगी यह 1971 की जनगणना के आधार पर है, यह 1976 के संविधान संशोधन जो 42 वां संविधान संशोधन के नाम से जाना जाता है उसमें सीटों के परिसीमन पर ही  रोक लगा दी गई थी 24 साल के लिए मतलब सन 2000 तक सीटों में घटाव बढ़ाव नहीं हो सकता था और फिर संसद ने 2000 में भी इस समय सीमा को बढ़ा दिया और लोकसभा की सीटों को राज्यवार जो संख्या है उसको 2026 तक के लिए फ्रीज कर दिया मतलब किस राज्य में कितनी लोकसभा की सीट  होगी उसको घटाने=बढ़ाने का काम जो जनसंख्या के आधार पर परिसीमन के माध्यम से जो होना चाहिए था उस पर एक तरह से रोक लगा दिया गया जिसकी समय सीमा 2026 है। 

            इसमें उत्तर दक्षिण भारत को लेकर अलग-अलग तरह के विमर्श हैं जहां दक्षिण के राज्य इस परिसीमन का विरोध करते रहे हैं क्योंकि वह जनसंख्या वृद्धि को अच्छे से नियंत्रित किए हुए हैं ऐसे में उत्तर के राज्य जिन्होंने बेहतर काम नहीं किया है उनकी जनसंख्या वृद्धि दर दक्षिण की तुलना में बहुत ज्यादा रही है तो जो सीटों की संख्या में वृद्धि होगी लोकसभा में वह उत्तर के राज्यों को अधिक लाभ पहुँचाएगा  इस कारण दक्षिण के राज्य इस बात का विरोध करते रहे हैं। पर लोकसभा या फिर विधानसभा में जो हमारी प्रतिनिधित्व प्रणाली है वह जनसंख्या के आधार पर ही है जो 1971 की जनगणना के आधार पर है। जिसमें 10 लाख की जनसंख्या पर एक लोकसभा की सीट को निर्धारित किया गया था अब वह पूरी तरह से बदल चुका है भारत की वर्तमान जनसंख्या को नए आधार पर परिसीमित करने की जरूरत है कि किस राज्य में लोकसभा की कितनी सीट होगी?

       क्योंकि एक बड़ी जनसंख्या के साथ यह अन्याय होगा फिलहाल हमारी जो जनसंख्या है अगर इसी आधार पर 1971 के जो तौर तरीके थे कि प्रत्येक 10 लाख की जनसंख्या पर एक लोकसभा की सीट होगी अगर इस आधार पर 2026 का परिसीमन किया जाए तो लोकसभा में सीटों की संख्या 1400 के आसपास हो जाएगी और यह जो 1400 का आंकड़ा है इसमें सर्वाधिक लाभ या सीटों की वृद्धि उत्तर भारत के राज्यों को मिलेगी उनसे उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा को होगा और जो यहां की वर्तमान सीटें हैं इनकी संख्या लगभग तीन गुनी बढ़ जाएगी जबकि जो दक्षिण के राज्य हैं उनके सीटों की संख्या में यह वृद्धि लगभग दुगनी ही होगी ऐसे में जो सीटों की संख्या होगी वह निश्चित रूप से उत्तर भारत के राज्यों के पक्ष में होगी। 

            इसी तरह अगर यहां परिसीमन 15 लाख की जनसंख्या पर किया जाता है तो यहां आंकड़ा उतना बुरा नहीं होगा और लोकसभा में सीटों की संख्या 942 या फिर 950 के आसपास रहेगी।  जब 10 लाख की सीटों पर मतलब जनसंख्या के आधार पर सीटें निर्धारित की जाएं तो उत्तर प्रदेश जैसे  बड़े राज्य में 85 सीट से उनकी जो सीटों की संख्या हो रही थी 250 और 15 लाख की जनसंख्या पर करने पर यहां 168 के करीब रहेगी। 

                  इसी तरह अगर 20 लाख की जनसंख्या पर एक लोकसभा की सीट का निर्धारण किया जाए तो यह सीटों की संख्या 707 हो जाएगी और ऐसी स्थिति में तो दक्षिण के राज्य हैं उनकी जो वर्तमान लोकसभा की सीटें हैं उससे वह काम हो जाएंगी, तो 20 लाख जनसंख्या पर एक लोकसभा सीट वाला परिसीमन, शायद ही दक्षिण भारत के राज्य स्वीकार करें तो कमोबेश जो स्थिति बन रही है जो अगला परिसीमन होगा वह 15 लाख की जनसंख्या पर होना चाहिए और वर्तमान जो संसद भवन बनाया गया है इसमें भी जो सीटिंग कैपेसिटी है लोकसभा की वह अधिकतम 1200 सीट की ही हो सकती है और 15 लाख की जनसंख्या पर परिसीमन करने पर यह संख्या करीब-करीब उतनी ही पहुँच रही है जो सीटिंग कैपेसिटी है और 15 लाख का जो परिसीमन वाला गणित है यह उत्तर दक्षिण दोनों के लिए उतना प्रतिकूल नहीं दिखाई दे रहा है .. 

