यदुवंशी क्षत्रिय और कुश वंशी क्षत्रिय दोनों मंडल कमीशन के गुणा गणित में पहले पिछड़ा बने और अब शूद्र बनने कि फ़िराक़ में हैं क्योंकि शासन और सत्ता के समीकरण में यही उनके लिए फायदेमंद है और अब साहित्य भी दलित हो गया है और सोचने कि बात यह है कि रामायण और महाभारत को किस साहित्य के अंतर्गत रखा जाएगा क्योंकि इनके रचनाकार कि जाति भी बतानी पड़ेगी और तब....
चलिए कुछ और बात करते हैं
इन सारी बातों का अर्थ यही है कि बारहवीं शताब्दी से लेकर अब तक अर्थात इस्लामिक राज ( तुर्क, अफगान, मुगल) , इसाई राज ( अंग्रेज, French, पुर्तगाली) और संविधान लागू होने के बाद भी सब ब्राह्मणों का किया धरा है और आज भी सब उन्हीं के हाथ में हैं।
सब व्यर्थ मतलब ए सब करने धरने का कोई मतलब नहीं है। जब ऐसी बर्बरता के बीच भी इन लोगों ने अपनी पहचान बचा के रखी और आज के नव ब्राह्मण जो दलित होने पर ज्यादा जोर दे रहे हैं वह भी एक तरह का ब्राह्मण वाद ही है जो लोकतंत्र में संख्या बल को ध्यान में रखकर गढ़ा जा रहा है।
खैर सबको अपना एजेंडा चलाने का अधिकार है
बस हिम्मत करिए सच बताइए पर अफसोस इससे वोट नहीं मिलेगा जिसके लिए खेल चल रहा है अब किसको किसका शिकार होना है यह हम खुद तय कर सकते हैं।
अच्छा यह तो कर ही सकते हैं -
खुद पढ़िये और दूसरे पक्ष को भी, देखिये सुनिए
बस समस्या एक ही है थोड़ी मेहनत करनी पड़ती है
एक सलाह ए है कि कृपा करके ब्राह्मणों का गुणगान करना बंद करिये क्योंकि दलित विमर्श में जो लगातार कहा जाता है उसका मतलब तो यही निकलता है कि देखो इतने सबके बाद भी ब्राह्मण कितना ताकतवर है जो इस्लाम और ईसाइयों के बर्बर शासन में भी मजबूती से डटा रहा और आजादी के बाद संविधान लागू होने के बाद भी वह अपनी वैसी ही स्थिति बरकरार किये हुए है सोचने कि बात है कि वह कितना कबिल है...
या फिर यह दलित, पिछड़ा, ब्राह्मणवाद, मनुवाद वाला narrative ही गलत है मतलब ऐसी चीज से लड़ाई लड़ी जा रही है जो है ही नहीं इसी वजह से उससे कोई जीत नहीं पा रहा है क्योंकि यह वंचित और वर्चस्ववाद के बीच लड़ाई है और यह सभी जगह और लोगों के बीच है जहाँ हर आदमी ब्राह्मण बनने के लिए इन नारों का इस्तेमाल कर रहा है और ब्राह्मण बनते (कहीं, किसी जगह, कोई भी व्यक्ति पदस्थ होते) ही उसका लक्ष्य पूरा हो जाता है और एक ऐसे समाजवाद का निर्माण करता है जहाँ सारा साधन और सत्ता सिर्फ उसके परिवार में निहित रहे और इसके लिए नारों कि बहुत अहमियत जो गुलामों को निरंतर गुलाम बनाए रखती है
मनु कहते हैं- जन्मना जायते शूद्र: कर्मणा द्विज उच्यते। अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं और कर्म से ही वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बनते हैं। वर्तमान दौर में ‘मनुवाद’ शब्द को नकारात्मक अर्थों में लिया जा रहा है। ब्राह्मणवाद को भी मनुवाद के ही पर्यायवाची के रूप में उपयोग किया जाता है। वास्तविकता में तो मनुवाद की रट लगाने वाले लोग मनु अथवा मनुस्मृति के बारे में जानते ही नहीं है या फिर अपने निहित स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग अलापते रहते हैं। दरअसल, जिस जाति व्यवस्था के लिए मनुस्मृति को दोषी ठहराया जाता है, उसमें जातिवाद का उल्लेख तक नहीं है।
