जातीय अस्मिता से, राजनीतिक अस्मिता हासिल करने की कोशिश

राजस्थान, हरियाणा .. महाराष्ट्र.. इसके बाद देखते हैं किसका नंबर आता है। सिर्फ़ facebook, what's app पर भरोसा मत करिए, थोड़े दूसरे स्रोतों को भी देख लीजिए, इतिहास, भूगोल की समझ नहीं है तो कोई बात नहीं, बस! भाई लोग थोड़ा सा Google कर लीजिए। फिलहाल latest issue पर आते हैं और अब जरा regiment के नामों पर गौर करिए जैसे राजपूत, सिख, मराठा, गोरखा,... महार, ए regiment अब भी हैं और आपको पता है ए सारी regiment देश के अलग-अलग जगहों पर भारतियों के खिलाफ लड़ी और जीती हैं, इनकी अपनी परम्पराएँ रही हैं और हमारी Indian Army अब भी उसे अपने तरीके से निभाती है, ऐसे में हर regiment के लिए अगर एक जातीय, धार्मिक संगठन ठेकेदार बन जाए तो ...  ।
हाँ! एक बात और अपनी जाति से चीजों को जोड़कर भावुक मत होइए क्योंकि तब आप सिर्फ भक्त रह जाएंगे। वैसे British Period में सेना की संरचना जातीय, धार्मिक अस्मिता के आधार पर ही किया गया था। जिससे किसी एक जातीय, धार्मिक समूह को दूसरे समूह से कुचला जा सके और ए सैनिक पूरी तरह से वैतनिक और अंग्रेज सरकार के प्रति वफादार होते थे और उस समय के यूरोपीय गोला, बारूद से लैस सबसे आधुनिक फौजी हुआ करते थे। इसी कारण अंग्रेजी सेना अंततः सारे युद्धों में विजयी रही और जातीय, धार्मिक विद्वेष का उन्होंने भरपूर लाभ उठाया। अब भी हमारे यहाँ राजनीति में स्थापित होने के लिए, यह एक आसान तरीका है। तो भाई वास्तविक चीजें कुछ और है और उसकी जो राजनीति हो रही है वह कुछ और है। असली मकसद .. सत्ता.. power.. पैसा .. उनके नाम पर मत जाइए .. वह आपको अपनी ही जाति .. का लगेगा.. जबकि आप सिर्फ भीड़ हो.. कभी पत्थर फेंकिए .. कभी तोड़-फोड़ करिए .. फिर मातम भी मनाइए .. फिक्र की कोई बात नहीं है आपका नेता आपके साथ है .. इस बार भी वह सरकार में है। सभी घटनाओं को थोड़ी सी बारीकी से समझिए, वास्तव में खेल कहाँ हो रहा है और खिलाड़ी कौन है?
Rajhans Raju

