कथा परशुराम की

Social Network से प्राप्त इस मजेदार जानकारी को आइए साझा करते हैं...
। भगवान परशुराम के अति संक्षिप्त जीवन चक्र
एवं उनसे सम्बंधित भ्रांतियों पर प्रकाश।

“ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।"| हिंदू पंचांग के अनुसार वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि अर्थात अक्षय तृतीया को भगवान परशुराम का जन्मोत्सव मनाया जाता है। सौभाग्य व सफलता का सूचक अक्षय त्रितया ख़ुद में एक सर्वसिद्धि मुहर्त दिन है। त्रेतायुग के आरंभ में जन्मे भगवान परशुराम को विष्णु भगवान के छठवे अवतार के रूप में उनका आवेशावतार कहा जाता है। ये उन सात महापुरुषों में हैं जो अमर हैं, चिरंजीवी हैं।

अश्वत्थामा बलिव्र्यासो हनूमांश्च विभीषण।
कृप: परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविन।।
सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्।
जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित।।

अर्थात अश्वत्थामा, राजा बलि, महर्षि वेदव्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य, भगवान परशुराम तथा ऋषि मार्कण्डेय जी हमेशा हमेशा के लिए अमर हैं। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त “शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र” भी लिखा। तो आइए जानते हैं उनके विषय में विस्तार से।

जब परशुराम अविवाहित हैं तो हम उनके वंशज कैसे हुए?:-
कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ हिम्मत सिंह सिन्हा जी बताते हैं वंशज दो तरह के होते हैं। एक गोत्र और दूसरा प्रवर। उनका गोत्र नही था क्योंकि वो अविवाहित थे। पर उनका प्रवर अर्थात उनके गुरुकुल के शिक्षार्थी उनके ही नाम को अपना लेते हैं। तो उनका प्रवर ही उनका गोत्र बन गया। बाकि पंजाबी सारे उनके गोत्र को प्रयोग करते हैं। मसलन दत्ता, कालिया।

ये जन्म से ब्राह्मण हैं पर इनके कर्म क्षत्रिय कैसे रहे हैं? जिसके पीछे की कथा इस प्रकार है-:

महर्षि भृगु के पुत्र ऋचिक का विवाह राजा गाधि की पुत्री सत्यवती से हुआ था। विवाह के बाद सत्यवती ने अपने ससुर महर्षि भृगु से अपने व अपनी माता के लिए पुत्र की याचना की। तब महर्षि भृगु ने सत्यवती को दो खीर पात्र दिए। पर सत्यवती की माता को लगा कि महर्षि भृगु अपने परिवार के लिए श्रेष्ठ औलाद का चयन करेंगे। इसलिए उसने अपनी बेटी से चालाकी से खीर पात्र बदल लिया। यह बात महर्षि भृगु को पता चल गई। तब उन्होंने सत्यवती से कहा कि मैंने तुम्हारे पात्र में ब्राह्मणों के सौम्य गुणों को भरा था और माता के पात्र को क्षत्रिय गुणों से भरा था पर पात्र बदले जाने की वज़ह से तेरा पुत्र ब्राह्मण होने पर भी क्षत्रिय गुणों वाला रहेगा और तेरी माता का पुत्र क्षत्रिय होने पर भी ब्राह्मणों की तरह आचरण करेगा। तब सत्यवती ने महर्षि भृगु से प्रार्थना की कि मेरा पुत्र क्षत्रिय गुणों वाला न हो भले ही मेरा पौत्र (पुत्र का पुत्र) ऐसा हो। महर्षि भृगु ने कहा कि ऐसा ही होगा। कुछ समय बाद विश्वामित्र ने सत्यवती की माता के गर्भ से और जमदग्नि मुनि ने सत्यवती के गर्भ से जन्म लिया। इनका आचरण ऋषियों के समान ही था। इनका विवाह रेणुका से हुआ। मुनि जमदग्नि के पांच पुत्र हुए। क्रमश: रुक्मवान, सुषेणवसु, जेष्ठवसु, विश्वावसु और उनमें से परशुराम पांचवे थे। इस प्रकार ब्राह्मण होते हुए भी भगवान परशुराम का स्वभाव क्षत्रियों के समान था।