मनुस्मृति :
समाज के संचालन के लिए जो व्यवस्थाएं दी हैं, उन सबका संग्रह मनुस्मृति में है। अर्थात मनुस्मृति मानव समाज का प्रथम संविधान है, न्याय व्यवस्था का शास्त्र है। यह वेदों के अनुकूल है। वेद की कानून व्यवस्था अथवा न्याय व्यवस्था को कर्तव्य व्यवस्था भी कहा गया है। उसी के आधार पर मनु ने सरल भाषा में मनुस्मृति का निर्माण किया। वैदिक दर्शन में संविधान या कानून का नाम ही धर्मशास्त्र है। महर्षि मनु कहते है-
धर्मो रक्षति रक्षित:
अर्थात जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। यदि वर्तमान संदर्भ में कहें तो जो कानून की रक्षा करता है कानून उसकी रक्षा करता है। कानून सबके लिए अनिवार्य तथा समान होता है।
जिन्हें हम वर्तमान समय में धर्म कहते हैं दरअसल वे संप्रदाय हैं। धर्म का अर्थ है जिसको धारण किया जाता है और मनुष्य का धारक तत्व है मनुष्यता, मानवता। मानवता ही मनुष्य का एकमात्र धर्म है। हिन्दू मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख आदि धर्म नहीं मत हैं, संप्रदाय हैं। संस्कृत के धर्म शब्द का पर्यायवाची संसार की अन्य किसी भाषा में नहीं है। भ्रांतिवश अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ शब्द को ही धर्म मान लिया गया है, जो कि नितांत गलत है। इसका सही अर्थ संप्रदाय है। धर्म के निकट यदि अंग्रेजी का कोई शब्द लिया जाए तो वह ‘ड्यूटी’ हो सकता है। कानून ड्यूटी यानी कर्तव्य की बात करता है।जिन्हें हम वर्तमान समय में धर्म कहते हैं दरअसल वे संप्रदाय हैं। धर्म का अर्थ है जिसको धारण किया जाता है और मनुष्य का धारक तत्व है मनुष्यता, मानवता। मानवता ही मनुष्य का एकमात्र धर्म है। हिन्दू मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, सिख आदि धर्म नहीं मत हैं, संप्रदाय हैं। संस्कृत के धर्म शब्द का पर्यायवाची संसार की अन्य किसी भाषा में नहीं है। भ्रांतिवश अंग्रेजी के ‘रिलीजन’ शब्द को ही धर्म मान लिया गया है, जो कि नितांत गलत है। इसका सही अर्थ संप्रदाय है। धर्म के निकट यदि अंग्रेजी का कोई शब्द लिया जाए तो वह ‘ड्यूटी’ हो सकता है। कानून ड्यूटी यानी कर्तव्य की बात करता है।
मनु ने भी कर्तव्य पालन पर सर्वाधिक बल दिया है। उसी कर्तव्यशास्त्र का नाम मानव धर्मशास्त्र या मनुस्मृति है। आजकल अधिकारों की बात ज्यादा की जाती है, कर्तव्यों की बात कोई नहीं करता। इसीलिए समाज में विसंगतियां देखने को मिलती हैं। मनुस्मृति के आधार पर ही आगे चलकर महर्षि याज्ञवल्क्य ने भी धर्मशास्त्र का निर्माण किया जिसे याज्ञवल्क्य स्मृति के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजी काल में भी भारत की कानून व्यवस्था का मूल आधार मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति रहा है। कानून के विद्यार्थी इसे भली-भांति जानते हैं। राजस्थान हाईकोर्ट में मनु की प्रतिमा भी स्थापित है।
मनुस्मृति में दलित विरोध :
