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right to coffin

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                        कफ़न का अधिकार  किसी मृतक को अंतिम विदाई देने का हर मज़हब ने एक तरीका बनाया है। उसका मकसद मृतक को अंततः सम्मान से रुखसत करना है। चाहे वह सैनिक हो या फिर आम आदमी, उस देह को किसी झण्डे से ढका जाय या उस पर फूलों की पर्त बिछा दी जाय, नहीं तो किसी मामूली कपड़े का ही कफ़न हो। उस देह को हम अपने-अपने तरीके से विदा करते हैं। चलो आज उसका सफ़र ख़त्म हुआ और हम उस देह को विदा करने चल पड़ते हैं। चाहे वह श्मशान की आग हो या कब्रिस्तान की मिट्टी। इन जगहों पर किसी एक व्यक्ति का अधिकार नहीं होता। शायद इस वज़ह से भी आमतौर पर सभी को आग और मिट्टी मिल ही जाती है। वैसे जब हम किसी मृत देह को लेकर कुछ दूर चलते हैं तो वास्तव में यह यात्रा हम अपने देह की सीमा का स्मरण करने के लिए करते हैं। देह के फ़ना (ख़त्म) होने का तरीका सभी तरह के भेद ख़त्म कर देता है। अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा सबके देह की एक ही हालत होती है। खुशनसीब हुए तो यह मिट्टी या आग नसीब होती है। कोई राख बन के मिट्टी में मिल जाता है तो कुछ लोग थोड़ा सा ज्यादा वक़्त लेते हैं इस मिट्टी की आगोशी में  पहुँचने के लिए।