भीड़ तंत्र


जनता के भीड़ में बदलने और समाज के वैचारिक शून्यता को सहजता से समझा जा सकता है कि क्यों राजनीतिक दलों के लिए लोगों को जात धर्म के आधार पर आसानी से संगठित या फिर विखंडित किया जाने की अपार संभावना बनी रहती है और सत्ता में आने का एक सुलभ साधन उपलब्ध कराती रहती है। हम एक उदार और सर्व स्वीकार्य समाज नहीं चाहते हम सबसे आगे होना चाहते और कहीं न कहीं एक शोषक बनने की अभिलाषा भी दिखाई देती है। हम शोषक-शोषित की भयानक कहानियों का बदला आज लेना चाहते हैं जो कि संभव नहीं है। हमारा पलायनवादी रवैया कायम है, हम नए विचारों से डरते हैं और अपना पूरा सच नहीं देखना चाहते। इसलिए हम नए विचारों को जगह नहीं देते और भीड़ का हिस्सा बनकर खुश हो लेते हैं कि अब हम सुरक्षित हैं जबकि वास्तविकता कुछ और होती है और हम इस असुरक्षा बोध के चलते अपनी आजाद सोच को खो बैठते हैं और किसी संगठन के पीछे चल पड़ते हैं जो हमें किसी तरह की आजादी नहीं देता पर हम खुद को वहाँ आजाद समझते हैं। जबकि हम अपनी नहीं उस संगठन की ताकत बढ़ा रहे होते हैं। किसी हार-जीत को लेकर दुःखी या प्रसन्न होना स्वाभाविक है पर वास्तविकता न देखना समझना ... है। जबकि सभी संगठन एक जैसे हथकंडे अपनाते है बस किस बार कौन ज्यादा कारगर रहा इसी का अंतर होता है। अब उदारता भी कट्टरता का रूप धारण कर रही है वह भी किसी और की कुछ सुनना नहीं चाहते और कहते रहने को ही उदारता मान बैठे हैं।
हम रचनाशीलता से दूर होते जा रहे हैं, हम विरोध या समर्थन का कोई शानदार साहित्य नहीं रच पाए हैं कुछ सालों बाद हमारे इस आज को लोग कैसे देखेंगे? ऐसा हमने  अपने आस पास क्या गढ़ा है जिसके लिए हम याद किए जाएंगे। हम नफरत,तिरस्कार, हिंसा का सामान्यीकरण कर रहे हैं क्योंकि जिसके विरोध में सबको खड़ा होना चाहिए वह आज उसके पक्ष में स्वीकृति वाला मौन खतरनाक रूप धारण कर चुका है। अच्छा आप जिस भी संगठन से जुड़े हो जरा जानने की कोशिश करिए कि उनका कला, विज्ञान, साहित्य, खेल जैसे क्षेत्रों में क्या योगदान है या फिर जिस कथित समाज के संगठन होने का दावा करते हैं वास्तव में उसके शिक्षित, जागरूक होने के लिए क्या किया है? जिस दिन ए सवाल उठने लगेगा वह भी खुद से उसी दिन से हमारा इन गिरोहों से मोह भंग होने लगेगा। तब इरोम शर्मिला, सोनी सोरी, दयामनी बारला , मेधा पाटकर चुनाव नहीं हारेंगी।
        खलील जिब्रान की ए कहानी The Wire Hindi  की Facebook wall से है। उन्होंने लिखा है कि-
          "मैंने जंगल में रहने वाले एक फ़कीर से पूछा कि आप इस बीमार मानवता का इलाज क्यों नहीं करते. तो उस फ़कीर ने कहा कि तुम्हारी यह मनव सभ्यता उस बीमार की तरह है जो चादर ओढ़कर दर्द से कराहने का अभिनय तो करता है, पर जब कोई आकर इसका इलाज करने के लिए इसकी नब्ज देखता है तो यह चादर के नीचे से दूसरा हाथ निकाल कर अपना इलाज करने वाले की गर्दन मरोड़ कर अपने वैद्य को मार डालता है और फिर से चादर ओढ़ कर कराहने का अभिनय करने लगता है. धार्मिक, जातीय घृणा, रंगभेद और नस्लभेद से बीमार इस मानवता का इलाज करने की कोशिश करने वालों को पहले तो हम मार डालते हैं. उनके मरने के बाद हम उन्हें पूजने का नाटक करने लगते हैं।"
rajhansraju

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