मनुस्मृति न तो दलित विरोधी है और न ही ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देती है। यह सिर्फ मानवता की बात करती है और मानवीय कर्तव्यों की बात करती है। मनु किसी को दलित नहीं मानते। दलित संबंधी व्यवस्थाएं तो अंग्रेजों और आधुनिकवादियों की देन हैं। दलित शब्द प्राचीन संस्कृति में है ही नहीं। चार वर्ण जाति न होकर मनुष्य की चार श्रेणियां हैं, जो पूरी तरह उसकी योग्यता पर आधारित है। प्रथम ब्राह्मण, द्वितीय क्षत्रिय, तृतीय वैश्य और चतुर्थ शूद्र। वर्तमान संदर्भ में भी यदि हम देखें तो शासन-प्रशासन को संचालन के लिए लोगों को चार श्रेणियों- प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ श्रेणी में बांटा गया है। मनु की व्यवस्था के अनुसार हम प्रथम श्रेणी को ब्राह्मण, द्वितीय को क्षत्रिय, तृतीय को वैश्य और चतुर्थ को शूद्र की श्रेणी में रख सकते हैं। जन्म के आधार पर फिर उसकी जाति कोई भी हो सकती है। मनुस्मृति एक ही मनुष्य जाति को मानती है। उस मनुष्य जाति के दो भेद हैं। वे हैं पुरुष और स्त्री।
मनु कहते हैं-
‘जन्मना जायते शूद्र:’ अर्थात जन्म से तो सभी मनुष्य शूद्र के रूप में ही पैदा होते हैं। बाद में योग्यता के आधार पर ही व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र बनता है। मनु की व्यवस्था के अनुसार ब्राह्मण की संतान यदि अयोग्य है तो वह अपनी योग्यता के अनुसार चतुर्थ श्रेणी या शूद्र बन जाती है। ऐसे ही चतुर्थ श्रेणी अथवा शूद्र की संतान योग्यता के आधार पर प्रथम श्रेणी अथवा ब्राह्मण बन सकती है। हमारे प्राचीन समाज में ऐसे कई उदाहरण है, जब व्यक्ति शूद्र से ब्राह्मण बना। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुरु वशिष्ठ महाशूद्र चांडाल की संतान थे, लेकिन अपनी योग्यता के बल पर वे ब्रह्मर्षि बने। एक मछुआ (निषाद) मां की संतान व्यास महर्षि व्यास बने। आज भी कथा-भागवत शुरू होने से पहले व्यास पीठ पूजन की परंपरा है। विश्वामित्र अपनी योग्यता से क्षत्रिय से ब्रह्मर्षि बने। ऐसे और भी कई उदाहरण हमारे ग्रंथों में मौजूद हैं, जिनसे इन आरोपों का स्वत: ही खंडन होता है कि मनु दलित विरोधी थे।
अर्थात ब्राह्णों की उत्पत्ति ब्रह्मा के मुख से, भुजाओं से क्षत्रिय, उदर से वैश्य तथा पांवों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई। दरअसल, कुछ अंग्रेजों या अन्य लोगों के गलत भाष्य के कारण शूद्रों को पैरों से उत्पन्न बताने के कारण निकृष्ट मान लिया गया, जबकि हकीकत में पांव श्रम का प्रतीक हैं। ब्रह्मा के मुख से पैदा होने से तात्पर्य ऐसे व्यक्ति या समूह से है जिसका कार्य बुद्धि से संबंधित है अर्थात अध्ययन और अध्यापन। आज के बुद्धिजीवी वर्ग को हम इस श्रेणी में रख सकते हैं। भुजा से उत्पन्न क्षत्रिय वर्ण अर्थात आज का रक्षक वर्ग या सुरक्षाबलों में कार्यरत व्यक्ति। उदर से पैदा हुआ वैश्य अर्थात उत्पादक या व्यापारी वर्ग। अंत में चरणों से उत्पन्न शूद्र वर्ग।
