Ramcharitmanas

ढोल गवांर सूद्र पसु नारी,

सकल ताडना के अधिकारी।

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रामचरित मानस (सुंदर कांड)

दोहा-58

काटेहिं पर कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।।

अर्थ-

काकभुसुंडि जी कहते हैं - हे गरुड़ जी! 
सुनिए चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है।
नीच विनय से नहीं मानता, वह डांटने पर ही झुकता है अर्थात रास्ते पर आता है...

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चोपाई -

सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे, 
छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।
गगन समीर अनल जल धरनी, 
इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी ।। 1।।

अर्थ -

समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़ कर कहा - 
हे नाथ मेरे सब अवगुण अर्थात दोष क्षमा कीजिए।
हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी
इन सब की करनी स्वभाव से ही जड़ है..

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तव प्रेरित मायाँ उपजाए, 
सृष्टि हेतु सब ग्रंथिन गाए।
प्रभु आयसु जेहि जस अहई, 
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई ।। 2।।

अर्थ -

आप की प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है,
सब ग्रंथों में यही गाया है
जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है
वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है..

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प्रभु भल कीन्ह मोहिसिख दीन्ही, 
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी, 
सकल ताड़ना के अधिकारी ।। 3।।

अर्थ -

प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी
अर्थात दंड दिया
किंतु मर्यादा (जीवो का स्वभाव)
भी आपकी ही बनाई हुई है
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री 
यह सब शिक्षा के अधिकारी हैं..

ताड़ना, संस्कृत के प्रताड़ना जैसा लगने के कारण नये नये व्याख्याकार, वह भी जाति कि राजनीति करने वाले.. अब किसी दिन गोल, खगोल, मंगोल को भी एक मान ले तो भला इनका क्या कोई इलाज हो सकता है। फिलहाल यह जानने कि आवश्यकता है कि श्री रामचरितमानस अवधी भाषा में है जो देशज भाषा है और उसका अर्थ उसी स्थानीय संदर्भ में देखा जाना चाहिए। साथ ही यह भी समझने कि आवश्यकता है कि हमारे सनातन संस्कृति में किसी भी चीज को मनाने के लिए कोई बाध्य नहीं है ऐसे में क्या लिखा है परेशान मत होइए। अपनी समझ और सामर्थ्य के अनुसार जहाँ तक पहुँचने कि क्षमता हो पहुंचिए यह आपकी निजी यात्रा है

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प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई, 
उतरिहि कटकु न मोरि बड़ाई।
प्रभु अज्ञा अपेल श्रुति गाई, 
करौं सो बेगि जो तुम्हहि सो आई ।।4।।

अर्थ -

प्रभु के प्रताप से मैं सुख जाऊंगा
और सेना पार उतर जाएगी इसमें मेरी बढ़ाई नहीं है 
अर्थात मेरी मर्यादा नहीं रहेगी तथा आप प्रभु की आज्ञा अपेल है
(अर्थात आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं हो सकता) 
ऐसा वेद गाते हैं अब आपको जो अच्छा लगे मैं तुरंत वही करूँ

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दोहा - 59

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसकाइ।
जेहिं बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।।

अर्थ -

समुद्र के अत्यंत विनीत वचन सुनकर कृपालु राम श्री राम जी ने मुस्कुराकर
कहा हे - तात जिस प्रकार वानरों की सेना पार उतर जाए वह उपाय बताइए...

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ए शाब्दिक अर्थ है
जबकि मानस के जानकर शब्दों के गूढ़ रहस्य कि भी व्याख्या करते हैं जैसे मानस में ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, धर्म, रामराज्य..... के अर्थ, उनके कर्तव्य, मर्यादा आदि कि भी व्याख्या है जिससे समझने जानने के लिये धैर्य और समर्पण चाहिए और जिसके लिए राम जी कि कृपा चाहिए

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अब आइए राजनीतिक लक्ष्यो के लिए किए जा रहे बौद्धिक दीवालिएपन पर आते हैं
सब ठीक है
लेकिन चौपाई नंबर 1, 2, 3, 4 किससे कौन कह रहा है, 
बस यह बात, पता नहीं सारे समझदार लोग क्यों नहीं बताते हैं?

