Gandhi 2.0 : new gandhian

नव गांधीवादी 

हमारी सरकारों ने नयी पीढ़ी को बापू का दर्शन समझने के लिए ... लगभग मजबूर कर दिया और अब गांधी 2.0 नये version में आ चुके हैं। जिसकी जरूरत न केवल हमारे देश को बल्कि पूरी दुनिया को है क्योंकि ताकतवर सरकारों से सिर्फ गांधी लड़ सकते हैं। जैसा कि हम सब जानते हैं कि हिंसा का प्रतिकार बहुत आसानी से हिंसा से हो सकता है, ऐसा ही आमतौर पर होता है और यह एक अंतहीन श्रृंखला को जन्म देती है। इस प्रक्रिया में हमेशा जो ज्यादा हिंसक होता है, तराजू का पलड़ा उसी की तरफ झुक जाता है। इसे हम इतिहास के किसी भी कालखण्ड में देख सकते हैं, यह पूरी तरह रक्त रंजित है, जिसमें सत्ता और शक्ति रूपी दानव मनुष्यता का हर पल ग्रास कर रहा होता है। यह दानव किसी एक कालखण्ड तक सीमित नहीं है, इसमें निरंतरता है और इससे जो संघर्ष है वह चंद दिनों की महज खानापूर्ति कर लेने से नहीं हो सकती क्योंकि यह संघर्ष स्वयं से और अपने लोगों से है। ऐसे में यह लड़ाई बहुत कठिन हो जाती है क्योंकि इसका "मूल" विचार और चिंतन में छुपा हुआ है कि आखिर हम क्या, क्यों और कौन हैं? इस बात की तलाश करना और खुद को क्या और कैसा बनाने की जिम्मेदारी हमारी अपनी है।
https://rajhansraju.blogspot.com/2020/01/shahinbagh.html
 हममें से ज्यादातर लोग किसी खास विचार से जकड़े हुए हैं और उसे सही करने की हममें न तो समझ है और न ही इच्छा। यह जकड़न कुछ-कुछ मानसिक गुलामी जैसा बन चुका है। आप किसी भी व्यक्ति को लें, वह अपने को कितना भी बड़ा विद्वान मानता हो, उसके कुछ वर्षों का मूल्यांकन करके देखिए, कहीं वह इसी तरह की जकड़न का शिकार तो नहीं है क्योंकि ज्यादातर लोग एक ही बात को लगातार दुहराते-दुहराते, खुद को एक मशीन जैसा बना लेते हैं। जहाँ एक खास तरह का फ्रेम बना हूआ है और उसकी कोशिश हर चीज को उसी दायरे में समेटना है। इसी फ्रेमिंग में वह अन्य लोगों को भी बांधने लग जाता है और जो लोग उसके फ्रेम से बाहर होते हैं उन्हें वह स्वीकार नहीं करना चाहता।
 इस तरह की बात अगर कुछ हजम हो रही हो तो अपने अक्ल के घोड़े को थोड़ा खुला छोड़ दीजिए और उसे हर तरफ दौड़ने दीजिए और अब आप एक बात निश्चित मानिए कि आपका विश्वास चकनाचूर होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा या फिर हो चुका होगा। यह बात सिद्ध है कि आप एक आम आदमी ही हैं तभी आपके पास इतना समय है जो आप यह लम्बा आर्टिकल पढ़ रहे हैं, वैसे इसे अपनी बेइज्जती मत समझिए... तो कहने का मतलब अगर समझ रहे हैं तो आप महज एक मोहरा हैं जो सिर्फ़ भीड़ बनने/बनाने के काम आता है।
       ऐसे में सबसे बड़ी समस्या सही-गलत का फर्क करना है क्योंकि हमारे पास जो स्थापित पैमाना है वह पहले से कुछ निश्चित किए गये मानकों पर चल रहा है जिसकी सूई हमेशा एक खास जगह पर आकर अटक जाती है। इसके लिए आपको कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है बस खुद को देखिए कि आपकी सूई कहाँ अटकी हुई है। चलिए कुछ सामान्य अटकनों की चर्चा करते हैं जो आमतौर पर जाति, धर्म या फिर कोई दलगत आस्था, जो भक्ति में बदल चुकी होती है। यही आमतौर पर एक बड़ी अटकन का काम करती है और लोगों के सही गलत के विमर्श को इन्हीं दायरों में समेट देती है। 
 ऐसे में जिस गांधी 2.0 की बात हो रही है वह वास्तव में वही गांधी दर्शन है, जिसकी हमारी हर किताब में इतनी चर्चा होती है। जो नयी पीढ़ी को बोझिल और बोर लगने लगा था। फिर वही हारे के हरिनाम... मजबूरी का नाम... मतलब धरती गोल है और समाज या फिर व्यक्ति की जिंदगी में एक ऐसा वक्त जरूर आता है जब उसके पास सही चुनने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता क्यों कि गलत का चुनाव करके कुछ भी सही हासिल नहीं हो सकता तो बस हमारी नयी पीढ़ी उसी रास्ते से खुद को ढूंढने और व्यक्त करने की कोशिश कर रही है क्योंकि उसने काफी कुछ करके देख लिया है कि उससे केवल प्रताड़ना मिलती है और हिंसात्मक प्रतिकार से न केवल वह अपराध बोध से ग्रसित होता है बल्कि वह कानून का भी अपराधी बन जाता है। ऐसे में उसकी लड़ाई और कठिन हो जाती है क्योंकि उसे न तो लोगों की सहानुभूति मिल पाती है और न तो वह इतना ताकतवर होता है कि वह किसी भी सरकार से लड़ सके... फिर इस गांधियन तरीके कि लड़ाई में साहित्य और सौंदर्य देखिए जहाँ फैज, दुश्यंत कुमार, अदम गोंडवी,... और न जाने कितने गुमनाम शायरों के शेर, उनकी कहानियां, कविताएं नयी आवाज पा रही होती हैं, साथ ही कुछ नया गढ़ने और कहने के नये और नायाब तरीके कि आपका विरोधी भी कह पड़े वाह बंदे की बात और बंदे में दम तो है। मतलब इस तरह का जब भी विरोध होता है तो यह अपने आप सीखने-सीखाने का बहुत बड़ी संस्था बन जाता है, जहाँ शिक्षक और विद्यार्थी का फर्क नहीं होता और यहाँ व्यक्ति और समाज का सिर्फ़ निर्माण होता है।
यहाँ हर आदमी,
एक कलाकार या फनकार होता है,
जिसे सब सुनना चाहते हैं,
क्योंकि उसके पास बेहतरीन शब्द हैं,
वह गुनगुनाता है,
तो लोग थिरकने लग जाते हैं। 
उसे पढ़ना चाहते हैं,
वह कहानियां कहता है,
किताबें लिखता है,
उस कोने में पेंटिंग बना रहा है
किसी कठपुतली की आवाज है
कोई धागा
बहुत देर से पकड़कर
मौन साधकर बैठा है
कहीं कुछ छिटक न जाए
क्या-क्या ऐसे ही संभालता है।
लोग हंसते हैं,
वह पूरा जोकर है,
चीखता है, फटकारता है,
चुप हो जाता है,
भूख लगती,
खूब रोता है,
क्या करें,
क्या कहे,
आदमी है,
देखता है,
सुनता है,
सबसे बुरी बात उसमें यह है,
थोड़ा बहुत सबकुछ समझता है।
      ऐसे में हमारे पास जब बापू का दिखाया हुआ शानदार रास्ता हो तो हमें ज्यादा माथापच्ची नहीं करनी चाहिए वैसे भी लड़ाई जब खुद के लोगों से हो तो हमारे सामने सिर्फ एक ही विकल्प बचता है... गांधी.... सत्याग्रह... सत्य.. अहिंसा... सहिष्णुता...
वैष्णव जन तो तेने कहिये,
जे पीड़ पराई जाणे रे..
Rajhans Raju 
 ©️rajhansraju
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बचे रहेंगे गांधी /