यहां यह देखने और समझने की जरूरत है कि पांवों से उत्पन्न होने के कारण इस वर्ग को अपवित्र या निकृष्ट बताने की साजिश की गई है, जबकि मनु के अनुसार यह ऐसा वर्ग है जो न तो बुद्धि का उपयोग कर सकता है, न ही उसके शरीर में पर्याप्त बल है और व्यापार कर्म करने में भी वह सक्षम नहीं है। ऐसे में वह सेवा कार्य अथवा श्रमिक के रूप में कार्य कर समाज में अपने योगदान दे सकता है। आज का श्रमिक वर्ग अथवा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी मनु की व्यवस्था के अनुसार शूद्र ही है। चाहे वह फिर किसी भी जाति या वर्ण का क्यों न हो।
वर्ण विभाजन को शरीर के अंगों को माध्यम से समझाने का उद्देश्य उसकी उपयोगिता या महत्व बताना है न कि किसी एक को श्रेष्ठ अथवा दूसरे को निकृष्ट। क्योंकि शरीर का हर अंग एक दूसरे पर आश्रित है। पैरों को शरीर से अलग कर क्या एक स्वस्थ शरीर की कल्पना की जा सकती है? इसी तरह चतुर्वण के बिना स्वस्थ समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
ब्राह्मणवाद की हकीकत :
ब्राह्मणवाद मनु की देन नहीं है। इसके लिए कुछ निहित स्वार्थी तत्व ही जिम्मेदार हैं। प्राचीन काल में भी ऐसे लोग रहे होंगे जिन्होंने अपनी अयोग्य संतानों को अपने जैसा बनाए रखने अथवा उन्हें आगे बढ़ाने के लिए लिए अपने अधिकारों का गलत इस्तेमाल किया होगा। वर्तमान संदर्भ में व्यापम घोटाला इसका सटीक उदाहरण हो सकता है। क्योंकि कुछ लोगों ने भ्रष्टाचार के माध्यम से अपनी अयोग्य संतानों को भी डॉक्टर बना दिया।
हमारे संविधान में कहीं नहीं लिखा भ्रष्ट तरीके अपनाकर अपनी अयोग्य संतानों को आगे बढाएं। इसके लिए तत्कालीन समाज या फिर व्यक्ति ही दोषी हैं। उदाहरण के लिए संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर ने संविधान में आरक्षण की व्यवस्था 10 साल के लिए की थी, लेकिन बाद में राजनीतिक स्वार्थों के चलते इसे आगे बढ़ाया जाता रहा। ऐसे में बाबा साहेब का क्या दोष?
मनु तो सबके लिए शिक्षा की व्यवस्था अनिवार्य करते हैं। बिना पढ़े लिखे को विवाह का अधिकार भी नहीं देते, जबकि वर्तमान में आजादी के 70 साल बाद भी देश का एक वर्ग आज भी अनपढ़ है। मनुस्मृति को नहीं समझ पाने का सबसे बड़ा कारण अंग्रेजों ने उसके शब्दश: भाष्य किए। जिससे अर्थ का अनर्थ हुआ। पाश्चात्य लोगों और वामपंथियों ने धर्मग्रंथों को लेकर लोगों में भ्रांतियां भी फैलाईं। इसीलिए मनुवाद या ब्राह्मणवाद का हल्ला ज्यादा मचा।
मनुस्मृति या भारतीय धर्मग्रंथों को मौलिक रूप में और उसके सही भाव को समझकर पढ़ना चाहिए। विद्वानों को भी सही और मौलिक बातों को सामने लाना चाहिए। तभी लोगों की धारणा बदलेगी। दाराशिकोह उपनिषद पढ़कर भारतीय धर्मग्रंथों का भक्त बन गया था। इतिहास में उसका नाम उदार बादशाह के नाम से दर्ज है। फ्रेंच विद्वान जैकालियट ने अपनी पुस्तक ‘बाइबिल इन इंडिया’ में भारतीय ज्ञान विज्ञान की खुलकर प्रशंसा की है।
पंडित, पुजारी बनने के ब्राह्मण होना जरूरी है :
पंडित और पुजारी तो ब्राह्मण ही बनेगा, लेकिन उसका जन्मगत ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है। यहां ब्राह्मण से मतलब श्रेष्ठ व्यक्ति से न कि जातिगत। आज भी सेना में धर्मगुरु पद के लिए जातिगत रूप से ब्राह्मण होना जरूरी नहीं है बल्कि योग्य होना आवश्यक है। ऋषि दयानंद की संस्था आर्यसमाज में हजारों विद्वान हैं जो जन्म से ब्राह्मण नहीं हैं। इनमें सैकड़ों पूरोहित जन्म से दलित वर्ग से आते हैं।