वे अहिंसक नही बल्कि प्रकृति के उपासक थे-:

उनका लालन पालन आश्रम में प्रकृति के सुरम्य वातावरण में हुआ था। अतः उनका प्रकृति एवं पशु पक्षियों के साथ जीवंत सम्बन्ध था। वे पशु पक्षियों की बोली को समझते थे। तथा उनसे बात करने में भी पारंगत थे। परशुराम अपने व्यवहार से कई हिंसक वन्य प्राणियों को भी अपना मित्र बना लेते थे। तो ऐसा व्यक्ति अहिंसक कैसे हो सकता है? तत्पश्चात उन्होंने महर्षि विश्वामित्र और महर्षि ऋचीक के आश्रम में रह कर शिक्षा प्राप्त की, उनकी योग्यता से प्रभावित होकर महर्षि ऋचिक ने उन्हें अपना सारंग नामक दिव्य धनुष तथा महर्षि कश्यप ने वैष्णवी मंत्र प्रदान किया.

जब उनका नाम राम था तो परशुराम कैसे बने?:-

बाल्यावस्था में परशुराम के माता-पिता इन्हें राम कहकर पुकारते थे। जब राम कुछ बड़े हुए तो उन्होंने पिता से वेदों का ज्ञान प्राप्त किया और पिता के सामने धनुर्विद्या सीखने की इच्छा प्रकट की। महर्षि जमदग्नि ने उन्हें हिमालय पर जाकर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा। पिता की आज्ञा मानकर राम ने ऐसा ही किया। उस बीच असुरों से त्रस्त देवता शिवजी के पास पहुंचे और असुरों से मुक्ति दिलाने का निवेदन किया। तब शिवजी ने तपस्या कर रहे राम को असुरों को नाश करने के लिए कहा। राम ने बिना किसी अस्त्र की सहायता से ही असुरों का नाश कर दिया। राम के इस पराक्रम को देखकर भगवान शिव ने उन्हें अनेक अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए। इन्हीं में से एक परशु (फरसा) भी था। यह अस्त्र राम को बहुत प्रिय था। इसे प्राप्त करते ही राम का नाम परशुराम हो गया।

क्यों किया माता का वध-:

एक बार परशुराम की माता रेणुका स्नान करके आश्रम लौट रही थीं। तब संयोग से राजा चित्ररथ कुछ अप्सराओं के साथ वहां जलविहार कर रहे थे। वो वहीं खड़ी होकर उन्हें देखने लगी और दृश्य पर मोहित हो गयी। उसी अवस्था में वह आश्रम पहुंच गई। जमदग्रि ने रेणुका को देखकर उसके मन की बात जान ली और अपने पुत्रों से माता का वध करने को कहा। किंतु किसी ने उनकी आज्ञा का पालन नहीं किया। तब पिता परशुराम के पास गए और उन्हें बिना कोई बात बताए उनसे वचन भरवा लिया। उन्होंने वचन पूरा करने का वादा दिया। तदुपरांत उन्होंने परशुराम से माता का वध करने को कह डाला। बहुत ज्यादा दुःखी मन से और वचन एवं आज्ञा में बंधे परशुराम ने अपने फरसे से माँ का सिर काट डाला। ये देखकर मुनि जमदग्नि प्रसन्न हुए और उन्होंने परशुराम से वरदान मांगने को कहा। तब परशुराम ने अपनी माता को पुनर्जीवित करने और उन्हें ये घटना याद न रहे ये वरदान मांगा। इस वरदान के फलस्वरूप उनकी माता पुनर्जीवित हो गईं। उन्होंने पिता को इस घटना के लिए परोक्ष जिम्मेदार माना और उन्हें नारी सम्मान का पाठ पढ़ाया। उन्होंने पिता को एहसास दिलाया कि मात्र एक तुच्छ विचार से अगर वो अपनी पत्नी का वध कर सकतें है तो आम व्यक्ति उनसे क्या सीख लेगा। वे स्त्री गरिमा, स्वतंत्र सोच और स्वतंत्र व्यक्तित्व के पक्षधर थे। उन्होंने अपने परिस्थितियों वश हुए कुकर्म के लिए कई वर्ष तप और पश्चाताप किया।