*********

महिला आरक्षण से जुड़े कुछ अनुच्छेद -

article 330 (A) SC/ST reservation in Loksabha 

चक्रिय क्रम में 1/3 सीटों का आरक्षण 

article 332 (A) राज्य विधान सभाओं में SC/ST आरक्षण 

यह महिला आरक्षण 15 साल के लिए दिया जाएगा 

OBC आरक्षण-

हमारी जो राजनीतिक व्यवस्था है और उसमें जो आरक्षण की व्यवस्था है वह कितने लेयर में और किस तरह की है यह बात समझने की आवश्यकता है हमारे जो यह एससी/एसटी  समाज के लोग हैं उन्हें जो आरक्षण मिला है वह शैक्षिक, सामाजिक पिछड़ेपन के कारण मिला है जिनमें उनके साथ सामाजिक भेदभाव हुआ है और एक लंबे समय तक वह समाज के मुख्य धारा से कटे रहे हैं जबकि जो पिछड़ों को आरक्षण मिला है वह शैक्षिक पिछड़ेपन के कारण मिला है जिसमें यह माना जाता है कि वह राजनीतिक रूप से इतने सक्रिय और सक्षम है की राजनीतिक जीवन में उनका पर्याप्त प्रतिनिधित्व है क्योंकि वह समाज से कभी कटे हुए नहीं थे इसीलिए लोकसभा और विधानसभा में पिछड़ी जाति के लोगों के लिए आरक्षण नहीं है वर्तमान लोकसभा और विधानसभाओं में अगर देखा जाए तो पिछड़ी जाति के लोग अपना राजनीतिक प्रतिनिधित्व अपने संख्या बल और जागरूकता के कारण पर्याप्त रूप से हासिल किए हुए हैं और ऐसे में यदि उनको किसी आरक्षित श्रेणी में डाल दिया जाता है तो जो उनका प्रतिनिधित्व है वह कम भी हो सकता है तो राजनीतिक आरक्षण फिलहाल ओबीसी को नहीं है इसीलिए महिला आरक्षण बिल में ओबीसी को आरक्षण नहीं दिया गया है क्योंकि लोकसभा और विधानसभा में जो आरक्षण की व्यवस्था है वहां अभी फिलहाल एससी और एसटी के लिए ही है यह राजनीतिक और आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर अभी तक नहीं तय किया गया है तो इस तरह से हमारा जो जन प्रतिनिधित्व वाले स्थान विशेषतः संसद और विधानसभाओं में वहां पर जो सीटों की कैटेगरी है वहां अनारक्षित, एससी, एसटी के लिए  ही है। अब इन सभी समूह में महिलाओं के लिए 33% सीटों को आरक्षित कर दिया गया है।

SC/ST Reservation

एससी एसटी को आरक्षण प्रदान करने का उद्देश्य केवल इन समुदायों से संबंधित कुछ व्यक्तियों को नौकरियां देना नहीं है इसका मूल उद्देश्य इस समाज के लोगों को सशक्त बनाना है जो शासन प्रशासन में अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर सके और भारतीय लोकतंत्र की निर्णायक प्रक्रिया में वह भी अपनी भागीदारी निभा सके और जो  उनके साथ भेदभाव हुआ है जैसे छुआछूत इन जैसी प्रथाओं को समाप्त करने के लिए भी राज्य आगे आना चाहता है ऐसे में अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को सरकारी नौकरियां, शिक्षण संस्थानों में पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिलना जरूरी हो जाता है क्योंकि उनकी आवाज सुनने के लिए अगर उन्हीं  के समुदाय के लोग उस जगह पर हो तो यह और बेहतर तरीके से हो सकता है और वह बेहतर तरीके से समाज में घुल मिल सकेंगे इसी कारण अनुसूचित जाति के लोगों को 15% और अनुसूचित जनजाति के लोगों को 7.5% का आरक्षण दिया गया है एक बात और एससी एसटी के आरक्षण में क्रीमी लेयर का कोई प्रावधान नहीं है जो अनुच्छेद 16 (4) (A) एससी एसटी आरक्षण के संदर्भ में है इसका मतलब यह है कि उनके माता-पिता की आय की स्थितियां, सरकारी पद कुछ भी हो उनके बच्चे को वह चाहे जिस पद पर हो उन्हें आरक्षण का लाभ मिलता रहेगा।

        जबकि जो पिछड़ा वर्ग के लिए जो आरक्षण है उसमें क्रीमी लेयर की अवधारणा है अर्थात ओबीसी आरक्षण केवल उन्हीं लोगों को मिलेगा जो नॉन क्रीमी लेयर के अंतर्गत आते हैं क्रीमी लेयर की अवधारणा ओबीसी के कुछ विशेषाधिकार प्राप्त सदस्यों को आरक्षण की सीमा से बाहर रखने के लिए किया गया है क्योंकि उनकी जो सामाजिक, आर्थिक स्थिति है वह सुदृढ़ है और समाज के वंचित वर्गों को ही उसका लाभ मिले इसके लिए यह धारणा ले आई गयी है ।

इंद्रासाहनी बनाम भारत संघ-

इस वाद में जाति आधारित आरक्षण की सीमा 50% निर्धारित किया गया है 1992 में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने जाति आधारित आरक्षण की सीमा तय करने का फैसला किया और इसे शक्ति से लागू करने की कोशिश भी की गई और जो संविधान का अनुच्छेद 15(4), 16(6) है इसके तहत किसी भी स्थिति में आरक्षण की सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिए और काफी हद तक और अधिकांश राज्यों ने इस बात को माना भी इसलिए इसे संवैधानिक निषेध और किसी भी स्थिति में आरक्षण की सर्वोच्च सीमा 50% पर रोक लगाती है मगर 2019 में आर्थिक आधार पर जो आरक्षण का बिल लाया गया उसमें यह सीमा टूट गई पर जो तर्क दिया गया वह यह था कि यह सीमा जाति आधारित आरक्षण के लिए है

             अनुच्छेद 164 के अनुसार आरक्षण का मुख्य उद्देश्य सरकारी सेवाओं में सभी वर्गों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुरक्षित करना है अनुच्छेद 166 द्वारा यह स्वीकार किया गया है की आर्थिक आरक्षण वास्तव में इस अवधारणा के खिलाफ है क्योंकि हम जाति आधारित प्रतिनिधित्व को ध्यान में नहीं रखता है इसके अलावा आरक्षण कोई गरीबी उन्मूलन योजना नहीं है सुप्रीम कोर्ट ने यहां फैसला सुनाया था कि आर्थिक स्थिति आरक्षण के लिए एकमात्र मानदंड नहीं हो सकती है कई राज्यों ने आर्थिक आरक्षण लागू करने की कोशिश की थी हालांकि बाद में न्यायालय में उसे रद्द कर दिया गया 2019 में ईडब्ल्यूएस बिल पेश करते समय सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्री धावर चंद्र गहलोत ने कहा कि ईडब्ल्यूएस कोटा के लिए समान राज्य कानून को अदालतों द्वारा रद्द कर दिया गया था क्योंकि पहले संविधान में आर्थिक आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं था अब इस कानून को चुनौती देने पर उच्चतम न्यायालय द्वारा रद्द नहीं किया जा सकेगा क्योंकि संविधान में आवश्यक प्रावधान कर दिया गया है