महर्षि मनु कहते हैं कि कर्म के अनुसार ब्राह्मण शूद्रता को प्राप्त हो जाता है और शूद्र ब्राह्मणत्व को। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य से उत्पन्न संतान भी अन्य वर्णों को प्राप्त हो जाया करती हैं। विद्या और योग्यता के अनुसार सभी वर्णों की संतानें अन्य वर्ण में जा सकती हैं।
हमारे नेताओं को ऐसे समाजवाद का निर्माण करना है जहाँ सारा साधन और सत्ता सिर्फ उसके परिवार में निहित रहे और इसके लिए नारों कि बहुत अहमियत जो गुलामों को निरंतर गुलाम बनाए रखती है
पुजारी "पंडित, ब्राह्मण, ब्राह्मणवाद" क्या आप लोगों ने इस बात पर गौर किया है कि अधिकतर जो बड़े-बड़े बाबा लोग (धार्मिक माफिया) हैं उनमें जाति से ब्राह्मण बहुत ही कम हैं और लोगों को ए भी पता नहीं है कि ब्राह्मण समाज में पूजा-पाठ या फिर दान लेकर जीवन यापन करने वालों को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता और ज्यादातर ब्राह्मण मूलतः शिक्षित, अर्द्ध शिक्षित किसान हैं। इलाहाबाद में माघ मेले के दौरान अखाडों का थोड़ा नजदीक से आकलन करने पर संन्यास ग्रहण करने वालों में बहुत कम लोग, जाति से ब्राह्मण होते हैं। इसी तरह साधू और ब्राह्मण के भेष में भीख माँगने वालों में अन्य जातियों के लोग ही ज्यादा होते हैं। यह साहित्य, सिनेमा और राजनीतिक लक्ष्यों का बनाया प्रोपेगैंडा मात्र है। जबकि सर्वाधिक नास्तिक, वामपंथी और समाजवादी लोग भी इसी समाज से हैं और जो कथित ब्राह्मणवाद है उसकी हर जगह अपनी व्याख्या है वह भी राजनीतिक ज्यादा है। हम तो कहीं नहीं देखते किसी पुजारी से उसकी जाति पूँछी जाती हो, हाँ पूजा प्रार्थना कराने वाले को पंडित जी, गुरू जी का सम्बोधन तो मिलता ही है और उनको शहरी समाज में ब्राह्मण कह दिया...
सोचिए? सभझिए? कहिए हम आजाद है? ताकत के साथ जिम्मेदारी का होना ही उसे सार्थक बनाता है अन्यथा इस ताकत का परिणाम किसी खतरनाक अपराधी (श्वेतवसन भी) या उसके अपने संगठन के रूप में सामने आता है जो आधुनिक, उदारवादी समाज के विरुद्ध होता है। ऐसे संगठनों और लोगों को भरपूर जनसमर्थन हासिल होता है जिसका कारण आम जनता में उस मसीहा या हीरो को खोजने और पाने की इच्छा है जो आते ही सबकुछ ठीक कर देगा एक दम धार्मिक कहानियों जैसा और उन्हीं कहानियों के सच होने की उम्मीद में न जाने कैसे-कैसे लोगों की भक्ति करने लग जाता है। इसका परिणाम हम तमाम धार्मिक गुरूओं की भव्य सभाओं के रूप में देख सकते हैं उसका नाम कुछ भी हो सकता है पर उनमें जो समानता है वह ताकत और उसके प्रदर्शन का है और उनका मकसद डराना है और यह डराने को प्रक्रिया अनवरत जारी है। इसके लिए किसी एक संगठन या व्यक्ति को श्रेय नहीं दिया जाना चाहिए। ज्यादातर प्रतिक्रिया में लोगों को संगठित किया जाना आसान होता है और यह प्रतिक्रिया पहले डर, फिर सुरक्षा बोध से शुरू होती है। इसी भ्रम में लोग अपनी आजादी किसी और के हाथ में सौंप देते हैं। जहाँ सबसे पहले उनकी आजाद सोच खत...