नारी उत्थान के अग्रज थे भगवन:-

वे पुरुषों के लिये आजीवन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुद्रा व अपने प्रिय शिष्य अकृतवण के सहयोग से विराट नारी-जागृति-अभियान का संचालन भी किया था। नारी सम्मान के लिए ही वो अम्बा के लिए भीष्म से लड़े। अवशेष कार्यो में कल्कि अवतार होने पर उनका गुरुपद ग्रहण कर उन्हें शस्त्रविद्या प्रदान करना भी बताया गया है।

क्यों किया कार्तवीर्य अर्जुन का वध:-

कथानक है कि हैहय वंशाधिपति का‌र्त्तवीर्यअर्जुन (सहस्त्रार्जुन) ने घोर तप द्वारा भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न कर एक सहस्त्र भुजाएँ तथा युद्ध में किसी से परास्त न होने का वर पाया था। संयोगवश वन में आखेट करते वह जमदग्निमुनि के आश्रम जा पहुँचा। ब्रह्मा द्वारा प्रदत्त कपिला कामधेनु की सहायता से जमदग्नि मुनि ने समस्त सैन्यदल के अद्भुत आतिथ्य सत्कार किया पर भोजन करने के पश्चात लोभवश जमदग्नि की अवज्ञा करते हुए  कामधेनु को बलपूर्वक छीनकर ले गया। चूंकि वो कामधेनु उस ब्राह्मण परिवार के जीवनयापन का एकमात्र सहारा थी तो जब यह बात परशुराम को पता चली तो उन्होंने कार्तवीर्य अर्जुन की एक हजार भुजाएं काट दी और उसका वध कर दिया। वे सच्चे मातृ-पितृ भक्त थे।

इसलिए किया क्षत्रियों का संहार?:-

कार्तवीर्य अर्जुन के वध का बदला उसके पुत्रों ने ध्यान में बैठे हुए जमदग्नि मुनि का वध करके लिया।  क्षत्रियों का ये नीच कर्म देखकर भगवान परशुराम बहुत क्रोधित हुए। कार्तवीर्य के वंशज दमनकारी नीतियों के अग्रज थे। उनकी अराजक नीतियों से प्रजा में भी आतंक और डर माहौल बना हुआ था। लाखों नाग कन्याओं को बंधक बना रखा था। इसलिए भगवान परशुराम ने कार्तवीर्य अर्जुन के सभी पुत्रों का वध कर दिया। जिन-जिन आतताईयों क्षत्रिय राजाओं या आसुरी शक्तियों ने उनका साथ दिया, परशुराम ने उनका भी वध कर दिया। इस प्रकार भगवान परशुराम ने 21 बार धरती को आतंकविहीन कर दिया। अगर वो वास्तव में क्षत्रियों का विरोध करना चाहते तो राजा दशरथ और राजा जनक जैसे क्षत्रिय राजाओं को क्यों छोड़ते भला? राम को अपना धनुष क्यों देते? परशुराम का क्रोध मेरे मत में रचनात्मक क्रोध है। जैसे माता अपने शिशु को क्रोध में थप्पड़ लगाती है, लेकिन रोता हुआ शिशु उसी माँ के कंधे पर आराम से सो जाता है, क्योंकि वह जानता है कि उसकी माँ का क्रोध रचनात्मक है। मेरा यह भी मत है कि परशुराम ने अन्याय का संहार और न्याय का सृजन किया।