थोड़ी सी मेरी भी जानकारी है जो.. 
यह बात समुद्र कह रहा है और चारों चौपाइयां एक साथ पढ़ना चाहिए 
और यह भी कहना है कि समुद्र ने ऐसा कहा..

और यह चारो चौपाई दोहा नं. 58 और 59 के मध्य है 
और पूरी रामचरित मानस संवाद शैली में लिखी गई है 
जिसमें प्रत्येक चरित्र अपने गुण के अनुसार व्यवहार करता है 
और वैसी ही बात करता है..
 
इस विधा को साहित्य के विद्यार्थी प्रबंध काव्य के नाम से जानते हैं।


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ऐसे में मानस का मर्म समझने के लिए पढ़ना और अपना एजेंडा सेट करने के लिए अर्थ का अनर्थ करना अलग विषय है और यह भी समझने के लिए थोड़ी सी बुद्धि का इस्तेमाल आवश्यक है कि जिस ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र को लेकर आज राजनीतिक तिकड़म बाजी की जा रही है उसका संदर्भ आज के राजनीतिक जाति व्यवस्था से नहीं है और यदि आज की दलित, पिछड़ी और आदिवासी जातियों को तब के शूद्र से जोड़ा जाता है यह भी मानना पड़ेगा कि रामायण, वेद के रचनाकार शुद्र हैं क्योंकि जिन्हें आज आप शूद्र कह रहे हैं वह शूद्र यदि उसी शूद्र वर्ण से संबंध रखते थे तब तो किसी प्रकार के स्पष्टीकरण की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है और सारे आरोप अपने आप खत्म हो जाएगा।
इस बात को वैसे भी खारिज किया जा सकता है कि तमाम वादों को मानने वाले जो रामायण, महाभारत और सनातन ग्रंथों को अस्वीकार करते आए हैं और उन्हें कहानी और मिथ मानते रहे हैं ऐसे में उसमें क्या लिखा है यह उनके लिए कोई मायने नहीं रखता है क्योंकि यह सब काल्पनिक है और हमारे देश में इन धार्मिक ग्रंथों से शासन चलाया भी नहीं जाता है और हम संविधान से शासित होते हैं और उसी व्यवस्था को मानते हैं जो संविधान सम्मत है और ऐसे में हमारे शास्त्रों में क्या लिखा है क्या सही गलत लिखा है उससे इन लोगों को परेशान होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि आपने न तो पढ़ा है, न पढ़ना चाहते हैं लेकिन समस्या यह है कि न जाने कहाँ से कुछ भी सुनकर ज्ञान देने लग जाते हैं।
खूब बोलिए बस थोड़ा सा पढ़ लीजिए, नहीं तो ढंग के लोगों से सुन लीजिए। अब इसके बाद भी अपनी हीनभावना से, कुछ लोग बाहर नहीं निकलना चाहते तो यह  राम जी कि ही मर्जी है
और यदि इसके बाद भी आप परेशान हैं तो सबसे पहले यह मानना पड़ेगा कि आप भी मानते हैं यह सारी पुस्तकें मान्यताएं, कथाएं सत्य हैं और हम सनातनी हिन्दू हैं 
🙏🙏🙏🙏

जय सियाराम जय श्री राम
बाकी अपने-अपने राम
🙏🙏🙏


रामचरित मानस के दोहे, चौपाई का परम ज्ञान रखने वालों से निवदेन है कि निंदा, आलोचना, प्रशंसा और बचाव करने वाले कृपा करके अपने बुद्धि का प्रदर्शन करने से पूर्व जिस बात का उल्लेख कर रहे हों उसका पहले संदर्भ अवश्य बताए कि यह बात किस अध्याय में है और यह कौन कह रहा है..
जैसे बीच से एक चोपाई..

पूजहिं.... (बाकी आप ढूंढिए)...

इसी को लीजिए...

यह चोपाई उत्तर कांड में है..