हिंसा की बर्बरता से 
अहिंसा की संवेदना की ओर  
भीडतंत्र से सत्याग्रह की ओर  
मिथ्या से सत्य की ओर  
स्वार्थ से शुचिता की ओर
विलासिता से सच्चरित्रता की ओर 
बर्बर सांप्रदायिकता से 
सर्वधर्म समभाव की ओर
घृणा से प्रेम और करुणा की ओर  
संघर्ष से भाईचारे की ओर
मनुष्य-विरोधी पूंजीवादी व्यवस्था से 
मानवीय व्यवस्था की ओर 
अंध औद्योगीकरण से 
कुटीर उद्योग की ओर  
पूंजी के गौरव से श्रम के सम्मान की ओर  
गलाकाट प्रतिद्वंदिता से 
आपसी सहयोग की ओर  
स्मार्ट सिटीज से स्वावलंबी गांवों की ओर 
विनाश की अंधी दौड़ से 
सार्थक निर्माण की ओर  
आज नहीं तो कल यह दुनिया 
लौटेगी ज़रूर इन रास्तों पर

तुम उसे कैसे मार पाओगे, गोडसे
गांधी मरकर भी बचा रहेगा
थोड़ा-थोड़ा तुम सबमें
क्योंकि गांधी व्यक्ति नहीं
विचार है
और विचार को मारने वाला गोडसे 
कभी पैदा नहीं होता !