क्यों दान कर दी ब्राह्मणों को संपूर्ण पृथ्वी?:-

महाभारत के अनुसार परशुराम का ये क्रोध देखकर महर्षि ऋचिक ने साक्षात प्रकट होकर उन्हें रोका। तब उन्होंने क्षत्रियों का संहार करना बंद कर दिया और सारी पृथ्वी भूखे-ग़रीब ब्राह्मणों को दान कर दी और स्वयं महेंद्र पर्वत पर निवास करने लगे। रामचरितमानस में लिखा हुआ है। "भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥" वे लोभ-लालच से परे थे।

क्यों किया अपने शिष्य भीष्म से युद्ध?:-

महाभारत के अनुसार महाराज शांतनु के पुत्र भीष्म ने भगवान परशुराम से ही अस्त्र-शस्त्र की विद्या प्राप्त की थी। एक बार भीष्म काशी में हो रहे स्वयंवर से काशीराज की पुत्रियों अंबा, अंबिका और अंबालिका को अपने छोटे भाई विचित्रवीर्य के लिए उठा लाए थे। तब अंबा ने भीष्म को बताया कि वह मन ही मन किसी और का अपना पति मान चुकी है तब भीष्म ने उसे ससम्मान छोड़ दिया, लेकिन हरण कर लिए जाने पर उसने अंबा को अस्वीकार कर दिया।तब अंबा भीष्म के गुरु परशुराम के पास पहुंची और उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। अंबा की बात सुनकर भगवान परशुराम ने भीष्म को उससे विवाह करने के लिए कहा, लेकिन ब्रह्मचारी होने के कारण भीष्म ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। तब परशुराम और भीष्म में भीषण युद्ध हुआ । चूंकि दोनों ही चिरायु थे अतैव अंत में अपने पितरों की बात मानकर भगवान परशुराम ने अपने अस्त्र रख दिए। इस प्रकार इस युद्ध में न किसी की हार हुई न किसी की जीत।

वास्तव में नहीं थे युद्ध के पक्षधर:-

महाभारत के युद्ध से पहले जब भगवान श्रीकृष्ण संधि का प्रस्ताव लेकर धृतराष्ट्र के पास गए थे, उस समय श्रीकृष्ण की बात सुनने के लिए भगवान परशुराम भी उस सभा में उपस्थित थे। परशुराम ने भी धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण की बात मान लेने के लिए कहा था। वे कोई बेवज़ह का नरंसहार नहीं चाहते थे।

श्रीराम से नहीं था कोई विवाद:-

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस में वर्णन है कि भगवान श्रीराम ने सीता स्वयंवर में शिव धनुष उठाया और प्रत्यंचा चढ़ाते समय वह टूट गया। धनुष टूटने की आवाज सुनकर भगवान परशुराम भी वहां आ गए। अपने आराध्य शिव का धनुष टूटा हुआ देखकर वे बहुत क्रोधित हुए और वहां उनका श्रीराम व लक्ष्मण से विवाद भी हुआ।जबकि वाल्मीकि रामायण के अनुसार सीता से विवाह के बाद जब श्रीराम पुन: अयोध्या लौट रहे थे। तब परशुराम वहां आए और उन्होंने श्रीराम से अपने धनुष पर बाण चढ़ाने के लिए कहा। श्रीराम ने बाण धनुष पर चढ़ा कर छोड़ दिया। यह देखकर परशुराम को भगवान श्रीराम के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो गया। वे जान गए उनकी तरह श्री राम भी विष्णु के अवतार हैं और वे वहां से चले गए।

उनका ब्राह्मणवाद मानववाद था। कैसे?

