happy hindi day

हिन्दी दिवस 


अगर हिंदी दिवस की समस्त शुभकामनाएँ, संदेश या फिर निमंत्रण पत्र, बधाई पत्र आदि अंग्रेजी में हो तो सोचिए कैसा लगेगा? निश्चय  ही अटपटा लगेगा, पर ऐसा अगर कम हिंदी जानने वाले या फिर विदेश में बसे लोग करें तो बिलकुल भी बुरा नही लगेगा। बल्कि उनकी टूटी-फूटी हिंदी भी हमें मोहक लगने लग जाती है। अब इंटरनेट और मोबाइल के आ जाने से सभी bhashon ki Romanised lipi hi jyada se jyada istemal ki jaane lagi hai. ऐसे में भाषा की लिपि को लेकर पूरा मामला अब व्यक्तिगत ही होता जा रहा है कि भाई मै किस में कम्फर्टेबल हूँ । 
अपने यहाँ १४ सितम्बर हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है और जब भी हम किसी दिन को किसी भी वज़ह से खास बनाना चाहते हैं तो उस दिन को अपने किसी खास स्मृति या फिर किसी भविष्यगामी लक्ष्य की    प्राप्ति का वादा या प्रतिज्ञा, हम स्वयं को याद दिलाने के लिए करते हैं कि हमें क्या हासिल करना है? क्या और कैसे बनना है? यह सारा उपक्रम रचते समय यह भी ध्यान रखना है कि इसमे किसी प्रकार की बाध्यता या  जोरजबरदस्ती  नहीं  होनी चाहिए, चाहे यह हमारे पहचान के बोध से जुड़ा हुआ हो या फिर किसी आसन्न संकट से क्योंकि किसी भी बात को जताने और मानने का यही एक तरीका हो, यह जरूरी नहीं है। जब हम किसी दिन को एक पहचान देते हैं तो आमतौर पर हम उस दिन को एक उत्सव के रूप में बदल देते है या फिर कालांतर में वह स्वयं एक मान्य धार्मिक त्यौहार के रूप में परणित  हो जाता है। तमाम धार्मिक त्यौहारों को देखकर यह आसानी से समझा जा सकता है। एक दूसरे से जुड़ने और उत्सव के माध्यम से अपनी बातो को सब लोगो तक पहुँचाने का यह सहज़ तरीका होता है और व्यक्तियों की अन्तःअनुभूति से जुड़े होने के कारण धार्मिक त्यौहारों का आयोजन बिना किसी सरकारी सहायता के भी लोकपरम्पराऒ के कारण आज भी कहीं अधिक भव्य, उत्सवयुक्त और जनभागीदारी से पूर्ण होते हैं। जबकि सरकारी आयोज़नो में महज़ खाना पूर्ति होती है।  
          हिंदी दिवस भी महज़ एक सरकारी आयोजन बनकर रह गया है। जो सिर्फ सरकारी कार्यालयों या फिर सरकारी खर्चे पर होने वाले आयोजनो में दिखाई देता है, जहाँ हिंदी का उत्सव मनाने के बजाय उसकी दुर्दशा पर ही चर्चा होती है कि किस बात पर शर्म या गर्व किया जाय। फिर यह भी बताने दिखाने कि कोशिश की जाती है कि हिंदी  सबसे सशक्त और पभावशाली भाषा है। जिसको बोलने समझने वालो की संख्या सर्वाधिक है। जैसे अब पूरी दुनिया में हिंदी राज़ कायम होने वाला ही है और ऐसी बड़ी-बड़ी आडम्बर भरी बातें सुनते ही, दूसरी भाषाओं के कथित पैरोकार हिंदी से उत्पन्न हो रहे खतरे का व्याख्यान शुरू कर देते है और उत्तर-दक्षिण का बंटवारा या फिर संस्कृत-उर्दू, धर्म-जाति का न जाने कौन-कौन सा विमर्श शुरू हो जाता है। हर व्यक्ति खतरे का ज़िक्र करता नज़र आने लग जाता है जैसे उसी को भाषा, सभ्यता, संस्कृति को बचाने  जिम्मेदारी दी गयी है।
 हिंदी कैसी हो यह बड़ा पुराना मुद्दा है। तमाम भाषाई जानकार अपनी पृष्ठ भूमि के अनुसार एक फार्मूला लेकर सदैव तैयार रहते हैं की इसे इसी खाँचे में फिट होना होगा। जबकि भाषाओं को गढ़ने और प्रासंगिक बनाने का काम आमजन करते हैं और वे ही दुनिया की किसी भी भाषा के शब्द को अपने अनुकूल ढाल लेते हैं, विद्वान लोग किसी शब्द के खास उच्चारण पर ज़ोर देते हैं वहीं आम लोग उसे इतनी सहज़ता से अपना लेते है कि यह जानना मुश्किल हो जाता  है की कौन सा शब्द किसका है और कालन्तर में तो यह शोध का विषय बन जाता है। वैसे हमारी हिंदी तमाम भाषाओ से बनी खिचड़ी है। इसकी तमाम उपभाषाओं का जिक्र किया जाता है, जो गुजरात,राजस्थान से बिहार तक फैली हुई है जिसमे अवधी,भोज़पुरी,मैथिली,ब्रज,बघेली,कौरवी,मारवाड़ी,सिंधी,…आदि आती हैं साथ ही उर्दू भी। यहाँ हम इन्हें हिंदी की उपभाषा सम्बोधित करके, एक भूल कर जाते हैं क्योकि ए उप नहीं हिंदी की मूल भाषाएँ हैं  जिनसे आज की हिंदी का जन्म हुआ है और ए निरंतर अपना अस्तित्व खो रही हैं। हिंदी का आधार इन्ही भाषाओ को बोलने वालों ने रखा।  