अच्छा होगा ए भी पढ़ लीजिए-
अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
Updated 18:06 गुरूवार, 4 जनवरी 2018
Do not bring the army to the caste politics
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव के पत्थर हैं- स्वतंत्र और सक्षम विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका। व्यवस्था के इन तीनों अंगों से जिस समर्पित कार्यकुशलता की आशा की गई थी, वे उसमे खरी नहीं उतर पाई हैं। देश की सैन्य व्यवस्था अकेली संस्था है, जिसमें नागरिकों का अडिग विश्वास अब तक बना हुआ है। दुर्भाग्य कि राजनीतिक उथल-पुथल में अपने संकीर्ण स्वास्थ्य की सिद्धि के लिए राजनीतिक दल हमारे लोकतंत्र की प्रहरी सैन्य सेवाओं को भी अपने खेल का मोहरा बनाने से बाज नहीं आ रहे हैं। सेना की एक पुरानी और प्रतिष्ठित पलटन के नाम से जोड़कर तथाकथित दलित और सवर्णों के बीच की खाई खोदना भी चुनावी शतरंज की चाल भर है। इस चाल को समझने के लिए महाराष्ट्र चलें, जहां शतरंज बिछाई गई है। पुणे जिले में भीमा नदी के किनारे कोरेगांव में वर्ष 1818 में ब्रिटिश सेना ने जिन केवल पांच सौ सैनिकों का सहारा लेकर पेशवा बाजीराव द्वितीय की भारी सेना को हराया था, उसमें से साढ़े चार सौ सैनिक महार थे। आज महार महाराष्ट्र में अनुसूचित जातियों का सबसे बड़ा वर्ग है, जो राज्य की जनसंख्या का लगभग दस प्रतिशत है। महार दलित थे या अस्पृश्य, इसका उल्लेख मनुस्मृति या अन्य स्मृतियों और पुराणों में नहीं है। असल में वे गांव से बाहर रहकर गांव की सुरक्षा करने वाले समुदाय के थे। छत्रपति शिवाजी और शंभाजी के शासन में उन्हें पहाड़ी दुर्गों की रक्षा और पुलिस, गुप्तचर और राजस्व विभाग की सहायता का कार्य सौंपा जाता था। सवर्णों की उपेक्षा, भूमिहीनता, गरीबी और सैन्य जीवन में रुचि महारों को ब्रिटिश सेना में खींच लाई। प्रथम विश्वयुद्ध में महार रेजिमेंट की नंबर 111 बटालियन बनी। वर्ष 1941 में फिर महार रेजिमेंट की नंबर 1 बटालियन बनाई गई। स्वतंत्रता प्राप्ति तक महार रेजिमेंट का प्रतीक चिह्न वह स्तंभ था, जो 1818 में पेशवा पर उनकी विजय स्मृति में कोरेगांव में बनाया गया था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद महार रेजिमेंट का गठन मशीनगन रेजिमेंट के रूप में हुआ और अब रेजिमेंट की ग्यारहवीं और बारहवीं बटालियन में महार सैनिकों के अलावा बंगाली, ओडिया, गुजराती आदि गैर लड़ाकू समुदायों के सैनिक भी हैं। वर्ष 1818 में महार सैनिकों की पेशवा बाजीराव पर विजय को दलितों की सवर्णों पर विजय के रूप में देखना मूलतः भ्रांतिमूलक है। असल में ब्रिटिश सेना की अच्छी ट्रेनिंग, अनुशासन, अच्छे अस्त्र-शस्त्र और नेतृत्व की विजय थी यह पेशवा के चरमराते शासनतंत्र पर। महार सैनिकों के मन में जाति-संघर्ष की भावना नहीं थी। वे तो सांकेतिक रूप में समाज के हाशिये पर रहने वाले भूमिहीन निर्धन बेरोजगार थे, जिन्होंने आय के स्रोत के रूप में ब्रिटिश सेना की नौकरी की थी। वे अपने मालिकों के किसी भी हुक्म की तामील करते थे। अतः कोरेगांव के युद्ध को दलितों की सवर्णों के ऊपर विजय मानने का कोई औचित्य नहीं है। पर कोरेगांव में बीते एक जनवरी को दलितों और सवर्णों के संघर्ष को पर्व मानकर समुदायों के संघर्ष की मशाल जलाने के लिए जो लोग इकठ्ठा हुए, उनमें से कुछ के घोषित नारों में ‘भारत की बर्बादी’ का आह्वान था, तो कुछ हाल के चुनावों में दलगत राजनीति को जातिगत राजनीति बनाने में जुटे थे। देश को अब सतर्क रहने की आवश्यकता है कि महार रेजिमेंट के कीर्ति स्तंभ को बांटने वाली राजनीति में घसीटकर ये लोग कहीं सशस्त्र सेना में भी समुदायवादी घृणा और अविश्वास की वह चिंगारी न बो दें, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को बर्बाद करने के लिए प्रतिबद्ध लगती है।
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Comments

  1. ब्द और भाषा से ही,
    परिभाषा रचता रहा ।
    अगर कभी बाहर से,
    मौन हुआ भी तो,
    अन्दर सब चलता रहा ।

    ReplyDelete

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