आरक्षण राग


आरक्षण उस चीज का नाम है जो जातीय आधार पर लोगों को संगठित होने का अवसर देती है और ए संगठित समूह राजनीतिक दलों के लिए सबसे अच्छे वोट बैंक होते हैं क्यों कि इसके विरोधी और समर्थक दोनों घृणा की राजनीति में किसी खास दल की भक्ति कर रहे होते हैं। जबकि सरकारी नौकरियों की संख्या इतनी है ही नहीं कि किसी खास समुदाय का इससे विकास हो सके। आप किसी भी जाति से संबंध रखते हों परिश्रम का कोई विकल्प नहीं है। इसलिए अतीत से संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ टीना डाभी, शाह फैजल, अजीम प्रेमजी, शाहरुख, सचिन, लालू, मुलायम, माया, अमिताभ, दिलीपकुमार, .... या फिर नटवर लाल, छोटा राजन, दाऊद... केजरीवाल, अन्ना हजारे.. सब बनने की छूट है, मेहनत करिए और बन जाइए। आरक्षण बेमन से ही सही अब एक सर्व स्वीकार्य व्यवस्था बन चुकी है, पर समस्या यह है कि इस पर बात करने से पता नहीं क्यों लोग डरते हैं। इसका लाभ किस जाति को कितना हुआ, कौन सा समूह इतने वर्षों बाद भी समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं हो पाया। तो आरक्षण के अतिरिक्त दूसरे प्रयास भी करने होंगे और उपेक्षित, पीड़ित, शोषित की मानसिकता से मुक्त होने की जरूरत है। साथ ही संविधान और कानून पर भरोसा रखना होगा क्योंकि हमारे जो अधिकार है वह राजनीतिक दलों की खैरात नहीं है। ऐसे में दलों की मानसिक गुलामी से मुक्त होना भी जरूरी है कि हम चीजों का सही तार्किक विश्लेषण कर सकें न कि हम ऐसा इसलिए कहते हैं क्यों कि हम फला जाति के हैं और हम अपने लिए जिस हक की माँग करते है। अपने से दुर्बल को वैसे कोई हक नहीं देना चाहते।
rajhansraju

इसको पढ़ने के बाद हमारे एक मित्र को यह बातें, शायद किसी खास नजरिए के कारण उतनी सही नहीं  लगी। अब हर बात से सहमत होना जरूरी भी नहीं है, उनका मानना है कि आरक्षण समान प्रतिनिधित्व के लिए है, मतलब ... ? शायद जाति को सदा के लिए बनाए रखने की ही बात हैं और आर्थिक रूप से सम्पन्न हो चुके लोग, जो खुद को दलित चिंतक या नेता मानते हैं। वो दलित बने रहने के लिए ज्यादा परेशान हैं। तो इसका वजह, वही उनका ब्राह्मण वाद है, जिसमें ए भी अपने से कमजोर लोगों को हक नहीं देना चाहते।
                    इसीलिए हमें राजनीतिक तौर पर यही बोध कराया जाता है। जिससे दलित हमेशा दलित बना रहे और जो उसका हक है। वह उसे दान जैसी चीज मानता रहे, फलाने मंदिर में आने दे, फलाने छूने दे.. जबकि समस्या के मूल में स्वाभिमान और सम्मान है।जिसे खुद हासिल करना होगा और अब हमें वर्तमान की आदत डालनी होगी। अतीत की व्याखाओं से मुक्त होना होगा, हम चाहे जिस जाति समुदाय से संबंध रखते हों हम अतीत में नहीं लौट सकते। हमें किसी का मोहताज नहीं होना है और "भारत" हमें यह ताकत देता है कि हम जितना चाहें आगे बढ़ सकते है।
          हाँ ए भी सच है कि ढेर सारी समस्याएँ हैं, फिर भी हम आगे बढ़ रहे हैं। सत्तर साल की उम्र किसी व्यक्ति के लिए काफी ज्यादा हो सकती हैं, पर किसी देश के लिए बहुत ही कम है। अभी भी हम एक देश बनने की प्रक्रिया में ही हैं। इसके लिए संविधान और कानून में  विश्वास बनाए रखना होगा। चंद राजनीतिक परिवर्तनों से लोगों को परेशान होने की आवश्यकता नहीं है। भारत के लोकतंत्र की यही ताकत है कि BSP अकेलेदम बहुमत पा सकती है तो BJP रिकॉर्ड तोड़ सकती है।
       मित्र पुनः पढ़ें आरक्षण का कोई विरोध नहीं है। बस उसको सही और न्याय संगत बनाने की बात हो रही है। रही छुआ छूत और जातीय श्रेष्ठता के बोध की बात तो- खेत, किसान और गाँव तीनों का अस्तित्व संकट में है, शहर सबको निगल रहा है और अब मजदूर, मालिक के संबंध की शुरुआत हो चुकी है और  मजदूर  मिलना आसान नहीं है, fooding, lodging सारा काम Labour के हाथ में है और Labour की जाति.... ???? वही गरीब, लाचार, दलित ..
rajhansraju

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