ढोल गवांर सूद्र पसु नारी, सकल ताडना के अधिकारी। .... रामचरित मानस (सुंदर कांड) दोहा-58 काटेहिं पर कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच। बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।। अर्थ- काकभुसुंडि जी कहते हैं - हे गरुड़ जी! सुनिए चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डांटने पर ही झुकता है अर्थात रास्ते पर आता है... ********* चोपाई - सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे, छमहु नाथ सब अवगुन मेरे। गगन समीर अनल जल धरनी, इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ।। 1।। अर्थ - समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़ कर कहा - हे नाथ मेरे सब अवगुण अर्थात दोष क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन सब की करनी स्वभाव से ही जड़ है.. ********** तव प्रेरित मायाँ उपजाए, सृष्टि हेतु सब ग्रंथिन गाए। प्रभु आयसु जेहि जस अहई, सो तेहि भाँति रहें सुख लहई ।। 2।। अर्थ - आप की प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथों में यही गाया है जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है.. ********* प्र...
स्वास्तिक Copied स्वस्तिक ************ स्वस्तिक हिन्दू धर्म का पवित्र, पूजनीय चिह्न और प्राचीन धर्म प्रतीक है। यह देवताओं की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाएँ इन दोनों के संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है। पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न स्वास्तिक अपने आप में विलक्षण है। यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। विघ्नहर्ता गणेश की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वास्तिक को ही अंकित किया जाता है। किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक के नहीं किया जा सकता। चूंकि शास्त्रों के अनुसार श्री गणेश प्रथम पूजनीय हैं, अत: स्वस्तिक का पूजन करने का अर्थ यही है कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो। स्वस...
हम लोग हमारे लोग जितनी ऊर्जा दूसरे जाति, धर्म और राजनीतिक दल के लोगों को गलत साबित करने में लगाते हैं। उसका थोड़ा सा हिस्सा यदि अपने कथित समाज के लोगों के बीच सिर्फ शिक्षा प्राप्त करने की प्रेरणा देने में लगा दें तो सारा मंजर बदल जाएगा। पर इसका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि पीछे जात, धर्म.. का झंडा लेकर चलने वाले नहीं मिलेंगे। तो समझदारी इसी में है कि ज्यादा से ज्यादा लोग जाहिल रहें। जो जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाएं और अपने कथित नेता की बात को अंतिम सत्य की तरह स्वीकार करें। तो बोलिए जातिवाद... सम्प्रदायवाद...... बाकी अपनी जात.. धर्म.. जैसी सुविधा हो जोड़ लीजिए। आजादी के सही मायने यही है कि हम कोई जिम्मेदारी नहीं निभाएंगे.... जबकि अधिकार सभी चाहिए... जैसे चोरी करने, भ्रष्टाचार का, सरकारी सम्पत्ति को नुकसान पहुँचाने का, गंदगी करने का, कहीं भी जाम लगाने, धक्का मुक्की करना का। ए सब हमारा राष्ट्रीय चरित्र, जैसा बन गया है। अभी आगे भी है, इसके बाद भी गर्व करि...
