Harishankar Parsai

          हरिशंकर परसाई के व्यंग्य 


कृपया इसे #CAA #NRC के समर्थन या विरोध में न समझें बाकी अगर समझते भी हैं तो कोई दिक्कत नहीं है, बस ए check कर लीजिए कि आप.. कहीं बिमार तो नहीं हैं। वैसे हमारे यहाँ कुछ इस type की बिमारियां बड़ी ही संक्रामक हैं, जैसे "जातिया" , "धर्मिया" या फिर "मेरी पार्टिया" बाकी जो छूट गई हो add कर लीजिए।
#rajhansraju

               "सड़े आलू का विद्रोह" 

यह रचना "हरिशंकर परसाई" जी की पुस्तक "दो नाक वाले लोग" से है। - 
     तो आइये "सड़े आलू का विद्रोह" के चटखारे लेते हैं-
       इधर खरीद-फरोख्त की बात बुद्धिजीवियों में बहुत सुन रहा हूँ। यह शिकायत उस चूहे की तरह है, जो रोटी को देखकर चूहे दानी में फंस गया है। 
    यह शिकायत उस चूहे की भी है जिसे अभी तक चूहे दानी नहीं मिली है। वह तलाश में है। 
          मैं बुद्धिजीवी नहीं हूँ, क्योंकि बुद्धि ही नहीं है, बैगनजीवी बुद्धिवादी है क्योंकि वह अच्छा बैंगन पैदा करते हैं। मुझे बैंगन का भरता बहुत पसंद है, कोई और भरता बैंगन से ज्यादा स्वादिष्ट हो तो मैं उसे भी स्वाद से खा सकता हूँ, बुद्धिवादी का भरता मैंने आज तक नहीं चखा है क्योंकि वह बहुत महंगा मिलता है और कुछ खास लोगों के लिए ही बनाया जाता है। 
     मैं सब्जी पसंद आदमी हूँ, सब्जी बाजार घूम आता हूँ। अभी मैंने शाम को देखा कि एक कुंजड़े की टोकरे में सड़े आलू रखे थे। मैं ध्यान से देखने लगा। 
        मेरे कुछ चित्रकार मित्रों ने मुझे सिखाया है कि प्रकृति में आकार खोजे जा सकते हैं। बादलों में घोड़ों और हाथियों के आकार, उन्होंने मुझे दिखाए। वृक्षों की टहनियों में आकर दिखाए। 
      मैं आकार देखने में बड़ी दिलचस्पी लेता हूँ। 
    मैंने देखा एक कुंजड़े के टोकरे में बहुत से सड़े आलू रखे हैं। 
  आदत के मुताबिक मैंने उनमें आकार देखना शुरू किया। 
  देखा - इन सड़े आलुओं में बहुत बुद्धिजीवी के आकार हैं। 
  मैंने पूछा - यारों तुम शाम तक टोकरे में पड़े हो। बात क्या है? 
वे बोले - बात यही है कि अच्छे आलू साले सब बिक गए। कितना पतन है। उन्हें बिकने से इंकार करना था।
  मैंने कहा - यारों, जिसे आलू की सब्जी खाना है, बैगन थोड़े ही खरीदेगा। आलू को बाजार में आना है तो, तो वह बिकेगा ही। वरना बाजार में ना आए। तुम कैसे रह गए? 
वे बोले - हम सड़े आलू हैं, इसलिए नहीं बिक रहे हैं। जो अच्छे आलू थे, वे सा
ले दिन में ही बिक गये। 
   मैंने पूछा - अब तुम क्या करोगे? 
वे बोले - हम विद्रोह करेंगे। चाहे आधी रात तक टोकरे में पड़े रहे, पर बिकेंगे नहीं, हम बिकने वालों में नहीं है, हम किसी कीमत पर नहीं बिकेंगे। हम आत्म सम्मान रखते हैं। हर किसी के हाथ में नहीं बिकते। हम सारी रात टोकरे में पड़े रहेंगे। मैं उनके आत्मसम्मान, सड़ेपन और विद्रोह से बहुत प्रभावित हुआ।
     मैंने कहा - मैं तुम्हारे प्रति श्रद्धा रखता हूँ। अच्छे आलू सचमुच पतित हैं, जो पहले बिक गये। बाजार में तुम ही हो, मगर सड़े होने के कारण तुम्हारा आत्म-सम्मान, अहंकार और विद्रोह बचा है। तुम्हारी जय हो! तुमने सड़ेपन के कारण बुद्धिजीवी वर्ग की लाज रख ली। 
       इतने में एक सस्ते होटल वाला आया और कुंजड़े से एक रुपए में सारे  सड़े आलू ले गया। 
        मुझे  आघात लगा, जब यह आलू हंसते हुए मालिक के साथ चले गए। सड़ा विद्रोह एक रुपए में चार किलो के हिसाब से बिक जाता है।
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व्यंग्य-
           ठिठुरता हुआ गणतंत्र
              (हरिशंकर परसाई) 