❤️❤️❤️❤️❤️❤️

मंडल आयोग-

संविधान के अनुच्छेद 340 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए राष्ट्रपति ने दिसंबर 1978 में बीपी मंडल की अध्यक्षता में एक पिछड़ा वर्ग आयोग की नियुक्ति की।
आयोग का गठन भारत के "सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों" को परिभाषित करने के मानदंड निर्धारित करने और उन वर्गों की उन्नति के लिए उठाए जाने वाले कदमों की सिफारिश करने के लिए किया गया था।
मंडल आयोग ने निष्कर्ष निकाला कि भारत की जनसंख्या में लगभग 52 प्रतिशत ओबीसी हैं, इसलिए 27% सरकारी नौकरियां उनके लिए आरक्षित होनी चाहिए।
आयोग ने सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ेपन के ग्यारह संकेतक विकसित किए हैं।
हिंदुओं में पिछड़े वर्गों की पहचान करने के अलावा, आयोग ने गैर-हिंदुओं (जैसे, मुस्लिम, सिख, ईसाई और बौद्ध) के बीच भी पिछड़े वर्गों की पहचान की है।
इसने 3,743 जातियों की एक अखिल भारतीय अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) सूची और 2,108 जातियों की एक अधिक वंचित "दलित पिछड़े वर्ग" की सूची तैयार की है।

1992 के इंद्रा साहनी मामले में , सुप्रीम कोर्ट ने पिछड़े वर्गों के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण को बरकरार रखते हुए, उच्च जातियों के बीच आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए 10% सरकारी नौकरियां आरक्षित करने वाली सरकारी अधिसूचना को रद्द कर दिया।

इसी मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस सिद्धांत को बरकरार रखा कि संयुक्त आरक्षण लाभार्थियों को भारत की आबादी का 50 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए
इस निर्णय और प्रावधान के माध्यम से 'क्रीमी लेयर' की अवधारणा को भी बल मिला कि पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण केवल प्रारंभिक नियुक्तियों तक ही सीमित होना चाहिए और पदोन्नति तक इसका विस्तार नहीं होना चाहिए।
हाल ही में, 2019 के संवैधानिक (103वें संशोधन) अधिनियम ने अनारक्षित श्रेणी में "आर्थिक रूप से पिछड़े" लोगों के लिए सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 10% आरक्षण प्रदान किया है।
यह अधिनियम आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर आरक्षण प्रदान करने के लिए सरकार को सशक्त बनाने वाले खंड जोड़कर संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में संशोधन करता है।
यह 10% आर्थिक आरक्षण 50% आरक्षण सीमा से अधिक है।
भारत में आरक्षण को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक प्रावधान:
भाग XVI केंद्र और राज्य विधानसभाओं में एससी और एसटी के आरक्षण से संबंधित है।
संविधान के अनुच्छेद 15(4) और 16(4) राज्य और केंद्र सरकारों को एससी और एसटी के सदस्यों के लिए सरकारी सेवाओं में सीटें आरक्षित करने में सक्षम बनाते हैं।
संविधान (77वां संशोधन) अधिनियम, 1995 द्वारा संविधान में संशोधन किया गया और सरकार को पदोन्नति में आरक्षण प्रदान करने में सक्षम बनाने के लिए अनुच्छेद 16 में एक नया खंड (4ए) जोड़ा गया।
बाद में, आरक्षण देकर पदोन्नत एससी और एसटी उम्मीदवारों को परिणामी वरिष्ठता प्रदान करने के लिए संविधान (85वां संशोधन) अधिनियम, 2001 द्वारा खंड (4ए) को संशोधित किया गया था।
संवैधानिक 81वें संशोधन अधिनियम, 2000 में अनुच्छेद 16 (4 बी) शामिल किया गया, जो राज्य को एक वर्ष की अधूरी रिक्तियों को भरने में सक्षम बनाता है जो अगले वर्ष में एससी/एसटी के लिए आरक्षित हैं, जिससे कुल रिक्तियों पर पचास प्रतिशत आरक्षण की सीमा समाप्त हो जाती है। उस वर्ष का.
अनुच्छेद 330 और 332 क्रमशः संसद और राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण के माध्यम से विशिष्ट प्रतिनिधित्व प्रदान करते हैं।
अनुच्छेद 243D प्रत्येक पंचायत में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों का आरक्षण प्रदान करता है।
अनुच्छेद 233T प्रत्येक नगर पालिका में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों का आरक्षण प्रदान करता है।
संविधान के अनुच्छेद 335 में कहा गया है कि प्रशासन की प्रभावकारिता को बनाए रखते हुए एसटी और एसटी के दावों पर घटक रूप से विचार किया जाएगा।

न्यायिक समीक्षा
मद्रास राज्य बनाम श्रीमती चंपकम दोराईराजन ( 1951) मामला-

 आरक्षण के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय का पहला बड़ा फैसला था। इस मामले के कारण संविधान में पहला संशोधन हुआ।
मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि राज्य के तहत रोजगार के मामले में, अनुच्छेद 16(4) नागरिकों के पिछड़े वर्ग के पक्ष में आरक्षण का प्रावधान करता है, लेकिन अनुच्छेद 15 में ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है।
मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार संसद ने खंड (4) जोड़कर अनुच्छेद 15 में संशोधन किया।
इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) मामले में अदालत ने अनुच्छेद 16(4) के दायरे और सीमा की जांच की।
कोर्ट ने कहा है कि ओबीसी की क्रीमी लेयर को आरक्षण के लाभार्थियों की सूची से बाहर किया जाना चाहिए, प्रमोशन में आरक्षण नहीं होना चाहिए; और कुल आरक्षित कोटा 50% से अधिक नहीं होना चाहिए।
संसद ने 77वां संवैधानिक संशोधन अधिनियम बनाकर प्रतिक्रिया व्यक्त की, जिसने अनुच्छेद 16(4ए) पेश किया।
यह अनुच्छेद राज्य को सार्वजनिक सेवाओं में पदोन्नति में एससी और एसटी के पक्ष में सीटें आरक्षित करने की शक्ति प्रदान करता है यदि समुदायों को सार्वजनिक रोजगार में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता है।

