crowd is faceless

आप जरा गौर से देखिए ए कौन लोग हैं, इनकी क्या पहचान है? क्या ए वो पुतले नहीं हैं जिनकी डोर किसी और के हाथ में है? अगर ए सच में जिंदा होते तो जरुर सोचते और सही गलत का कुछ तो फर्क कर पाते, खैर कठपुतलियों से क्या उम्मीद? वो सिर्फ मनोरंजन के लिए ठीक होती हैं, उन्हें किसी भी रंग में रंग दिया जाय, कोई भी चरित्र दे दिया जाय क्या फर्क पड़ता है? बस एक अच्छा रंगकर्मी चाहिए, जो उसकी डोर खींचे रखे। अब इसी संदर्भ से अराजकता को समझते हैं, इसमें मेरी वाली, तेरी वाली से अच्छी है का मजेदार बोध भी है।
            हमारे यहाँ खुद को बड़ा गुंडा साबित करने की होड़ मची है, आप किसी भी विरोध-समर्थन करने वाले संगठन और आंदोलन को देखिए तो उनमें कौन लोग होते हैं, उनकी उम्र कितनी होती है, फिर अंदाजा लगाइए किसी भी चीज को लेकर इनकी कितनी समझ है। किसी भी फोटो, वीडियो में देखिए तो उन्हें तोड़-फोड़, पत्थर बाजी करने में जो मजा आ रहा है और उन्हें किसी पर हमला करने में कोई दिक्कत नहीं है, उसके सामने चाहे कोई भी हो। ए बेमकसद खुद से नाराज लोगों की भीड़ है, जो यकीनन तोड़ फोड, लूट सिर्फ़ मजे के लिए करते हैं, इनका नाम कुछ भी हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, ए अराजक, हिंसक और खतरनाक हैं। इनका शिकार कब, कौन बन जाएगा? इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। आप तभी तक खुश रह सकते हैं, जब तक यह भीड़ आपको अपनी लगती है, जबकि दूसरी भीड़ भी उतने ही दुराग्रह और कुंठाओं के साथ खडी है क्योंकि हर भीड़ का मनोविज्ञान तो एक जैसा ही है। तो? ऐसे में इसे क्या किसी चेहरे से बाँधा जा सकता है? और तब जब वही चेहरा पैसे लेकर किसी भीड़ भी का हिस्सा बनने लग जाय।
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