चार बार मैं गणतंत्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र-समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूँदाबाँदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डॉलर, पौंड, रुपया, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा-कोष या भारत सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं। इतना बेवकूफ भी नहीं कि मान लूँ, जिस साल मैं समारोह देखता हूँ, उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बताते हैं कि हर गणतंत्र-दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है। आखिर बात क्या है? रहस्य क्या है? जब कांग्रेस टूटी नहीं थी, तब मैंने एक कांग्रेस मंत्री से पूछा था कि यह क्या बात है कि हर गणतंत्र-दिवस को सूर्य छिपा रहता है? सूर्य की किरणों के तले हम उत्सव क्यों नहीं मना सकते? उन्होंने कहा - जरा धीरज रखिए। हम कोशिश में हैं कि सूर्य बाहर आ जाए। पर इतने बड़े सूर्य को बाहर निकालना आसान नहीं हैं। वक्त लगेगा। हमें सत्ता के कम से कम सौ वर्ष तो दीजिए। दिए। सूर्य को बाहर निकालने के लिए सौ वर्ष दिए, मगर हर साल उसका छोटा-मोटा कोना तो निकलता दिखना चाहिए। सूर्य कोई बच्चा तो है नहीं जो अंतरिक्ष की कोख में अटका है, जिसे आप आपरेशन करके एक दिन में निकाल देंगे। इधर जब कांग्रेस के दो हिस्से हो गए तब मैंने एक इंडिकेटी कांग्रेस से पूछा। उसने कहा - ‘हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने की कोशिश करते थे, पर हर बार सिंडीकेट वाले अड़ंगा डाल देते थे। अब हम वादा करते हैं कि अगले गणतंत्र दिवस पर सूर्य को निकालकर बताएँगे। एक सिंडीकेटी पास खड़ा सुन रहा था। वह बोल पड़ा - ‘यह लेडी (प्रधानमंत्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गई है। वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य को निकालो। उन्हें उम्मीद है कि बादलों के पीछे से उनका प्यारा ‘लाल सूरज’ निकलेगा। हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या जरूरत है? क्या बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता? मैं संसोपाई भाई से पूछ्ता हूँ। वह कहता है - ‘सूर्य गैर-कांग्रेसवाद पर अमल कर रहा है। उसने डाक्टर लोहिया के कहने पर हमारा पार्टी-फार्म दिया था। कांग्रेसी प्रधानमंत्री को सलामी लेते वह कैसे देख सकता है? किसी गैर-काँग्रेसी को प्रधानमंत्री बना दो, तो सूर्य क्या, उसके अच्छे भी निकल पड़ेंगे। जनसंघी भाई से भी पूछा। उसने कहा - ‘सूर्य सेक्युलर होता तो इस सरकार की परेड में निकल आता। इस सरकार से आशा मत करो कि भगवान अंशुमाली को निकाल सकेगी। हमारे राज्य में ही सूर्य निकलेगा। साम्यवादी ने मुझसे साफ कहा - ‘यह सब सी.आई.ए. का षडयंत्र है। सातवें बेड़े से बादल दिल्ली भेजे जाते हैं।’ स्वतंत्र पार्टी के नेता ने कहा - ‘रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या नतीजा होगा? प्रसोपा भाई ने अनमने ढंग से कहा - ‘सवाल पेचीदा है। नेशनल कौंसिल की अगली बैठक में इसका फैसला होगा। तब बताऊँगा।’ राजाजी से मैं मिल न सका। मिलता, तो वह इसके सिवा क्या कहते कि इस राज में तारे निकलते हैं, यही गनीमत है।’ मैं इंतजार करूँगा, जब भी सूर्य निकले। स्वतंत्रता-दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतंत्र करके चले गए। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाए। वह बेचारी भीगती बस-स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है। स्वतंत्रता-दिवस भीगता है और गणतंत्र-दिवस ठिठुरता है। मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूँ। प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है - ‘घोर करतल-ध्वनि हो रही है।’ मैं देख रहा हूँ, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं। बाहर निकालने का जी नहीं हो रहा है। हाथ अकड़ जाएँगे। लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियाँ बज रहीं हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है। लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है। पर कुछ लोग कहते हैं - ‘गरीबी मिटनी चाहिए।’ तभी दूसरे कहते हैं - ‘ऐसा कहने वाले प्रजातंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं।’ गणतंत्र-समारोह में हर राज्य की झाँकी निकलती है। ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झाँकियाँ झूठ बोलती हैं। इनमें विकास-कार्य, जनजीवन इतिहास आदि रहते हैं। असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहाँ प्रदर्शित करना चाहिए जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ। गुजरात की झाँकी में इस साल दंगे का दृश्य होना चाहिए, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे। पिछले साल मैंने उम्मीद की थी कि आंध्र की झाँकी में हरिजन जलते हुए दिखाए जाएँगे। मगर ऐसा नहीं दिखा। यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झाँकी सजाए लघु उद्योगों की। दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं। मेरे मध्यप्रदेश ने दो साल पहले सत्य के नजदीक पहुँचने की कोशिश की थी। झाँकी में अकाल-राहत कार्य बतलाए गए थे। पर सत्य अधूरा रह गया था। मध्यप्रदेश उस साल राहत कार्यों के कारण नहीं, राहत-कार्यों में घपले के कारण मशहूर हुआ था। मेरा सुझाव माना जाता तो मैं झाँकी में झूठे मास्टर रोल भरते दिखाता, चुकारा करनेवाले का अँगूठा हजारों मूर्खों के नाम के आगे लगवाता। नेता, अफसर, ठेकेदारों के बीच लेन-देन का दृश्य दिखाता। उस झाँकी में वह बात नहीं आई। पिछले साल स्कूलों के ‘टाट-पट्टी कांड’ से हमारा राज्य मशहूर हुआ। मैं पिछले साल की झाँकी में यह दृश्य दिखाता - ‘मंत्री, अफसर वगैरह खड़े हैं और टाट-पट्टी खा रहे हैं। जो हाल झाँकियों का, वही घोषणाओं का। हर साल घोषणा की जाती है कि समाजवाद आ रहा है। पर अभी तक नहीं आया। कहाँ अटक गया? लगभग सभी दल समाजवाद लाने का दावा कर रहे हैं, लेकिन वह नहीं आ रहा। मैं एक सपना देखता हूँ। समाजवाद आ गया है और वह बस्ती के बाहर टीले पर खड़ा है। बस्ती के लोग आरती सजाकर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हैं। पर टीले को घेरे खड़े हैं कई समाजवादी। उनमें से हरेक लोगों से कहकर आया है कि समाजवाद को हाथ पकड़कर मैं ही लाऊँगा। समाजवाद टीले से चिल्लाता है - ‘मुझे बस्ती में ले चलो।’ मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं - ‘पहले यह तय होगा कि कौन तेरा हाथ पकड़कर ले जाएगा।’ समाजवाद की घेराबंदी है। संसोपा-प्रसोपावाले जनतांत्रिक समाजवादी हैं, पीपुल्स डेमोक्रेसी और नेशनल डेमोक्रेसीवाले समाजवादी हैं। क्रांतिकारी समाजवादी हैं। हरेक समाजवाद का हाथ पकड़कर उसे बस्ती में ले जाकर लोगों से कहना चाहता है - ‘लो, मैं समाजवाद ले आया।’ समाजवाद परेशान है। उधर जनता भी परेशान है। समाजवाद आने को तैयार खड़ा है, मगर समाजवादियों में आपस में धौल-धप्पा हो रहा है। समाजवाद एक तरफ उतरना चाहता है कि उस पर पत्थर पड़ने लगते हैं। ‘खबरदार, उधर से मत जाना!’ एक समाजवादी उसका एक हाथ पकड़ता है, तो दूसरा हाथ पकड़कर खींचता है। तब बाकी समाजवादी छीना-झपटी करके हाथ छुड़ा देते हैं। लहू-लुहान समाजवाद टीले पर खड़ा है। इस देश में जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। सहकारिता के लिए प्रतिबद्ध इस आंदोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं। सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारितापूर्वक खाने लगते हैं और आंदोलन को नष्ट कर देते हैं। समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुए हैं। यों प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि अब समाजवाद आ ही रहा है। मैं एक कल्पना कर रहा हूँ। दिल्ली में फरमान जारी हो जाएगा - ‘समाजवाद सारे देश के दौरे पर निकल रहा है। उसे सब जगह पहुँचाया जाए। उसके स्वागत और सुरक्षा का पूरा बंदोबस्त किया जाए। एक सचिव दूसरे सचिव से कहेगा - ‘लो, ये एक और वी.आई.पी. आ रहे हैं। अब इनका इंतजाम करो। नाक में दम है।’ कलेक्टरों को हुक्म चला जाएगा। कलेक्टर एस.डी.ओ. को लिखेगा, एस.डी.ओ. तहसीलदार को। पुलिस-दफ्तरों में फरमान पहुँचेंगे, समाजवाद की सुरक्षा की तैयारी करो। दफ्तरों में बड़े बाबू छोटे बाबू से कहेंगे - ‘काहे हो तिवारी बाबू, एक कोई समाजवाद वाला कागज आया था न! जरा निकालो!’ तिवारी बाबू कागज निकालकर देंगे। बड़े बाबू फिर से कहेंगे - ‘अरे वह समाजवाद तो परसों ही निकल गया। कोई लेने नहीं गया स्टेशन। तिवारी बाबू, तुम कागज दबाकर रख लेते हो। बड़ी खराब आदत है तुम्हारी।’ तमाम अफसर लोग चीफ-सेक्रेटरी से कहेंगे - ‘सर, समाजवाद बाद में नहीं आ सकता? बात यह है कि हम उसकी सुरक्षा का इंतजाम नहीं कर सकेंगे। पूरा फोर्स दंगे से निपटने में लगा है।’ मुख्य सचिव दिल्ली लिख देगा - ‘हम समाजवाद की सुरक्षा का इंतजाम करने में असमर्थ हैं। उसका आना अभी मुल्तवी किया जाए।’ जिस शासन-व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज दब जाएँ और जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले आओ। मुझे खास ऐतराज भी नहीं है। जनता के द्वारा न आकर अगर समाजवाद दफ्तरों के द्वारा आ गया तो एक ऐतिहासिक घटना हो जाएगी