परशुराम जगत में वैदिक संस्कृति का प्रचार प्रसार करना चाहते थे। उन्होंने स्वयं ब्राह्मण होते हुए भी शस्त्र धारण करके क्षत्रियोचित व्यवहार कर वर्ण व्यवस्था की इस धारणा को मिथ्या साबित किया कि मनुष्य का वर्ण जन्म से निर्धारित होता है कर्म से नहीं। परशुराम शस्त्र विद्या में पारंगत आचार्य थे। कौरव कुलगुरु आचार्य द्रोण पितामह भीष्म तथा अंगराज कर्ण उनके प्रमुख शिष्य थे। वे स्वयं बहुत शक्तिशाली थे।

परशुराम का कर्ण को श्राप?:-

और अन्य कई महारथियों की तरह कर्ण भी उन्हीं का शिष्य था। कर्ण ने परशुराम को अपना परिचय एक सूतपुत्र के रूप में दिया था। एक बार जब परशुराम कर्ण की गोद में सिर रखकर सो रहे थे। उसी समय कर्ण को एक भयंकर कीड़े ने काट लिया। गुरु की नींद में विघ्न न आए ये सोचकर कर्ण दर्द सहते रहे, लेकिन उन्होंने परशुराम को नींद से नहीं उठाया। नींद से उठने पर जब परशुराम ने ये देखा तो वे समझ गए कि कर्ण सूतपुत्र नहीं बल्कि क्षत्रिय है। उनको कर्ण के झूठ से तकलीफ़ हुई । तब क्रोधित होकर परशुराम ने कर्ण को श्राप दिया कि मेरी सिखाई हुई शस्त्र विद्या की जब तुम्हें सबसे अधिक आवश्यकता होगी, उस समय तुम वह विद्या भूल जाओगे। इस प्रकार परशुरामजी के श्राप के कारण ही कर्ण की मृत्यु हुई।

क्यों काट दिया था श्रीगणेश का एक दांत?:-

ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार एक बार परशुराम जब भगवान शिव के दर्शन करने कैलाश पहुंचे तो भगवान ध्यान में थे। तब श्रीगणेश ने परशुरामजी को भगवान शिव से मिलने नहीं दिया। दोनों अपनी बातों पर अड़ गए फलस्वरूप युद्ध हुआ। परशुरामजी ने फरसे से श्रीगणेश पर वार कर दिया। वह फरसा स्वयं भगवान शिव ने परशुराम को दिया था। इसलिए उन्होंने उस फरसे का वार अपने दांत पर झेल लिया, जिसके कारण उनका एक दांत टूट गया। तभी से उन्हें एकदंत भी कहा जाता है।

पुराण दावा करते हैं कि इन्हीं परशुराम को भगवान विष्णु के दसवें अवतार जो कि कल्कि के रूप में अवतरित होंगे का गुरु भी माना जाता है। भगवान रामायण से लेकर महाभारत तक भगवान परशुराम के शौर्य की गाथा बहुत ही रोमांचक है। वे मार्शल आर्ट कलरीपायट्टु की उत्तरी शैली वदक्कन कलरी के संस्थापक आचार्य एवं गुरु हैं। भारतीय विद्या भवन, मुंबई से प्रकाशित परशुराम चरित्र  और ड़ॉ रजनीश द्वारा लिखित परशुराम का जीवन आपकी तमाम मंशाएं दूर कर सकते हैं।

कालांतर की तमाम कुरीतियों को दरकिनार करते हुए हमारा सनातन रूप से चला आ रहा ऐसा ब्राह्मणवाद जो मानवतावाद की तरफ़ हमें ले जाये, उसे अपनाने में मुझे संकोच नहीं है। भगवान परशुराम के जन्मोत्सव की बारम्बार शुभकामनाएं।

               लेखिक: मोनिका भारद्वाज
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जाने! 33 कोटि (प्रकार) देवी-देवता हैं हिंदू धर्म में !
देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते हैं। कोटि का मतलब 'प्रकार' होता है और एक अर्थ 'करोड़' भी होता है। 

