अम्बेडकरवादी दलित: भारत के नए ब्राह्मण
इतना पढ़ लेना भी बहुत बडी़ बात होगी, तो आपके धैर्य का परीक्षण शुरू होता है
कृपा करके ए भी जान लें तो अच्छा रहेगा कि इस समय जो चीजें चल रही है वह दलित अधिकारों के लिए नहीं, बल्कि खुद की पार्टी का अस्तित्व बचाने के लिए है और लोगों को वंचित रखकर मुख्य धारा से जुड़ने से रोकना है, क्योंकि राजनीति में बने रहने की अब ए शर्त हो गई है। सोचिए इतना समय बीतने के बाद भी कश्मीर, अल्पसंख्यक या दलितों की हालत क्यों नहीं सुधरी तो इसका सीधा सा जवाब है। जब तक किसी को भी खास तरह की सुरक्षा मिलती रहती है, वह अपने सुरक्षा घेरे से बाहर नहीं निकलता और दूसरे लोगों के साथ खुद को समायोजित करने के लिए किसी प्रकार का प्रयास नहीं करता, वही कहावत है कि "अधिक देख भाल बिल्ली की जान ले लेती है" (care kills cat) सवर्ण और दलित दोनों एक तरह की मानसिकता है। जिस तरह किसी में सवर्ण होने का दम्भ सही नहीं है उसी तरह खुद को दलित मानना भी खुद का अपमान करना है। खासतौर पर तब, जब वह व्यक्ति अच्छी खासी सामाजिक आर्थिक स्थिति हासिल कर चुका हो और सड़क पर संघर्ष करने वाला कोई भी व्यक्ति दलित नहीं हो सकता, क्योंकि वह अब भी उतना ही बेचारा है और दुनिया का कोई भी कानून उसकी रक्षा नहीं कर सकता क्योंकि उस कानून तक वह नहीं पहुँच सकता। अब यह शोषण चाहे उसकी जाति के सम्पन्न लोग करें या फिर दूसरी जाति के लोग, कोई फर्क नहीं पड़ता।
अब दूसरे लोगों को देखिए, उनका पहनावा, आत्मविश्वास, भाषा, शिक्षा किसी भी वास्तविक ऐंगल से क्या वो वंचित और दलित लगते हैं। तो जवाब होगा नहीं, वो सबकी तरह ही अराजक और हिंसक है तो फिर अब एक ही ऐंगल बचता है वह है राजनीति का और यही सच है कि ए किसी खास पार्टी के समर्थक या कार्यकर्ता हैं। जो किसी अन्य दल में शामिल अपनी जाति के व्यक्ति को दलित भी नहीं मानते। जो इनकी पार्टी और झंडे के साथ है वही दलित हैं। बाकी सब संख्या बल का कमाल है, जो जितनी ज्यादा भीड़ इकट्ठी कर ले, उसकी आवाज उतनी ही गूँजती है। वैसे भी चुनाव की तैयारी जोर शोर से जारी है। चलिए इसी कानून के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण सूचना से अवगत कराते हलाँकि काफी पुरानी है-
सुश्री मायावती के बारे में उनके विरोधी भले ही ढ़िढोरा खूब पीटे, मगर कई तथ्यों को अनदेखी करना भी भूल होगी। अनुसूचित जाति एवं जनजाति प्रताड़ना अधिनियम की कई धाराओं में उन्होंने त्रुटियाँ पाकर 20 मई, 2007 को राज्य के तत्कालीन मुख्य सचिव शंभुनाथ को निर्देश दिया था कि एक राज्यादेश निर्गत कर सभी जिलों के आरक्षी, अधीक्षक को सूचित करें कि जंघन्य मामले को छोड़कर अन्य सामान्य घटनाओं के एफआईआर दर्ज तभी किये जायें जब गहन छानबीन में प्रताड़ना की पुष्टि हो।
6 महीने बाद जब ऐसे फर्जी एफआईआर दर्ज कराने की वृत्ति में कमी नहीं हुई तो पुनः 29 अक्तूबर, 2007 को तत्कालीन मुख्य सचिव प्रशांत कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में सुश्री मायावती ने निर्देश दिया कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति प्रताड़ना अधिनियम में धारा 182 का दुरुपयोग किया जा रहा है और आरक्षी अधीक्षक के अधीन थाना प्रभारी भयादोहन कर रहे हैं।
अब अपने राजनीतिक पक्ष और अक्ल से निर्णय कर लीजिए और फिर कोई झंडा़ उठा लीजिए और नारे लगाइए। एकबात और पता है OBC आरक्षण लागू होने के बाद सवर्ण जातियों में सम्पन्नता बढ़ी है। विश्वास नहीं हो रहा है न.. तो गौर करिए..। आरक्षण के शुरुआत में निश्चित रूप से लोगों को परेशानी हुई। पर! कैसे भी करके अब यह एक स्वीकार्य व्यवस्था बन चुकी है। जब सरकारी सेवा में आने की सम्भावना कम या समाप्त हो गई तब इन लोगों ने दूसरे विकल्पों पर परिश्रम करना शुरू किया और निजी उद्यमों में लग गए .. परिणाम ... यही से इनके बच्चे Europe, America, middle East ... की तरफ migration शुरू हुआ और अब देखिए कि इन देशों में इन लोगों ने डॉक्टर, इन्जीनियर, वैज्ञानिक, ... बनके वहाँ निर्णायक स्थिति हासिल कर ली है। ए सब सरकारी क्षेत्र से उम्मीद खत्म होने के कारण ही हुआ कि इस वर्ग का top brain बाहर निकला और .. आप चाहें तो अपने आस-पास का तुलनात्मक विश्लेषण कर लें।