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वैष्णव की फिसलन:

(हरिशंकर परसाई) 
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वैष्णव करोड़पति है। भगवान विष्णु का मंदिर। जायदाद लगी है। भगवान सूदखोरी करते हैं। ब्याज से कर्ज देते हैं। वैष्णव दो घंटे भगवान विष्णु की पूजा करते हैं, फिर गादी-तकिएवाली बैठक में आकर धर्म को धंधे से जोड़ते हैं। धर्म धंधे से जुड़ जाए, इसी को ‘योग’ कहते हैं। कर्ज लेने वाले आते हैं। विष्णु भगवान के वे मुनीम हो जाते हैं । कर्ज लेने वाले से दस्तावेज लिखवाते हैं -

‘दस्तावेज लिख दी रामलाल वल्द श्यामलाल ने भगवान विष्णु वल्द नामालूम को ऐसा जो कि...

वैष्णव बहुत दिनों से विष्णु के पिता के नाम की तलाश में है, पर वह मिल नहीं रहा। मिल जाय तो वल्दियत ठीक हो जाय।

वैष्णव के पास नंबर दो का बहुत पैसा हो गया है । कई एजेंसियाँ ले रखी हैं। स्टाकिस्ट हैं। जब चाहे माल दबाकर ‘ब्लैक’ करने लगते हैं। मगर दो घंटे विष्णु-पूजा में कभी नागा नहीं करते। सब प्रभु की कृपा से हो रहा है। उनके प्रभु भी शायद दो नंबरी हैं। एक नंबरी होते, तो ऐसा नहीं करने देते।

वैष्णव सोचता है - अपार नंबर दो का पैसा इकठ्ठा हो गया है। इसका क्या किया जाय? बढ़ता ही जाता है। प्रभु की लीला है। वही आदेश देंगे कि क्या किया जाय।

वैष्णव एक दिन प्रभु की पूजा के बाद हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा - प्रभु, आपके ही आशीर्वाद से मेरे पास इतना सारा दो नंबर का धन इकठ्ठा हो गया है। अब मैं इसका क्या करूँ? आप ही रास्ता बताइए। मैं इसका क्या करूँ? प्रभु, कष्ट हरो सबका!

तभी वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज उठी - अधम, माया जोड़ी है, तो माया का उपयोग भी सीख। तू एक बड़ा होटल खोल। आजकल होटल बहुत चल रहे हैं।

वैष्णव ने प्रभु का आदेश मानकर एक विशाल होटल बनवाई। बहुत अच्छे कमरे। खूबसूरत बाथरूम। नीचे लॉन्ड्री। नाई की दुकान। टैक्सियाँ। बाहर बढ़िया लान। ऊपर टेरेस गार्डेन।

और वैष्णव ने खूब विज्ञापन करवाया।

कमरे का किराया तीस रुपए रखा।

फिर वैष्णव के सामने धर्म-संकट आया। भोजन कैसा होगा? उसने सलाहकारों से कहा - मैं वैष्णव हूँ। शुद्ध शाकाहारी भोजन कराऊँगा। शुद्ध घी की सब्जी, फल, दाल, रायता, पापड़ वगैरह।

बड़े होटल का नाम सुनकर बड़े लोग आने लगे। बड़ी-बड़ी कंपनियों के एक्जीक्यूटिव, बड़े अफसर और बड़े सेठ।

वैष्णव संतुष्ट हुआ।

पर फिर वैष्णव ने देखा कि होटल में ठहरने वाले कुछ असंतुष्ट हैं।

एक दिन कंपनी का एक एक्जीक्यूटिव बड़े तैश में वैष्णव के पास आया। कहने लगा - इतने महँगे होटल में हम क्या यह घास-पत्ती खाने के लिए ठहरते हैं? यहाँ ‘नानवेज’ का इंतजाम क्यों नहीं है?

वैष्णव ने जवाब दिया - मैं तो वैष्णव हूँ। मैं गोश्त का इंतजाम अपने होटल में कैसे कर सकता हूँ ?

उस आदमी ने कहा - वैष्णव हो, तो ढाबा खोलो। आधुनिक होटल क्यों खोलते हो? तुम्हारे यहाँ आगे कोई नहीं ठहरेगा|

वैष्णव ने कहा - यह धर्म-संकट की बात है। मैं प्रभु से पूछूँगा।

उस आदमी ने कहा - हम भी बिजनेस में हैं। हम कोई धर्मात्मा नहीं हैं - न आप, न मैं।

वैष्णव ने कहा - पर मुझे तो यह सब प्रभु विष्णु ने दिया है। मैं वैष्णव धर्म के प्रतिकूल कैसे जा सकता हूँ? मैं प्रभु के सामने नतमस्तक होकर उनका आदेश लूँगा।

दूसरे दिन वैष्णव साष्टांग विष्णु के सामने लेट गया। कहने लगा - प्रभु, यह होटल बैठ जाएगा। ठहरनेवाले कहते हैं कि हमें वहाँ बहुत तकलीफ होती है। मैंने तो प्रभु, वैष्णव भोजन का प्रबंध किया है। पर वे मांस माँगते हैं। अब मैं क्या करूँ ?

वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, गांधीजी से बड़ा वैष्णव इस युग में कौन हुआ है? गाँधी का भजन है - ‘वैष्णव जन तो तेणे कहिये, जे पीर पराई जाणे रे।’ तू इन होटलों में रहनेवालों की पीर क्यों नहीं जानता? उन्हें इच्छानुसार खाना नहीं मिलता। इनकी पीर तू समझ और उस पीर को दूर कर।

वैष्णव समझ गया।

उसने जल्दी ही गोश्त, मुर्गा, मछली का इंतजाम करवा दिया।

होटल के ग्राहक बढ़ने लगे।

मगर एक दिन फिर वही एक्जीक्यूटिव आया।

कहने लगा - हाँ, अब ठीक है। मांसाहार अच्छा मिलने लगा। पर एक बात है।

वैष्णव ने पूछा - क्या?