ध्रुव गुप्त

माफ करना बापू
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क्यों मरे बापू
हमारे लिये
सम्पन्न थे बैरिस्टर थे
क्यों लंगोटी डाल ली?
अपनी समझ से अपनों के लिये
तूने जो किया 
कौन करता है इतना?
एक नासमझ ने मार दिया तुम्हे,
अपनी सोच के नतीजतन।
गलती थी उसकी,
पर नाशुक्रे उसे सही ठहराने लगे हैं।
रहने दिया होता यूं ही
ये कुतर्की तब ले लेते सत्ता 
दिला देते स्वतंत्रता
नही मरना था बापू।

तुम्हे भी कभी कभी 
याद कर लेता है कोई
जय जवान को जय किसान से जोड़ने वाले लाल!
अच्छा हुआ तुम चले गये
तुम्हारी सी नैतिकता 
किसमें शेष रही अब?
कौन देता है इस्तिफा
डंटे हैं सब बेशर्मी से!
खो दिया हमने तुम्हे
और यह भी पता नही
कैसे चले गये तुम?

           डॉ किशोर अग्रवाल







छात्र, किसान, मजदूर
इनकी समस्याओं का समाधान दुनिया में कोई नहीं कर सकता क्योंकि इस समूह में होने का अर्थ ही संघर्ष है क्योंकि जीवन में कुछ भी हासिल करने की प्रारम्भिक सीढ़ी अर्थात जो प्रक्रिया है वह यहीं से शुरू होती है। 
ऐसे में यह समूह जहाँ भी उम्मीद की कोई गुंजाइश देखता है उसे वहाँ पूरा आसमान खुलता हुआ दिखाई देने लगता है जबकि जो लोग यह सपने दिखा रहे हैं वह खुद अपना सुनहरा भविष्य देख रहे हैं।
हमारे यहाँ किसान, मजदूर और छात्र के नाम पर राजनीति करने वाले लोग सोचिए कहाँ से कहाँ पहुंच गए और ए लोग अब भी उसी हाल में हैं।
चलिए सबसे पहले छात्र राजनीति पर बात करते हैं कि इससे जुड़े लोग छात्र हित में कौन सा काम करते हैं तो हमें अपने कथित छात्र नेताओं को गौर से देखने की आवश्यकता है तो इनका मूलतः शिक्षा से कोई संबंध नहीं होता ज्यादातर प्रायोजित होते हैं और जातीय धार्मिक राजनीतिक दलों के आनुषंगिक संगठन होते जो उनको तोड़ फोड़ और आगजनी के लिए आवश्यक मानव संसाधन उपलब्ध कराते हैं और संस्थान के स्तर पर एक संस्थानिक गुंडा के रूप में होते हैं जिनको कोई कुछ बोल नहीं सकता और शिक्षण संस्थान को जातीय गिरोह में बदलने का शानदार काम करते हैं जहाँ शिक्षा के विमर्श से जुड़ी कोई गतिविधि नहीं होती।
अब यही छात्र जिसे कुछ समय बाद समाज में खपना है। वह समझ और हुनर दोनों में से कुछ भी हासिल नहीं कर पाया है उसको महज टूल किट मिल है जिसमें ढ़ेर सारा दुराग्रह है और वह उसके आगे कुछ देखना नहीं पाता और अपने को किसी खेमे में खड़ा पाता है। इस खेल की सबसे मजेदार बात यह है कि उसे पता ही नहीं चलता कि उसका इस्तेमाल अपने हित के लिए कोई और कर रहा है।
आइए थोड़ा सा इस टूलकिट के बारे में बताते हैं
आप खतरे में हैं आपके हक छीने जा रहे हैं। इसमें जाति धर्म के ऐंगल बिना मतलब आरक्षण का मुद्दा तो बीच में आना ही आना है। इस आरक्षण वाले ज्वलंत मुद्दे पर जो आरक्षण पा रहा और जो नहीं पा रहा दोनों को एक जैसा ही साधा जाता है।
जबकि सरकारी नौकरी कितने लोगों को मिलेगी
अरे भाई जो चीज न के बराबर है वह सबको तो मिलने से रही फिर आप चाहे जिस category में आते हों क्या फर्क पड़ेगा।
पहले तो यह मान लीजिए और जान लीजिए जितने लोग डिग्री हासिल कर रहे हैं उनमें से ज्यादातर को सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी। आप अपने आसपास गौर करिए कि कोई सरकारी सेवा की vacancy निकलती तो लाखों की संख्या में आवेदन आते हैं और पद.. हजार पांच सौ..