जहाँ काकभुसंडी सभी पक्षियों को रामकथा सुना रहे हैं और यह काकभुसंडी-गरूड संवाद है और यह बात काकभुसंडी  कह रहे हैं, जो कौआ होने के कारण खुद को हीन और दूसरों को श्रेष्ठ बता रहे हैं जिसका खंडन गरूड़ महराज करते हैं और पूरी बात न खुद को ब्राह्मण मानने वाले बताते हैं और अपने को दूसरी जाति का मानने वाले, इसमें एक समस्या यह है कि इनकी गलती भी नहीं है क्योंकि इनको पता ही नहीं है।

ऐसे में दलित-पिछड़ा कि राजनीतिक करने वालों कि लाटरी लग जाती है कि देखो हमारे खिलाफ क्या, कब से चल रहा है और ज़्यादातर लोगों को इसके पूरे संदर्भ से कुछ लेना देना नहीं रहता, बस छपास और दिखास चाहिए और दलित पिछड़ा एजेंडा वाले बड़ी आसानी से रामचरित मानस का ही विरोध करने लगते हैं और ऐसे में यह कापी पेस्ट वाले महानायक मुसीबत बन जाते हैं।

फिर वही घिस पीटा संवाद शुरू हो जाता है 
जवाब सभी लोग जानते हैं..पढ़ता  कोई नहीं है,..
और बिना पढ़े .. ????
चाहे कथित ब्राह्मण हों या कोई और...
अब राम जी ही बचाएं....

बस सबको एक ही सुझाव है C/P  करके अपने कमजोर कंधों पर पूरे जाति, धर्म, समाज और देश कि जिम्मेदारी मत उठाइए और इससे बचिए, क्योंकि कुछ हो या न हो लेकिन कंधा सुरक्षित रहना चाहिए और
कुछ कर सकते हैं तो कुछ ढंग का पढ़िए-लिखिए। यदि रामचरित मानस या किसी हिंदू धर्म ग्रंथ पर बहस करनी है तो पहले स्वयं अध्ययन करिए और खासतौर पर रामचरित मानस कि ही जहाँ तक बात है तो यह  आसान भाषा और बेहद कम मूल्य पर उपलब्ध है, अर्थ सहित पढ़िए, अच्छा लगेगा।
एक बात और आप किसी भी जानकार से सहजता से पूछ सकते हैं और बहस भी कर सकते और कुछ भी मानने के लिए बिलकुल बाध्य नहीं है और यही हमारी सबसे बड़ी ताकत है कि तब भी हम एक दुसरे को स्वीकार्य हैं अब इससे ज्यादा क्या चाहिए

तुलसीदास का ब्राह्मणवाद 

C/P

ए भी पढ़िए और तुलसी दास को ब्राह्मण द्रोही घोषित करिए...
तुलसीदास ने ब्राह्मणों की प्रशंसा में लिखा था:
"दूबर होत नहीं कबहूँ पकवान के विप्र मसान के कूकुर।"

इतनी कड़ी भर्त्सना शायद ही किसी और ने की हो! इतना काफ़ी न हो तो यह बानगी भी देखने की है:

"विप्र निरच्छर लोलुप  कामी,
निराचार  सठ बृषली  स्वामी।

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पाखण्डी ब्राह्मणों का सामान्यीकरण करते हुए उन्होंने यह भी कहा कि:

पण्डित सोइ जो गाल बजावा।

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दलित एजेंडा 

अगर आज बहुत से दलित पाखण्डी हैं, जातिवादी हैं, शोषक व्यवस्था के समर्थक हैं तो क्या तुलसीदास के समय ऐसे दलित नहीं थे? जो कवि पाखण्डी ब्राह्मणों-पुरोहितों की भर्त्सना करता है, उसे पाखण्डी दलितों की आलोचना का भी अधिकार है। लेकिन आरक्षण के लाभ उठाकर पीढ़ी दर पीढ़ी अपने ही समुदाय के गरीबों-वंचितों को लाभ से दूर रखने वाले इतने छुई-मुई हैं कि आलोचना से पिघल जाते हैं। हम तुलसीदास के समय के पाखण्डी ब्राह्मणवादियों की और अपने समय के पाखण्डी दलितवादियों की एक समान निंदा करते हैं।

ईमानदारी हो तो कहिए कि तुलसीदास ने ब्राह्मणों की जो निंदा की है, जिसमें से कुछ की बानगी ऊपर दी गयी है, वह ग़लत है। पर ईमानदारी होती तो पाँच सौ साल से तुलसी निंदकों की जमात में यह गिरोह शामिल न होता।