लोकसभा चुनाव का विश्लेषण बहुत सारे आंकड़े बहुत सारे तरीके से समझे और समझाए जाएंगे की कौन सी पार्टी क्यों जीती? क्यों हारी और हार-जीत दोनों की अपनी अपनी व्याख्या होती रहेगी और इस व्याख्या करने का भी एक बड़ा बाजार है जिसमें व्याख्या करने वाले बुद्धिजीवी अपनी दुकान अच्छे से चला रहे हैं। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और हरियाणा जैसे राज्यों में भाजपा की सीटों के कम होने का आकलन करना चाहते हैं तो उत्तर प्रदेश में बसपा के वोट बैंक का आकलन करना होगा कि कि चुनाव में बसपा ने कितना वोट हासिल किया और वह वोट किस तरफ गया। उत्तर प्रदेश में हुए चुनाव के आंकड़े देखिए कि भाजपा को कब ज्यादा लाभ मिला जब बसपा का वोट उसके पास बना रहा। जहां एक ओर भाजपा समर्थकों का वोट बैंक है तो इनसे किसी मामले में जो विरोधी वोटर समूह है वह इनसे कम नहीं है और भाजपा के लोग सबका वोट लेने के चक्कर में अपने मुख्य मतदाता समूह को नजरंदाज करने लग जाते है और भाजपा विरोधी समूह जो उसे किसी कीमत वोट नहीं देता, उसकी चाटुकारिता में लगा रहता है और उसके बाद भी वह वोट हासिल नहीं होता। क्योंकि वह अपनी जातीय चेतना और विचारधार...
संघ RSS प्रमुख मोहन भागवत जी ने विज्ञान भवन में जिस विद्वता से अपनी बात रखी वह निश्चित रूप से सराहनीय है। इस मंच के माध्यम से उन्होंने एक तरह से संघ को लेकर जो दूसरी तमाम दूसरी धारणाएं थी, उनका निराकरण करने का सार्थक प्रयास किया और अपने पक्ष को बड़ी शालीनता और विश्वास से लोगों के समक्ष रखा। हमें लगता है दूसरे संगठनों को भी इसी तरह मंच पर आकर अपनी बात कहनी चाहिए और अपने मकसद, तौर-तरीकों, आय, नीतियों और दर्शन से सभी को परिचित कराना चाहिए कि आपकी समाज में आवश्यकता और प्रासंगिकता किस बात के लिए है। हम सबको अपनी राय बनाने का पूरा हक है कि हम किस तरह की विचारधारा को स्वीकार करें, पर दूसरों को सुनने की आदत तो डालनी ही पड़ेगी क्योंकि सामने वाले का पक्ष, बिना सुने, जाने, उसके बारे में राय बनाना किस भी आधार पर सही नहीं कहा जा सकता। हम आमतौर पर अपने जातीय, धार्मिक बोध और परिवार के संस्कार (training) के कारण किसी खास बात को सही गलत मानने की एक पूर्व निर्धारित प्रक्रिया जैसे किसी computer की programming में होता...
भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई जिस शालीन और सभ्य तरीके से शुरू हुई थी. वह मीडिया से पाए जाने वाले आसान कवरेज और महान घोषित होने कि संभावना के कारण, अपने उद्देश्य से भटकती दिख रही है . जिसका कारण हमारे नेतागण हैं. जो अपनी कुशाग्र बुद्धि का इस्तेमाल हर छोटे-बड़े काम को रोकने के लिए करते हैं और इस समय अन्ना के मुहिम कि हवा निकालना ही इनका मकसद है. बाबा रामदेव कि हर समय मीडिया में बने रहने कि इच्छा ने नेताओं का काम आसान कर दिया है. बाबा जो कह रह वह सब सही है. पर हमें यह समझ नहीं आता कि वह सारे काम खुद ही क्यों करना चाहते हैं, जबकी बाकी लोग काफी अच्छा प्रयास कर रहें हैं. ऐसे में उन लोगों को पर्याप्त मौका और समय दिया जाना चाहिए और उनकी सराहना भी की जानी चाहिए. अब तो ऐसा लगता है की हमारे साधू- संत भी ईर्ष्या के शिकार हो रहे हैं और बाबा भी अपने चूक जाने की गलती (अन्ना की तुलना में) तत्काल सुधारना चाहते हैं . श्रेय लेने और प्रसिद्धि पाने की हर वक़्त की लालसा, ऐसे आन्दोलनों को कमज़ोर बनाती है. अपने देश में कुछ हज़ार लोगों को इकट्ठा कर...