एम. नागराज बनाम भारत संघ 2006 मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 16(4ए) की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए कहा कि संवैधानिक रूप से वैध होने के लिए ऐसी कोई भी आरक्षण नीति निम्नलिखित तीन संवैधानिक आवश्यकताओं को पूरा करेगी:

एससी और एसटी समुदाय को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा होना चाहिए

सार्वजनिक रोजगार में एससी और एसटी समुदायों का पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है।

ऐसी आरक्षण नीति प्रशासन में समग्र दक्षता को प्रभावित नहीं करेगी।

2018 के जरनैल सिंह बनाम लछमी नारायण गुप्ता मामले में,

 सुप्रीम कोर्ट ने माना कि पदोन्नति में आरक्षण के लिए राज्य को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के पिछड़ेपन पर मात्रात्मक डेटा एकत्र करने की आवश्यकता नहीं है।
न्यायालय ने माना कि क्रीमी लेयर का बहिष्कार एससी/एसटी तक फैला हुआ है, इसलिए राज्य उन एससी/एसटी व्यक्तियों को पदोन्नति में आरक्षण नहीं दे सकता जो उनके समुदाय की क्रीमी लेयर से संबंधित हैं।
मई 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक कानून को बरकरार रखा जो परिणामी वरिष्ठता के साथ एससी और एसटी के लिए पदोन्नति में आरक्षण की अनुमति देता है।


अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 के संबंध में केस कानून:
मद्रास राज्य बनाम श्रीमती। चंपकन दोराईराजन [1951] एससीआर 525

इस मामले में संविधान के लागू होने से पहले जारी किए गए कुछ आदेशों के आधार पर, जिसे 'सांप्रदायिक जीओ' के रूप में जाना जाता है, मद्रास राज्य में मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेजों में सीटों का बंटवारा किया गया था। संविधान के आगमन के बाद भी, जीओ पर कार्रवाई की जा रही थी, जिसे प्रतिवादी ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 15(1) और 29(2) द्वारा उसे दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी थी
सात न्यायाधीशों की एक विशेष पीठ ने मामले की सुनवाई की और सर्वसम्मत निष्कर्ष पर पहुंची कि उपरोक्त तरीके से सीटों का आवंटन अनुच्छेद 15(1) और 29(2) का उल्लंघन है, यहां तक कि प्रतिवादी को उसके उच्च अंकों के बावजूद प्रवेश देने से इनकार करना। केवल जाति के आधार पर आधारित था।

मामले में सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि राज्य के तहत रोजगार के मामले में, अनुच्छेद 16(4) नागरिकों के पिछड़े वर्ग के पक्ष में आरक्षण प्रदान करता है, लेकिन अनुच्छेद 15 में ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के

अनुसार मामले में संसद ने हस्तक्षेप करते हुए खंड (4) डालकर अनुच्छेद 15 में संशोधन किया, जिसमें लिखा है:
इस अनुच्छेद में या अनुच्छेद 29 के खंड (2) में कुछ भी राज्य को नागरिकों के किसी भी सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की उन्नति के लिए या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए कोई विशेष प्रावधान करने से नहीं रोकेगा।] आर. बालाजी और

अन्य . बनाम मैसूर राज्य [1963] सप्ल। 1 एससीआर 439

इस मामले में, कर्नाटक राज्य में, संविधान के आगमन से कुछ दशकों पहले से आरक्षण लागू था और उसके बाद भी जारी रखा गया था। मैसूर राज्य ने संविधान के अनुच्छेद 15(4) के तहत एक आदेश जारी कर ब्राह्मण समुदाय को छोड़कर सभी समुदायों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ा घोषित किया और एसईबीसी और एससी/एसटी के पक्ष में शैक्षणिक संस्थानों में कुल 75 प्रतिशत सीटें आरक्षित कीं।
आरक्षण के प्रतिशत में मामूली बदलाव के साथ हर साल ऐसे आदेश जारी किये जाते रहे। बाद में एक समान आदेश जारी किया गया जिसमें राज्य के सभी इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों और तकनीकी संस्थानों में 68 प्रतिशत सीटें एसईबीसी, एससी और एसटी के पक्ष में आरक्षित की गईं। एसईबीसी को फिर से दो श्रेणियों में विभाजित किया गया- पिछड़ा वर्ग और अधिक पिछड़ा वर्ग। इस प्रकार, संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत विवादित आदेश की वैधता पर सवाल उठाया गया था। 

सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने उक्त आदेश को रद्द करते हुए निम्नलिखित सिद्धांत प्रतिपादित किए:

अनुच्छेद 15(4) अनुच्छेद 15 के खंड (1) और अनुच्छेद 29 के खंड (2) का एक प्रावधान या अपवाद है
अनुच्छेद 15(4) के प्रयोजन के लिए, पिछड़ापन सामाजिक और शैक्षिक दोनों होना चाहिए। यद्यपि हिंदुओं के संबंध में जाति नागरिकों के किसी वर्ग के सामाजिक पिछड़ेपन का निर्धारण करने में विचार करने के लिए एक प्रासंगिक कारक हो सकती है, लेकिन इसे एकमात्र और प्रमुख परीक्षण नहीं बनाया जा सकता है। ईसाई, जैन और मुसलमान जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं करते; जाति का परीक्षण उन पर लागू नहीं किया जा सकता। चूँकि आक्षेपित आदेश के तहत सभी पिछड़े वर्गों की पहचान केवल जाति के आधार पर की गई है, यह बुरा है।
अनुच्छेद 15(4) के तहत किया गया आरक्षण उचित होना चाहिए। यह ऐसा नहीं होना चाहिए जो खण्ड (1) में निहित समानता के मुख्य नियम को पराजित या निरस्त कर दे। हालाँकि आरक्षण के सटीक अनुमेय प्रतिशत का अनुमान लगाना संभव नहीं है, लेकिन सामान्य और व्यापक तरीके से यह कहा जा सकता है कि वे 50 प्रतिशत से कम होना चाहिए।
अनुच्छेद 15(4) के तहत एक प्रावधान को कानून के रूप में होना आवश्यक नहीं है; इसे कार्यकारी आदेश द्वारा बनाया जा सकता है।
अनुच्छेद 15(4) में पिछड़े वर्गों को पिछड़े और अधिक पिछड़े में वर्गीकृत करने की आवश्यकता नहीं है।

इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (AIR 1993 SC 477)

इस मामले को आमतौर पर मंडल आयोग मामले के रूप में भी जाना जाता है- इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट की नौ-न्यायाधीशों की पीठ ने सरकारी रोजगार में आरक्षण से संबंधित निम्नलिखित आवश्यक बिंदुओं की गणना की संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत:
अनुच्छेद 16(4) उस प्रावधान से परिपूर्ण है जो रोजगार के मामलों में पिछड़े वर्गों के पक्ष में बनाया जा सकता है।
'पिछड़े वर्गों' के लिए 50% से अधिक कोई भी आरक्षण संविधान के अनुच्छेद 14 और/या 16 का उल्लंघन नहीं होगा। लेकिन साथ ही, अनुच्छेद 16(4) या अनुच्छेद 16(1) और (4) के तहत किए गए ऐसे आरक्षण को 100% की समग्रता तक नहीं बढ़ाया जा सकता है।
अनुच्छेद 16(4) के तहत पिछड़े वर्गों के अलावा अन्य वर्गों के लिए कोई आरक्षण नहीं किया जा सकता है। लेकिन अनुच्छेद 16(1) के तहत, आरक्षण उन वर्गों के लिए किया जा सकता है जो अनुच्छेद 16(4) में शामिल नहीं हैं।
अनुच्छेद 16(4) में आने वाली अभिव्यक्ति, 'नागरिकों का पिछड़ा वर्ग' को संविधान में न तो परिभाषित किया गया है और न ही समझाया गया है। हालाँकि, पिछड़े वर्ग या वर्गों की पहचान निश्चित रूप से हिंदू समाज में जातियों के साथ-साथ पारंपरिक व्यवसाय, गरीबी, निवास स्थान, शिक्षा की कमी आदि जैसे अन्य मानदंडों के आधार पर की जा सकती है और उन समुदायों में जहां जाति को उपरोक्त मान्यता प्राप्त नहीं है। और जाति मानदंड को छोड़कर स्वीकृत मानदंड।
नागरिकों के पिछड़े वर्ग की पहचान की प्रक्रिया में और अनुच्छेद 16(4) के तहत हिंदुओं के बीच, जाति एक प्राथमिक मानदंड या प्रमुख कारक है, हालांकि यह एकमात्र मानदंड नहीं है।
अनुच्छेद 16(4) के तहत कोई भी प्रावधान संसद या विधानमंडल द्वारा किया जाना आवश्यक नहीं है। ऐसा प्रावधान किसी कार्यकारी आदेश द्वारा भी किया जा सकता है।
अनुच्छेद 16(4) के तहत राज्य को प्रदत्त शक्ति एक कर्तव्य के साथ जुड़ी हुई है और इसलिए, राज्य को उस शक्ति का प्रयोग उन सभी, अर्थात् पिछड़े वर्ग के लाभ के लिए करना होगा जिनके लिए यह अभिप्रेत है।
नागरिकों के किसी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों पर आरक्षण का प्रावधान सरकार की नीति का मामला है, निश्चित रूप से संवैधानिक मापदंडों और न्यायिक समीक्षा के स्थापित सिद्धांत के अधीन है।
"राज्य के अधीन सेवाओं में" नागरिकों के किसी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए संविधान के अनुच्छेद 16(4) के तहत आरक्षण की कोई अधिकतम सीमा तय नहीं की जा सकती है। आरक्षण का प्रतिशत अधिकतम 50% तक ही निर्धारित करने वाले निर्णय टिकाऊ नहीं हैं।
मामले में, शीर्ष अदालत ने सरकार को सलाह पर किसी जाति, समुदाय या व्यक्तियों के समूह को शामिल करने या बाहर करने के अनुरोधों की जांच के लिए उचित समय के भीतर एक आयोग या एक समिति के माध्यम से एक स्थायी मशीनरी बनाने की भी सिफारिश की। ऐसा आयोग या समिति, जैसा भी मामला हो, और ओबीसी की सूची में तस्करी किए जाने पर किसी छद्म समुदाय के बहिष्कार की जांच करने के लिए भी।

