RSS

RSS प्रमुख मोहन भागवत जी ने विज्ञान भवन में जिस विद्वता से अपनी बात रखी वह निश्चित रूप से सराहनीय है। इस मंच के माध्यम से उन्होंने एक तरह से संघ को लेकर जो दूसरी तमाम दूसरी धारणाएं थी, उनका निराकरण करने का सार्थक प्रयास किया और अपने पक्ष को बड़ी शालीनता और विश्वास से लोगों के समक्ष रखा। 
     हमें लगता है दूसरे संगठनों को भी इसी तरह मंच पर आकर अपनी बात कहनी चाहिए और अपने मकसद, तौर-तरीकों, आय, नीतियों और दर्शन से सभी को परिचित कराना चाहिए कि आपकी समाज में आवश्यकता और प्रासंगिकता किस बात के लिए है।
   हम सबको अपनी राय बनाने का पूरा हक है कि हम किस तरह की विचारधारा को स्वीकार करें, पर दूसरों को सुनने की आदत तो डालनी ही पड़ेगी क्योंकि सामने वाले का पक्ष, बिना सुने, जाने, उसके बारे में राय बनाना किस भी आधार पर सही नहीं कहा जा सकता।
      हम आमतौर पर अपने जातीय, धार्मिक बोध और परिवार के संस्कार (training) के कारण किसी खास बात को सही गलत मानने की एक पूर्व निर्धारित प्रक्रिया जैसे किसी computer की programming में होता है, कुछ उसी तरह का व्यवहार करने लग जाते हैं और यह हमारे सोचने, समझने, सीखने और जानने की प्रक्रिया का अंत कर देता है। तो आइए किसी को सुनने के बाद सहमत या असहमत होते हैं और अब यह भी उम्मीद करते हैं कि दूसरे संगठन भी कुछ इसी तरह सार्वजनिक मंच पर आएं, जो सिर्फ अपनी बात करें,.. किसी और कि आलोचना या कुछ.. और नहीं ।
     फिर हम आम लोग आपके बारे में फैसला कर लेंगे.. उसकी चिंता किसी और को करने की जरूरत नहीं है। 
  
"नई दुनिया" के सम्पादकीय पृष्ठ से:⬇️⬇️⬇️

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भारत के भविष्य को लेकर अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के साथ ही अपनी नीतियों, अपने क्रियाकलापों और उद्देश्यों के बारे में जिस तरह विस्तार से प्रकाश डाला, उसके बाद कम से कम उन लोगों की उसके प्रति सोच बदलनी चाहिए, जो उसे बिना जाने-समझे एक खास खांचे में फिट करके देखते रहते हैं। एक सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन के रूप में संघ किस तरह बदलते समय के साथ खुद को बदल रहा है, इसका एक प्रमाण तो यही है कि उसने औरों और यहां तक कि अपने विरोधियों और आलोचकों को अपने ढंग के एक अनूठे कार्यक्रम में आमंत्रित किया। देश और शायद दुनिया के इस सबसे विशाल संगठन के नेतृत्व ने इन आमंत्रित लोगों के सवालों के जवाब भी दिए।
       भाजपा विरोध की राजनीति करने वाले अधिकतर दलों के नेताओं ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तीन दिवसीय कार्यक्रम का जिस तरह बहिष्कार करते हुए उसे सगर्व सार्वजनिक भी किया, उससे यही स्पष्ट हुआ कि जब संघ खुद में बदलाव लाने की सामर्थ्य दिखा रहा है, तब उसके आलोचक और विरोधी जहां के तहां खड़े रहने में ही खुद की भलाई देख रहे हैं। वे इसके लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन समझदार तो वही होता है जो खुद को देश, काल और परिस्थितियों के हिसाब से बदलता है। नि:संदेह संघ को जानने-समझने का यह मतलब नहीं कि उसका अनुसरण किया जाए, लेकिन इसका भी कोई मतलब नहीं कि उसकी नीतियों को समाज एवं राष्ट्रविरोधी करार देकर उसे अवांछित संगठन की तरह से देखा जाए या फिर उसका हौवा खड़ा किया जाए।
          संघ प्रमुख मोहन भागवत ने राष्ट्रीयता, भारतीयता के साथ समाज एवं राष्ट्र निर्माण की आवश्यकता पर जिस तरह अपने विचार व्यक्त किए, उससे यह स्पष्ट है कि इस संगठन की दिलचस्पी राजनीति में कम और राष्ट्रनीति में अधिक है। उन्होंने समाज निर्माण को अपना एकमात्र लक्ष्य बताया। इस क्रम में उन्होंने हिंदू और हिंदुत्व पर जोर देने के कारणों का भी उल्लेख किया। इससे संघ और हिंदुत्व को लेकर व्याप्त तमाम भ्रांतियां दूर हई होंगी, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि कुछ संदेह बरकरार होंगे। यह सही है कि संघ के इस कार्यक्रम का प्रयोजन लोगों को अपनी बातों से सहमत करना नहीं ,बल्कि अपने बारे में जानकारी देना था, लेकिन उचित यही होगा कि वह इस तरह के आयोजन आगे भी करता रहे। सतत संवाद-संपर्क तमाम समस्याओं के समाधान की राह दिखाता है।
    जब संघ हिंदुत्व को भारतीयता का पर्याय मानकर यह कह रहा है कि वह अन्य मत-पंथ के अनुयायियों को साथ लेकर चलना चाहता है, तब कोशिश यही होनी चाहिए कि इस अभीष्ट की प्राप्ति यथाशीघ्र कैसे हो। इस कोशिश में अन्य भी भागीदार बनें तो बेहतर। इससे बेहतर अवसर और क्या हो सकता है कि संघ सभी को आमंत्रित कर रहा है? जब संघ राष्ट्र निर्माण के लक्ष्य की ओर तेजी से बढ़ना चाहता है तो उसकी कोशिश यह होनी चाहिए कि समाज का हर वर्ग उसके साथ जुड़े, क्योंकि सबल और समरस समाज के जरिये राष्ट्र निर्माण का काम अधिक आसानी से किया जा सकता है।
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