मजदूर...


किसान.... 


























अपना बहुत कुछ ऐसा है जिसे सब तक पहुँचना चाहिए या यूँ कहें हमें उन तक पहुँचना चाहिए और ऐसे में social network एक बेहतरीन प्लेटफॉर्म के रूप में हमें मिल गया है तो आइए कुछ इस तरह बिखर जायें कि हम हर जगह हो जायें। 
आप सबसे गुजारिश है इस तरह के जितने भी लोग जो अपने स्तर पर छोटा-बड़ा जो भी काम कर रहे हैं उन्हें सराहिइए और हम सभी को ज्यादा कुछ करना भी नहीं है। वैसे इसमें कोई घाटे की बात भी नहीं है। बस subscribe और share करना है और जब कभी वक्त मिले इन्हें और हमें भी सुन लीजिए। आपको बेहतरीन शब्द मिल जायेंगे और हाँ जिंदगी देखने समझने के नजरिए मिल जायेंगे, सब बदल जायेगा इसका दावा तो नहीं करते। हाँ इतना जरूर है कि कैसे बदलेगा, किस तरह चलना है... शायद इसका तरीका और रास्ता मिल जाये
❤️❤️❤️🙏🙏❤️❤️



इस तरह का विमर्श जातीय वोट बैंक को मजबूत करने के लिए आवश्यक होता है कि लोगों में जातीय आधार हीनभावना बरकरार रखी जाये और यह mindset बनाये रखना जाति आधारित नेता बने रहने की आवश्यक शर्त है।
हमारे यहाँ सबसे बड़ी समस्या राजनीतिक pumplate को समस्त भारतीय समाज को गाली देने वाला साहित्य मान लेना है।
एक बात और हर समय एक ही तरह का विलाप करते रहना किसी प्रकार का विमर्श नहीं कहलाता। चाहे तो कथित दलित और पिछड़ा वोट बैंक या अगड़ी जाति आधारित राजनीतिक विमर्श खड़ा करने वालों के विचार एक जगह अटके हुए हैं और एक छद्म डर बनाये रखना उनकी सफलता है। अब समर्थन और विरोध भी लोगों की जाति से ही निश्चित हो जाता है सही-गलत कि तो कोई बात ही नहीं है।
साथ ही जिस कथित ब्राह्मणवाद का विरोध किया जाता है वह कोई विरोध नहीं है वह सिर्फ खुद को ब्राह्मण बनाने और मानने का प्रयास है। मैंने मनोज शुक्ला (मुंतशिर) के माध्यम से कुछ समझने समझाने का प्रयास किया है। तो आइये शालीन भाषा में एक दूसरे से असहमत होते हैं और जातिवाद के विरोध में अपनी जाति के पक्ष में अपना कथा पुराण शुरू करते हैं। इसकी पहली शर्त खुद को बेचारा साबित करना है 







हमारे यहाँ चंद लोगों की मूर्खता का मीडिया राष्ट्रीयकरण करने में लग जाता है जैसे पूरे भारत में यही हो रहा है और बड़ी आसानी से एक खासतरह का narrative बनाने में इस तरह की इक्का-दुक्का घटनाओं को हर जगह चलाया जाता है जबकि इतनी बड़ी आबादी में दो चार सौ गधों को भी अपनी आवाज़ में जो कह रहे हों कहने देना चाहिए ए लोग किसी खबर लायक हैसियत नहीं रखते...
हमारे यहाँ कि तो पूरी राजनीति जाति धर्म क्षेत्र पर आधारित है और विरोध और समर्थन करने वालों को किसी भी मुद्दे पर देखिए... किसी की भी timeline देख लीजिए....
यही बात जाति विमर्श करने वालों के comment और उनके विचार देखिए तो और लोगों से कहीं ज्यादा बिमार लगते हैं।
अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हमारी पहचान सिर्फ तिरंगा है और उसकी शान बढ़ाने वाले हर भारतीय को हम सबकी तरफ से जय हिंद














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Comments

  1. ए सब गांधी के मुखौटे वाले लोग हैं

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