एम. नागराज बनाम भारत संघ (2006) 8 एससीसी 212 आरक्षण की सीमा

के संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय की पांच-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की गई कुछ प्रमुख टिप्पणियाँ इस प्रकार हैं:
50% की सीमा-सीमा, क्रीमी लेयर की अवधारणा और बाध्यकारी कारण, अर्थात् पिछड़ापन, प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता और समग्र प्रशासनिक दक्षता सभी संवैधानिक आवश्यकताएं हैं जिनके बिना अनुच्छेद 16 में अवसर की समानता की संरचना ढह जाएगी।
"आरक्षण की सीमा" के संबंध में संबंधित राज्य को आरक्षण का प्रावधान करने से पहले प्रत्येक मामले में अनिवार्य कारणों, जैसे पिछड़ापन, प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता और समग्र प्रशासनिक दक्षता का अस्तित्व दिखाना होगा। जैसा कि ऊपर कहा गया है, विवादित प्रावधान एक सक्षम प्रावधान है। राज्य पदोन्नति के मामले में एससी/एसटी के लिए आरक्षण देने के लिए बाध्य नहीं है। हालाँकि, यदि वे अपने विवेक का प्रयोग करना चाहते हैं और ऐसा प्रावधान करना चाहते हैं, तो राज्य को अनुच्छेद 335 के अनुपालन के अलावा वर्ग के पिछड़ेपन और सार्वजनिक रोजगार में उस वर्ग के प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता को दर्शाने वाला मात्रात्मक डेटा एकत्र करना होगा।
भले ही राज्य के पास बाध्यकारी कारण हों, जैसा कि ऊपर कहा गया है, राज्य को यह देखना होगा कि उसके आरक्षण प्रावधान में अत्यधिकता न हो जिससे कि 50% की अधिकतम सीमा का उल्लंघन हो या क्रीमी लेयर खत्म हो जाए या आरक्षण को अनिश्चित काल तक बढ़ा दिया जाए।
उपरोक्त के अधीन, पीठ ने संविधान (सत्तरवां संशोधन) अधिनियम, 1995, संविधान (इक्यासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2000, संविधान (अस्सीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2000 और संविधान की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा। अस्सीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2001।

आईआर कोएल्हो (मृत) एलआरएस बनाम तमिलनाडु राज्य और अन्य द्वारा। (एआईआर 2007 एससी 861)

मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ-न्यायाधीशों की पीठ द्वारा निष्कर्ष निकाले गए कुछ बिंदु इस प्रकार हैं:
एक कानून जो संविधान के भाग III द्वारा गारंटीकृत अधिकारों को निरस्त या कम करता है, वह मूल संरचना सिद्धांत का उल्लंघन कर सकता है या नहीं भी कर सकता है। यदि पूर्व कानून का परिणाम है, चाहे भाग III के किसी अनुच्छेद में संशोधन द्वारा या नौवीं अनुसूची में सम्मिलन द्वारा, ऐसे कानून को न्यायालय की न्यायिक समीक्षा शक्ति के प्रयोग में अमान्य करना होगा। वैधता या अमान्यता का परीक्षण इस निर्णय में निर्धारित सिद्धांतों पर किया जाएगा।

केशवानंद भारती के मामले में बहुमत के फैसले को इंदिरा गांधी के मामले के साथ पढ़ा गया , प्रत्येक नए संवैधानिक संशोधन की वैधता को उसके गुणों के आधार पर आंकने की आवश्यकता है। भाग III के तहत गारंटीकृत अधिकारों पर कानून के वास्तविक प्रभाव और प्रभाव को यह निर्धारित करने के लिए ध्यान में रखा जाना चाहिए कि यह बुनियादी संरचना को नष्ट करता है या नहीं। प्रभाव परीक्षण चुनौती की वैधता निर्धारित करेगा।

24 अप्रैल, 1973 को या उसके बाद संविधान में किए गए सभी संशोधनों, जिनमें विभिन्न कानूनों को शामिल करके नौवीं अनुसूची में संशोधन किया गया है, को संविधान की बुनियादी या आवश्यक विशेषताओं की कसौटी पर परखा जाना होगा जैसा कि अनुच्छेद 21 में दर्शाया गया है। अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 और उनमें अंतर्निहित सिद्धांत। इसे अलग ढंग से कहें तो, भले ही किसी अधिनियम को संवैधानिक संशोधन द्वारा नौवीं अनुसूची में डाल दिया गया हो, इसके प्रावधान इस आधार पर हमला करने के लिए खुले होंगे कि वे मूल संरचना को नष्ट या क्षतिग्रस्त करते हैं यदि मौलिक अधिकार या अधिकार छीन लिए गए या निरस्त किए गए या संबंधित हैं बुनियादी संरचना के लिए.
संवैधानिक संशोधनों द्वारा नौवीं अनुसूची में शामिल कानूनों पर सुरक्षा प्रदान करने का औचित्य, न कि व्यापक सुरक्षा, एक क़ानून द्वारा मौलिक अधिकार के उल्लंघन की प्रकृति और सीमा की जांच करके संवैधानिक निर्णय का मामला होगा, जिसे संवैधानिक रूप से संरक्षित करने की मांग की गई है, और बुनियादी संरचना सिद्धांत की कसौटी पर जैसा कि अनुच्छेद 21 में परिलक्षित होता है, अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 के साथ पढ़ा जाता है, "अधिकार परीक्षण" और "अधिकार का सार" परीक्षण के अनुप्रयोग द्वारा भाग III में लेखों का सारांश दृष्टिकोण लेते हुए, जैसा कि इंदिरा में आयोजित किया गया था। गांधी का मामला. उपरोक्त परीक्षणों को नौवीं अनुसूची के कानूनों पर लागू करने पर, यदि उल्लंघन बुनियादी ढांचे को प्रभावित करता है तो ऐसे कानून को नौवीं अनुसूची का संरक्षण नहीं मिलेगा।
           यदि नौवीं अनुसूची के किसी कानून की वैधता को इस न्यायालय द्वारा पहले ही बरकरार रखा जा चुका है, तो इस निर्णय द्वारा घोषित सिद्धांतों पर ऐसे कानून को फिर से चुनौती देना संभव नहीं होगा। हालाँकि, यदि भाग III में किसी भी अधिकार का उल्लंघन करने वाला कानून 24 अप्रैल, 1973 के बाद नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाता है, तो इस तरह के उल्लंघन/उल्लंघन को इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि यह मूल संरचना को नष्ट या नुकसान पहुंचाता है। अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 के साथ पठित अनुच्छेद 21 और उसके अंतर्गत अंतर्निहित सिद्धांतों में दर्शाया गया है।
          विवादित अधिनियमों के परिणामस्वरूप की गई कार्रवाई और अंतिम रूप दिए गए लेन-देन को चुनौती नहीं दी जाएगी। हम उपरोक्त शर्तों में संदर्भ का उत्तर देते हैं और निर्देश देते हैं कि याचिकाओं/अपील को अब यहां निर्धारित सिद्धांतों के अनुसार निर्णय के लिए तीन न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष सुनवाई के लिए रखा जाए।