कुल 33 प्रकार के देवी-देवता हैं, जिनमें- 
12 हैं आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अंशभाग, विवास्वान, पूष, सविता, तवास्था, और विष्णु।
8 हैं वासु- धरध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
11 हैं - रुद्र:, हरबहुरुप, त्रयँबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभू, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा, और कपाली।
दो हैं - अश्विनी और कुमार।
कुल 12+8+11+2 = 33 कोटी

महत्वपूर्ण जानकारी...
दो पक्ष - कृष्ण पक्ष, शुक्ल पक्ष।
तीन ऋण - देव ऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण।
चार युग - सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग।
चार धाम - द्वारिका, बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम धाम।
चारपीठ - शारदा पीठ (द्वारिका), ज्योतिष पीठ(जोशीमठ बद्रिधाम), गोवर्धन पीठ (जगन्नाथपुरी),
शृंगेरीपीठ।

चार वेद- ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद।
चार आश्रम - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास।
चार अंतःकरण - मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार।
पञ्च गव्य - गाय का घी, दूध, दही, गोमूत्र, गोबर।
पंच तत्त्व - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश।

छह दर्शन - वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मिसांसा, दक्षिण मिसांसा।
सप्त ऋषि - विश्वामित्र, जमदाग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्री, वशिष्ठ और कश्यप।
सप्त पुरी - अयोध्या पुरी, मथुरा पुरी, माया पुरी (हरिद्वार),
काशी, कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका और
द्वारिका पुरी।
आठ योग - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि।

दस दिशाएं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, नैऋत्य,
वायव्य, अग्नि, आकाश एवं पाताल
बारह मास - चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, अषाढ, श्रावण, भाद्रपद,
अश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ, फागुन।
पंद्रह तिथियाँ - प्रतिपदा, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थी, पंचमी,
षष्ठी, सप्तमी, अष्टमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी,
त्रयोदशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, अमावास्या।

स्मृतियां - मनु, विष्णु, अत्री, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगीरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, ब्रहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ। 
जय श्री कृष्ण
Jai Kishan Karnwal

 कालजई साहित्य और उसका रचनाकार, कभी मरते नहीं है। आप किसी का भी नाम ले लीजिए वह हजारों साल से आज भी हमारे बीच में वैसे ही मौजूद है और उसके जीवंत बने रहने का कारण उसका अपने वक्त से बहुत आगे होना है। इस समझ के कारण आमतौर पर गहरी समझ रखने वाले लोग प्रायः तत्कालीन समाज के कोपभाजन का शिकार होते रहे हैं क्योंकि उनकी बात समझ सकने की सामर्थ्य उस समाज में होती ही नहीं है। उसकी बात किसी भौगोलिक या सामाजिक सीमाओं तक सीमित नहीं होती वह तो देश-काल से परे जाने के लिए ही सब रचता और गढ़ता है। अब उसके नाम का क्या जिक्र किया जाये, जब उसका कोई एक नाम हो ही नहीं। वह तो हर काल में, हर माहौल में जन्मता है, वह बंदिशें तोड़ता है, उसके अपने उस पर तमाम जुल्मों सितम ढाते हैं और... उसके न रहने पर 

यह अपने समझ के हिसाब से आप चाहे जैसे मानते हों और उसे चाहे जिस नाम से जानते हों। कोई फर्क नहीं पड़ता, । 
जो अब, तुम कह रहे हो। यह तो समझने वालों की मजबूरी या जरूरत है, जो उसे फिर से लोगों के सामने लाना पड़ रहा रहा है क्योंकि.. शायद.. उसने अपने लिए नए शब्द नहीं डरते और कहां हुआ ही दुख रहा है है
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Manusmriti

लोकतंत्र जिंदाबाद

कौन जीता? कौन हारा?