उसने जवाब दिया - गोश्त के पचने की दवाई भी तो चाहिए ।

वैष्णव ने कहा - लवण भास्कर चूर्ण का इंतजाम करवा दूँ?

एक्जीक्यूटिव ने माथा ठोंका।

कहने लगा - आप कुछ नहीं समझते। मेरा मतलब है - शराब। यहाँ बार खोलिए।

वैष्णव सन्न रह गया। शराब यहाँ कैसे पी जाएगी? मैं प्रभु के चरणामृत का प्रबंध तो कर सकता हूँ। पर मदिरा! हे राम!

दूसरे दिन वैष्णव ने फिर प्रभु से कहा - प्रभु, वे लोग मदिरा माँगते हैं| मैं आपका भक्त, मदिरा कैसे पिला सकता हूँ?

वैष्णव की पवित्र आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, तू क्या होटल बैठाना चाहता है? देवता सोमरस पीते थे। वही सोमरस यह मदिरा है। इसमें तेरा वैष्णव-धर्म कहाँ भंग होता है। सामवेद में तिरसठ श्लोक सोमरस अर्थात मदिरा की स्तुति में हैं। तुझे धर्म की समझ है या नहीं?

वैष्णव समझ गया।

उसने होटल में ‘बार’ खोल दिया।

अब होटल ठाठ से चलने लगा। वैष्णव खुश था।

फिर एक दिन एक आदमी आया। कहने लगा - अब होटल ठीक है। शराब भी है। गोश्त भी है। मगर मारा हुआ गोश्त है। हमें जिंदा गोश्त भी चाहिए।

वैष्णव ने पूछा - यह जिंदा गोश्त कैसा होता है?

उसने कहा - कैबरे, जिसमें औरतें नंगी होकर नाचती हैं।

वैष्णव ने कहा - अरे बाप रे!

उस आदमी ने कहा - इसमें ‘अरे बाप रे’ की कोई बात नहीं। सब बड़े होटलों में चलता है। यह शुरू कर दो तो कमरों का किराया बढ़ा सकते हो।

वैष्णव ने कहा - मैं कट्टर वैष्णव हूँ। मैं प्रभु से पूछूँगा।

दूसरे दिन फिर वैष्णव प्रभु के चरणों में था। कहने लगा - प्रभु, वे लोग कहते हैं कि होटल में नाच भी होना चाहिए। आधा नंगा या पूरा नंगा।
वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, कृष्णावतार में मैंने गोपियों को नचाया था। चीर-हरण तक किया था। तुझे क्या संकोच है?

प्रभु की आज्ञा से वैष्णव ने ‘कैबरे’ भी चालू कर दिया।

अब कमरे भरे रहते थे - शराब, गोश्त और कैबरे।

वैष्णव बहुत खुश था। प्रभु की कृपा से होटल भरा रहता था।

कुछ दिनों बाद एक ग्राहक ने बेयरे से कहा - इधर कुछ और भी मिलता है?

बेयरे ने पूछा - और क्या साब?

ग्राहक ने कहा - अरे यही मन बहलाने को कुछ? कोई ऊँचे किस्म का माल मिले तो लाओ।

बेयरा ने कहा - नहीं साब, इस होटल में यह नहीं चलता।

ग्राहक वैष्णव के पास गया। बोला - इस होटल में कौन ठहरेगा? इधर रात को मन बहलाने का कोई इंतजाम नहीं है।

वैष्णव ने कहा - कैबरे तो है, साहब।

ग्राहक ने कहा - कैबरे तो दूर का होता है। बिलकुल पास का चाहिए, गर्म माल, कमरे में।

वैष्णव फिर धर्म-संकट में पड़ गया।

दूसरे दिन वैष्णव फिर प्रभु की सेवा में गया। प्रार्थना की - कृपानिधान! ग्राहक लोग नारी माँगते हैं - पाप की खान। मैं तो इस पाप की खान से जहाँ तक बनता है, दूर रहता हूँ। अब मैं क्या करूँ?