2008 में, अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ( सर्वोच्च न्यायालय ) की एक संविधान पीठ ने उपर्युक्त मुद्दों पर निर्णायक रूप से फैसला सुनाया और संविधान (93वां संशोधन) अधिनियम, 2005 के साथ-साथ अधिनियम को भी स्थगित कर दिया। 2007 का अधिनियम 5 संवैधानिक है, लेकिन अभी तक यह मुद्दा सुलझ नहीं पाया है। देश भर के विभिन्न उच्च न्यायालयों में नई रिट याचिकाएँ दायर की जा रही हैं और विभिन्न उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के उक्त फैसले की अलग-अलग व्याख्या कर रहे हैं। पी. रंजेंद्रन बनाम मद्रास राज्य में

यह माना गया कि यद्यपि 'जाति' एकमात्र मानदंड नहीं हो सकती है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि जाति भी नागरिकों का एक वर्ग है और यदि जाति समग्र रूप से सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी है, तो ऐसी जाति के पक्ष में आरक्षण किया जा सकता है। एसवी बलराम बनाम आंध्र प्रदेश राज्य में , पूरी तरह से जाति पर आधारित पिछड़े वर्ग की एक सूची जिसमें यह साबित करने वाली सामग्री हो कि वे जातियाँ सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ी थीं, को वैध माना गया था। लेकिन आंध्र प्रदेश राज्य बनाम पी. सागर मामले में , बिना किसी सामग्री के केवल जाति पर आधारित पिछड़े वर्ग की एक सूची, जिसमें यह दर्शाया गया था कि पूरी जाति पिछड़ी है, को अनुच्छेद 15(4) का उल्लंघन बताकर रद्द कर दिया गया था। 

केएस जयश्री बनाम केरल राज्य में, पिछड़े वर्ग से संबंधित व्यक्ति लेकिन पारिवारिक आय रुपये से अधिक है। 10000, को आरक्षण के लाभ से वंचित कर दिया गया क्योंकि यह माना गया था कि जाति को इस उद्देश्य के लिए एकमात्र या प्रमुख परीक्षण नहीं माना जा सकता था और गरीबी को भी ध्यान में रखा गया था। यह माना गया कि पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए न तो गरीबी और न ही जाति एकमात्र कारक हो सकती है। पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए जाति और गरीबी दोनों प्रासंगिक कारक हैं।

केरल राज्य बनाम एनएम थॉमस , जिसमें उन्होंने कहा कि 'आरक्षण का लाभ पिछड़े वर्ग की शीर्ष मलाईदार परत द्वारा छीन लिया जाएगा, इस प्रकार कमजोरों में से सबसे कमजोर को छोड़ दिया जाएगा और भाग्यशाली परतों को पूरा केक खाने के लिए छोड़ दिया जाएगा।

इस शब्द को न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर द्वारा फिर से उद्धृत किया गया था 
अखिल भारतीय शोषित कर्मचारी संघ बनाम भारत संघ और न्यायमूर्ति चिन्नापा रेड्डी द्वारा केसी वसंत कुमार बनाम कर्नाटक राज्य में भी इसी तरह की चिंताएं उठाई गई हैं। हालाँकि इस अवधारणा की जड़ें केएस जयश्री बनाम केरेला राज्य के मामले में खोजी जा सकती हैं, जिसमें पिछड़े वर्ग के लोग, लेकिन जिनकी पारिवारिक आय रुपये से अधिक है। 10000 को आरक्षण के लाभ से वंचित कर दिया गया।

अजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य (1999, पांच-न्यायाधीशों की पीठ)

यह मामला पदोन्नति में आरक्षण से संबंधित है और क्या पदोन्नति पाने वाले आरक्षित उम्मीदवार बाद में पदोन्नत होने वाले सामान्य उम्मीदवारों पर वरिष्ठता का दावा करने के हकदार होंगे।

अदालत ने एमआर बालाजी बनाम मैसूर राज्य (1963) और सीए राजेंद्रन बनाम भारत संघ (1967) में अपने पिछले फैसलों में निर्धारित कानून को मंजूरी के साथ नोट किया और फैसला सुनाया कि आरक्षण प्रदान करना सरकार का कोई कर्तव्य नहीं है।

"1963 से प्रचंड अधिकार को ध्यान में रखते हुए, हम मानते हैं कि अनुच्छेद 16(4) और 16(4ए) दोनों कोई मौलिक अधिकार प्रदान नहीं करते हैं और न ही वे कोई संवैधानिक कर्तव्य थोपते हैं, बल्कि केवल विवेकाधिकार प्रदान करने वाले प्रावधान को सक्षम करने की प्रकृति में हैं। राज्य में आरक्षण प्रदान करने पर विचार करने के लिए यदि उन अनुच्छेदों में उल्लिखित परिस्थितियों की आवश्यकता है, तो अदालत ने कहा।

**********
ए भी जानिए 

जय सनातन

चमार कोई नीची जाति नहीँ, बल्कि सनातन धर्म के रक्षक हैं जिन्होंने मुगलोँ का जुल्म सहा मगर धर्म नही त्यागा
आप जानकार हैरान हो सकते हैं कि भारत में जिस जाति को चमार बोला जाता है वो असल में चंवरवंश की क्षत्रिय जाति है। इतना ही नहीं बल्कि महाभारत के अनुशासन पर्व में भी इस वंश का उल्लेख है। हिन्दू वर्ण व्यवस्था को क्रूर और भेद-भाव बनाने वाले हिन्दू नहीं, बल्कि विदेशी आक्रमणकारी थे! 