मेरा गाँव सोनाई Uruva, Prayagraj यह दृश्य हमारे गाँव की "बम्बा देवी" का है। जो कि हमारी "ग्राम्य देवी" हैं। जैसा कि पुराने समय में हर गाँव के अपने देवी-देवता हुआ करते थे और हर घर में अपने-अपने ठाकुर महराज। अब ठाकुर महराज अधिकांश घरों से लुप्त हो चुके हैं। जबकि गांवों में उनके देवी-देवता बरकरार हैं और ऐसे दृश्य प्रायः हर गाँव में मिल जाते हैं। यहाँ के पूजा पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ पूजा का सारा काम महिला पुजारी करती है और जिस परिवार के लोग सदा से करते आ रहे हैं वो पासी जाति (SC) से हैं। अब यहाँ जाति के बारे में इस तरह लिखना अच्छा तो नहीं लगता... पर अपने समाज की इस खूबसूरती का जिक्र किया जाना चाहिए कि हम किस तरह की विरासत को अब भी संजोए हुए हैं कि एक ब्राह्मण बाहुल्य, वो भी गांव में, एक दलित, वो भी महिला, पुजारी है... हां पूजा कब होगी इसकी घोषणा भी यही करती हैं आमतौर पर जब गेहूँ की कटाई हो चुकी होती है और गांव के सभी लोग लगभग खाली होते हैं और जेठ का महीना तप रहा होता है। प्रायः इसी समय गांव के सभी लोग तीन दिनों तक अपने रसोई घरों में...
गौ माता की जय हो मित्रों बधाई हो अब शीघ्र ही पशुओं की निर्मम हत्या पर विराम लग जाएगा क्योंकि पशु प्रेमी हिन्दू समाज शीघ्र ही समस्त चार्मिक (चमड़ा) वस्तुओं का बहिष्कार कर देगा। सर्वप्रथम चर्म पादुका (जूता), कमर पट्टा(बेल्ट) और तमाम सौन्दर्य प्रसाधन के साथ ही रासायनिक खादों का पूर्ण बहिष्कार किया जाएगा। इसका सुखद परिणाम यह होगा कि गडेरिया जाति का पूर्ण उन्मूलन हो जाएगा क्योंकि पशु विक्रय शीघ्र ही जघन्य कर्म घोषित हो जाएगा और ऐसे अधम कार्य को भला कौन करना चाहेगा? अब पशुओं को स्वच्छंद विचरण का पूर्ण अधिकार प्राप्त होगा जैसाकि अभी तक तमाम क्षेत्रों के कृषक नील गायों से पीड़ित होने का रोना रोते थे अब इस समस्या का समाधान स्वतः हो जाएगा क्योंकि ए उनका न केवल मूल स्वभाव है बल्कि मूल अधिकार भी है कि वह मन चाहे खेत की लहलहती फसल को अपना ग्रास बनाकर उस दीन कृषक पर अपनी अनुकम्पा करें और जगत कल्याण, ईश्वरीय कृपा के खातिर वह किसान अब भी जिन्दा रहे और अपने खेत को नई फसल के लिए तैयार करे। इसी तरह फल बागानों को हनुमत कृपा से अनुग्रहीत वानर प्रजाति के समक्ष समर्पित कर दिया जाएगा। ...
हमारे नेताओं को ऐसे समाजवाद का निर्माण करना है जहाँ सारा साधन और सत्ता सिर्फ उसके परिवार में निहित रहे और इसके लिए नारों कि बहुत अहमियत जो गुलामों को निरंतर गुलाम बनाए रखती है
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