जबकि दलितों की वास्तविक समस्या शिक्षा ओर रोजगार है, जिसकी माँग कोई नहीं कर रहा है, बस इससे खतरा है, तो उससे खतरा है, फिर अतीत की कहानियों को लेकर चिपके रहो, अजीब विरोधाभास है। एक तरफ कहते है कि सब कुछ काल्पनिक है तो फिर उसी में से कुछ की आलोचना कैसी? वो तो सिर्फ़ कल्पना है, फिर क्या फर्क पड़ता है? जब उसे मानने की कोई बाध्यता नही हैं और जो लोग मानते हैं वो इतने अक्लमंद भी नहीं तो समस्या किस बात की है? कोई भी विमर्ष यहाँ दलित अधिकारों को लेकर नहीं है, बल्कि खुद को अम्बेडकरवादी मानने वालों की अपनी राजनीति है। जो ब्राह्मणों से भी ज्यादा ब्राह्मण वादी हैं, क्योंकि वो जिस तरह से अन्य लोगों के प्रति घृणा का प्रदर्शन करते हैं। वह दूसरे लोगों में उनके प्रति हर तरह की सहानुभूति को खत्म कर देता है और दूसरा पक्ष भी उतना ही आक्रामक हो जाता है। जबकि हमारे यहाँ हर जातीय समूह अपने से छोटी जाति की खोज कर, खुद को उनके लिए ब्राह्मण घोषित कर लेता है और थोड़ी सी सम्पन्नता आते ही अब मै ही ब्राह्मण हूँ.. का उद् घोष शुरू हो जाता है। तब लगने लगने लग जाता है कि मेरे शोषक बनने की इच्छा,.. बस पूरी होने वाली है।
6 महीने बाद जब ऐसे फर्जी एफआईआर दर्ज कराने की वृत्ति में कमी नहीं हुई तो पुनः 29 अक्तूबर, 2007 को तत्कालीन मुख्य सचिव प्रशांत कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में सुश्री मायावती ने निर्देश दिया कि अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति प्रताड़ना अधिनियम में धारा 182 का दुरुपयोग किया जा रहा है और आरक्षी अधीक्षक के अधीन थाना प्रभारी भयादोहन कर रहे हैं।
अब अपने राजनीतिक पक्ष और अक्ल से निर्णय कर लीजिए और फिर कोई झंडा़ उठा लीजिए और नारे लगाइए। एकबात और पता है OBC आरक्षण लागू होने के बाद सवर्ण जातियों में सम्पन्नता बढ़ी है। विश्वास नहीं हो रहा है न.. तो गौर करिए..। आरक्षण के शुरुआत में निश्चित रूप से लोगों को परेशानी हुई। पर! कैसे भी करके अब यह एक स्वीकार्य व्यवस्था बन चुकी है। जब सरकारी सेवा में आने की सम्भावना कम या समाप्त हो गई तब इन लोगों ने दूसरे विकल्पों पर परिश्रम करना शुरू किया और निजी उद्यमों में लग गए .. परिणाम ... यही से इनके बच्चे Europe, America, middle East ... की तरफ migration शुरू हुआ और अब देखिए कि इन देशों में इन लोगों ने डॉक्टर, इन्जीनियर, वैज्ञानिक, ... बनके वहाँ निर्णायक स्थिति हासिल कर ली है। ए सब सरकारी क्षेत्र से उम्मीद खत्म होने के कारण ही हुआ कि इस वर्ग का top brain बाहर निकला और .. आप चाहें तो अपने आस-पास का तुलनात्मक विश्लेषण कर लें।
जबकि दलितों की वास्तविक समस्या शिक्षा ओर रोजगार है, जिसकी माँग कोई नहीं कर रहा है, बस इससे खतरा है, तो उससे खतरा है, फिर अतीत की कहानियों को लेकर चिपके रहो, अजीब विरोधाभास है। एक तरफ कहते है कि सब कुछ काल्पनिक है तो फिर उसी में से कुछ की आलोचना कैसी? वो तो सिर्फ़ कल्पना है, फिर क्या फर्क पड़ता है? जब उसे मानने की कोई बाध्यता नही हैं और जो लोग मानते हैं वो इतने अक्लमंद भी नहीं तो समस्या किस बात की है? कोई भी विमर्ष यहाँ दलित अधिकारों को लेकर नहीं है, बल्कि खुद को अम्बेडकरवादी मानने वालों की अपनी राजनीति है। जो ब्राह्मणों से भी ज्यादा ब्राह्मण वादी हैं, क्योंकि वो जिस तरह से अन्य लोगों के प्रति घृणा का प्रदर्शन करते हैं। वह दूसरे लोगों में उनके प्रति हर तरह की सहानुभूति को खत्म कर देता है और दूसरा पक्ष भी उतना ही आक्रामक हो जाता है। जबकि हमारे यहाँ हर जातीय समूह अपने से छोटी जाति की खोज कर, खुद को उनके लिए ब्राह्मण घोषित कर लेता है और थोड़ी सी सम्पन्नता आते ही अब मै ही ब्राह्मण हूँ.. का उद् घोष शुरू हो जाता है। तब लगने लगने लग जाता है कि मेरे शोषक बनने की इच्छा,.. बस पूरी होने वाली है।
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एक नया दबाव समूह है बस कुछ seats का खेल है
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