जब भारत पर तुर्कियों का राज था, उस सदी में इस वंश का शासन भारत के पश्चिमी भाग में था, उस समय उनके प्रतापी राजा थे चंवर सेन। इस राज परिवार के वैवाहिक सम्बन्ध बप्पा रावल के वंश के साथ थे। राणा सांगा और उनकी पत्नी झाली रानी ने संत रैदासजी जो कि चंवरवंश के थे, उनको मेवाड़ का राजगुरु बनाया था। वे चित्तोड़ के किले में बाकायदा प्रार्थना करते थे। इस तरह आज के समाज में जिन्हें चमार बुलाया जाता है, उनका इतिहास में कहीं भी उल्लेख नहीं है।
चमार शब्द का उपयोग पहली बार सिकंदर लोदी ने किया था। 

ये वो समय था जब हिन्दू संत रविदास का चमत्कार बढ़ने लगा था अत: मुगल शासन घबरा गया। सिकंदर लोदी ने सदना कसाई को संत रविदास को मुसलमान बनाने के लिए भेजा। वह जानता था कि यदि संत रविदास इस्लाम स्वीकार लेते हैं तो भारत में बहुत बड़ी संख्या में हिन्दू इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। 

लेकिन उसकी सोच धरी की धरी रह गई, स्वयं सदना कसाई शास्त्रार्थ में पराजित हो कोई उत्तर न दे सके और संत रविदास की भक्ति से प्रभावित होकर उनका भक्त यानी वैष्णव (हिन्दू) हो गए। उनका नाम सदना कसाई से रामदास हो गया। दोनों संत मिलकर हिन्दू धर्म के प्रचार में लग गए। जिसके फलस्वरूप सिकंदर लोदी ने क्रोधित होकर इनके अनुयायियों को अपमानित करने के लिए पहली बार “चमार“ शब्द का उपयोग किया था। 

उन्होंने संत रविदास को कारावास में डाल दिया। उनसे कारावास में खाल खिचवाने, खाल-चमड़ा पीटने, जूती बनाने इत्यादि काम जबरदस्ती कराया गया। उन्हें मुसलमान बनाने के लिए बहुत शारीरिक कष्ट दिए गए लेकिन उन्होंने कहा :-
”वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान, फिर मै क्यों छोडू इसे, पढ़ लू झूठ कुरान। वेद धर्म छोडू नहीं, कोसिस करो हज़ार, तिल-तिल काटो चाहि, गोदो अंग कटार
यातनायें सहने के पश्चात् भी वे अपने वैदिक धर्म पर अडिग रहे और अपने अनुयायियों को विधर्मी होने से बचा लिया। ऐसे थे हमारे महान संत रविदास जिन्होंने धर्म, देश रक्षार्थ सारा जीवन लगा दिया। शीघ्र ही चंवरवंश के वीरों ने दिल्ली को घेर लिया और सिकन्दर लोदी को संत को छोड़ना ही पड़ा।
संत रविदास की मृत्यु चैत्र शुक्ल चतुर्दशी विक्रम संवत १५८४ रविवार के दिन चित्तौड़ में हुई। वे आज हमारे बीच नहीं है लेकिन उनकी स्मृति आज भी हमें उनके आदर्शो पर चलने हेतु प्रेरित करती है, आज भी उनका जीवन समाज के लिए प्रासंगिक है। 

हमें यह ध्यान रखना होगा की आज के छह सौ वर्ष पहले चमार जाति थी ही नहीं। इतने ज़ुल्म सहने के बाद भी इस वंश के हिन्दुओं ने धर्म और राष्ट्र हित को नहीं त्यागा, गलती हमारे भारतीय समाज में है। आज भारतीय अपने से ज्यादा भरोसा वामपंथियों और अंग्रेजों के लेखन पर करते हैं, उनके कहे झूठ के चलते बस आपस में ही लड़ते रहते हैं। हिन्दू समाज को ऐसे सलीमशाही जूतियाँ चाटने वाले इतिहासकारों और इनके द्वारा फैलाए गये वैमनस्य से अवगत होकर ऊपर उठाना चाहिए l 

सत्य तो यह है कि आज हिन्दू समाज अगर कायम है, तो उसमें बहुत बड़ा बलिदान इस वंश के वीरों का है। जिन्होंने नीचे काम करना स्वीकार किया, पर इस्लाम नहीं अपनाया। उस समय या तो आप इस्लाम को अपना सकते थे, या मौत को गले लगा सकते थे या अपने जनपद/प्रदेश से भाग सकते थे, या फिर आप वो काम करने को हामी भर सकते थे जो अन्य लोग नहीं करना चाहते थे। 

चंवर वंश के इन वीरों ने पद्दलित होना स्वीकार किया, धर्म बचाने हेतु सुवर पालना स्वीकार किया, लेकिन मुसलमान धर्म स्वीकार नहीं किये।
:साभार 
नोट :- हिन्दू समाज में छुआ-छूत, भेद-भाव, ऊँच-नीच का भाव था ही नहीं, ये सब कुरीतियाँ विदेशी आक्रांता, अंग्रेज कालीन और भाड़े के वामपंथी व् हिन्दू विरोधी इतिहासकारों की देन है।

🌹❤️❤️🙏🙏🙏🌹🌹











*****************
my facebook page 
***************

***********
facebook profile 
************

***************






*********************************
my Youtube channels 
**************
👇👇👇



**************************
my Bloggs
***************
👇👇👇👇👇



****************************





**********************


*************

**********


******

Comments

Post a Comment

अवलोकन

Swastika : स्वास्तिक

Ramcharitmanas

अहं ब्रह्मास्मि

ब्राह्मणवाद -: Brahmnism

Jagjeet Singh | श्रद्धांजली-गजल सम्राट को

New Goernment, new name | नई सरकार- नए नाम

वाद की राजनीति

Manusmriti

लोकतंत्र जिंदाबाद

कौन जीता? कौन हारा?