इनके बीच सम्बन्ध बनने शुरू हुए तो एक अव्यवस्थित प्रक्रिया चल पड़ी, जहाँ भाषाएँ एक दूसरे में घुलने मिलने लगी और पता ही नहीं चला कि हिंदी की खिचड़ी कब तैयार हो गयी। भाषाओ का विकास विद्वान लोग नहीं करते और  अगर ए लोग करते हैं तो उसका संस्कृत जैसा हस्र होता है जो सर्व गुण संपन्न होते हुए भी महज़ हज़ार दो हज़ार लोगो तक सिमट कर रह जाती है। इस पर हम चाहे जितना गर्व करे? सच्चाई यही है। 
हिंदी आज भी अपना स्वाभाविक विकास कर रही है यह लेखन भी गूगल पर अंग्रेजी में टाइप करके देवनागरी में लिखा जा रहा है तो यह हिंदी का सशक्त होना ही है। तकनीक के साथ  भाषा का तारतम्य ज़रूरी है कि वह सहजता से आधुनिक साधनों में फिट हो जाए और नई पीढ़ी ने भाषा की लिपि और अभिव्यक्ति के परम्परागत तरीको को तोड़ दिया है, सिर्फ किसी तरह कह लेने को ही सम्पूर्ण भाषा  माना जाने लगा है, यह बुद्धि के लिए एक विमर्श अवश्य है, लेकिन क्या हम अपने को वास्तव में ज्ञानवान बना रहे हैं? खैर इसमे संदेह नही कि हिंदी का विस्तार हो रहा है और आम लोग अपनी ज़रुरत के हिसाब से हिंदी को न केवल गढ़ रहे बल्कि समृद्ध कर रहे है। हिंदी भाषियों की बड़ी आबादी में श्रमिक हैं जो पूरे देश और दुनिया में फैले हैं, जो हिंदी का एक बड़ा बाजार बनाते हैं, जहाँ सब कुछ हिंदी में ही बिकता है। अब चाहे जो कह ले सच्चाई यही है की बाजार के आगे सब नतमस्तक। टीवी,फिल्म,अखबार,(मीडिया), आधुनिक माध्यम (इंटेरनेट) सबको यह बाज़ार चाहिए और हिंदी ने बाज़ार में अपनी जगह बना ली है । 
भाषाओ की प्रासंगिकता और उनके विकसित होने का मूल कारण आज भी व्यापार और रोज़गार ही है। जिस भाषा को जानने समझने से हमें भविष्य की सुरक्षा मिलेगी उसी को जानने समझने पर ज़ोर दिया जाता है। इसी वज़ह से आज पूरी दुनिया में अंग्रेजी का चलन बढ़ रहा है। आज ज्ञान-विज्ञान की भाषा अंग्रेजी बन चुकी है और यदि हिंदी में हुए किसी शोध या ज्ञान विमर्श को पूरी दुनिया तक पहुँचाना चाहते हैं तो उसका अंग्रेजी में अनुवाद होना अनिवार्य है। फिर वही बाज़ार कि ताकत जिसमे अंग्रेजी, हिंदी से मीलों आगे है। यह स्थिति हिंदी से भारतीय भाषाओ कि तुलना जैसा ही है। वैसे इतने के बावजूद भी बहुत निराश होने की आवश्यकता नहीं है यदि हम अपनी भाषा को आम लोगो के बीच पलने बढ़ने दे तो उसमे बढने और ढलने की ज्यादा ताकत आएगी और वह अपनी पहचान को कायम रख पाएगी जैसा की अब तक होता आया है, इसे किसी फ्रेम में बांधने की आवश्यकता नहीं है। विद्वानों का काम इसे और आसान और सरल बनाना होना चाहिए। जैसा कि "आज़ " के सम्पादक विष्णुभाई पराड़कर ने किया था। यहाँ अति उपदेश या फिर किसी से संघर्ष की आवश्यकता नही है, यदि उसमे सामर्थ्य होगी तो कोई उसे नष्ट नहीं कर पाएगा, वह हर बार उठेगा और यदि वह दीन या दुर्बल होगा तो लाख जतन  के बावजूद भी उसे बचाया नहीं जा सकेगा। 
इसलिए हमें अपनी भाषा,सभ्यता और संस्कृति को सदैव चलायमान बनाए रखना होगा क्योंकि कोई भी ठहराव उसे कमज़ोर ही बनाती है। इन्हे बचाने का व्यर्थ का स्वांग रचने से कुछ नहीं होने वाला, आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने बुद्धि,ज्ञान और कौशल पर भरोसा रखें और और अपनी उदारता और सहृदयता को ताकत मानें न की कमज़ोरी, हम पूर्ण और सहज हों, हमारी भाषा और संस्कृति में भी इतना प्रवाह हो कि वह निरंतर पूर्णता की ओर अग्रसर रहे, जो अपने में सब समाहित कर ले और इतना विशाल बन जाए कि पूरा विश्व स्वयं को उसमें देख सके और "वसुधैव कुटुंम्बकम" सिर्फ एक वाक्य बन कर न रह जाय, बल्कि सच्चाई बन जाए।  
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