वैष्णव की शुद्ध आत्मा से आवाज आई - मूर्ख, यह तो प्रकृति और पुरुष का संयोग है। इसमें क्या पाप और क्या पुण्य? चलने दे।

वैष्णव ने बेयरों से कहा - चुपचाप इंतजाम कर दिया करो। जरा पुलिस से बचकर, पच्चीस फीसदी भगवान की भेंट ले लिया करो।

अब वैष्णव का होटल खूब चलने लगा।

शराब, गोश्त, कैबरे और औरत।

वैष्णव धर्म बराबर निभ रहा है।

इधर यह भी चल रहा है।

वैष्णव ने धर्म को धंधे से खूब जोड़ा है।

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               मुर्दों का मूल्य
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बैलाडिला में मजदूरों पर गोली चल गयी । मजदुर छटनी के विरोध में आंदोलन कर रहे थे I वे शान्तिपूर्ण आन्दोलन कर रहे थे, पैतालीस दिनों से । इतने दिनों तक शान्तिपूर्ण आंदोलन न खदानों के अधिकारियों को अच्छा लग रहा था, न शासन को, न पुलिस को l

दो-चार दिनों का शान्तिपूर्ण आंदोलन अच्छा लगता है । पैतालीस दिनों तक कौन धीरज रखे बठा रहेगा कि अब भगवान की दया से गोली चलाने का शुभ अवसर मिलेगा I आखिर ऊबकर अधिकारियों ने एक दिन शान्ति पूर्ण  को अशान्तिपूर्ण बना दिया ।

बेचारे कब तक बन्दूक लिये इन्तजार करते रहते ? पुलिस ने औरतों पर लाठी चला दी । वे कटीले तारों में से फंसती, उलझती, फटी साडी, फटी चोली, आधी नंगी , पूरी नंगी, अपने झोपड़ियों मे अपने मर्दों के सामने पहुँची।मर्दों ने औरतों  को अधनंगी देखा ।

जो शांतिपूर्ण था , वह अशांति पूर्ण हो गया ।अधिकारियों की मनोकामना पूरी हुई ।पुलिस ने गोलियां भर लीं । भगवान सबकी सुनता है । भगवान के राज में देर है अंधेर नहीं ।

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने ऐसी शांति और  प्रसन्नता से बयान दिया, जैसे शतचंडी यज्ञ की प्रसन्नता बता रहे हों ।कुल नौ आदमी पुलिस की गोली में मारे गए, वे कहते हैं ।

एक ने कहा नौ नहीं, सौ मारे गए हैं ।

मुख्यमंत्री ने देखा -- हाँ, कांग्रेसी है । दूसरे ने कहा -यह तार मेरे पास है । पांच सौ मजदूर मारे गए हैं।

मुख्यमंत्री ने देखा - हूँ , मोतीलाल बोरा है , इंदिरा गांधी कांग्रेस वाला ।

तीसरे ने कहा - बहुत ज्यादा मौतें हुई हैं , तथ्यों को छिपाया जा रहा है ।

मुख्यमंत्री ने देखा - हाँ, है तो जनता पार्टी का ,पर कमबख्त समाजवादी है । रघु ठाकुर का भड़काया हुआ  है।

मुख्यमंत्री ने अपने जनसंघी साथियों की तरफ देखा ।वे आँखों से कह रहे थे --- अरे सखलेचा , तेरी अक्ल क्या काली टोपी में ही रह गई । नौं भी क्यों कहा ? कह देता एक भी नहीं मरा ।जो पता लगाने जाते ,उन्हें भी मार डालते किसे मालूम होता है ।

अब मुख्यमंत्री ने मौत का हिसाब किया - बिल्कुल  बनिये की तरह।खून की कीमत तय करके दे दी । देखो भाई , तुम्हारे आलू के इतने पैसे हुए , बैंगन के इतने और टमाटर के इतने । न भूलचूक ना लेना-देना ।
जो मरा, उसके परिवार वालों को 5 हजार रूपये देंगे । जो ज्यादा घायल होकर अस्पताल में हैं,उसे हजार रूपये । जिसकी सिर्फ मरहम-पट्टी हुई है उसे ढाई सौ रूपये । हो गया हिसाब साफ़ ।
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