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जय सियाराम 



ए किसकी व्याख्या है और कहाँ से प्राप्त हुई है, यह ठीक से पता नहीं है। फिलहाल facebook और what's app का ज्ञान कह सकते हैं, जो काफी रोचक है। मुझे लगा यह अच्छा और संग्रहणीय है, इसलिए इसे यहाँ C/P कर रहा हूँ।
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"!! माता कैकेयी ने  भगवान राम जी के लिए चौदह वर्ष का ही वनवास क्यों माँगा था हमेशा के लिए क्यों नही माँगा ?
दो वर का तात्पर्य ईश्वर और जीव के मिलन तथा सहयोग से है। जब कैकेयी ने दुर्वासा की सेवा की और उन्हे प्रसन्न किया तो उन्होने एक अंग (हाथ) को बज्र होने का वरदान दिया और कहा हे कैकेय कन्या ! भविष्य में तुम ही होगी जो जीव और ईश्वर को एक कर सकती हो। तब उसने पूछा कि यह कब होगा ?
तब ऋषि ने कहा था कि देवासुर संग्राम में महाराज दशरथ की मदद करते समय काल प्रेरित हो कर दशरथ दो ही वरदान मांगने को कहेंगे पर तत्क्षण मत मांगना। ईश्वर तुम्हारी गोद में खेलेगा और तुम्हे  प्रेरित करेगा।तब तुम्हारे स्वप्न पूरे होंगे और वरदान तब माँगना।
उत्तर के प्रमाण हेतु कम्ब रामायण अवलोकन करें!!!!!
पुनश्च, दश इंद्रिय और  चार वृत्ति मिला के चौदह ही शुद्ध होती है और अयोध्या जैसे राज गद्दी पर वैठने वाला राजा जब तक चौदह वृत्तियो को शुद्ध नही करेगा तो राज सिंहासन पर विराज तो जायेगा पर राज नही चला पयेगा यह पहला कारण है।
एक तो रावण की उम्र सीमा समापन पर थी, दूसरी बात कि जिस समय भगवान राम विश्वामित्र जी के साथ सिद्धाश्रम को गए तो मार्ग में ताड़का का वध किया तो मरते समय ताड़का ने राम से कहा कि-- 'हे राम ! रघुवंशी कभी झूठ नहीं बोलते परंतु आज मेरे बध से तुम्हारा वंश झूठा साबित हो जायेगा।'तब प्रभु ने कहा कि क्यों।
तो उसने पुरानी कथा सुनाई जो इस प्रकार है उसने कहा, "राक्षस राज रावण को पता चल गया की कौशिल्या के पेट से जन्म लेने वाला बालक ही रावण की मृत्यु का कारण होगा। तो उसने कौशिल्या और दशरथ का विवाह नही होने देने के विचार से अपहरण करना चाहा लेकिन तब तक दशरथ जी चार फेरे ले चुके थे।
तो रावण जबरन उन्हें और सुमन्त को काठ की पेटी में बन्द करके समुद्र में डाल दिया और कौसल्या को सिंघल दीप पर छोड़ दिया जो कि लंका के समीप में था उसने सोचा भूख प्य्यास से मर जायेगी आखिर मानव  ही तो है।
पर मुझ ताड़का ने, अयोध्या (अवध जो किसी के द्वारा जीती नही जा सकती थी) पर राज्य करना चाहा और दशरथ के सुंदर रूप गुण युद्ध कौशल पर मोहित होने के कारण,  भूल से उन्हे काष्ठ पेटिका से निकाल कर सिंघल द्वीप पर ही ले गयी।

प्रसन्न हो कर दसरथ ने मुझसे कुछ मांगने को कहा तो मैंने उनकी पटरानी बनने की बात कही। महराज जी ने, वो स्थान किसी को दे चुका हूँ -- ऐसा कहा तो चौदह वर्ष की राज गद्दी मांग ली।
किंतु मेरी सिंहासन पाने की लालसा को तुमने मेरा वध करके अधूरी कर दिया।" तब राम जीने अपने वंश की कीर्ति बचाने के लिए शरभंग जी से निवेदन किया कि ताड़का के मस्तक के खोपड़ी की खड़ाऊं बना के देवें।जब तक वह तैयार होती, राम ने कैकेयी को प्रेरित करके बनवास मंगवा लिया। वही खड़ाऊं भरत जी चौदह वर्ष सिंहासन पर रखकर राज्य सेवा किये। कथा विस्तृत है।
14 वर्ष वनवास के चार कारण दिए गए हैं जो संकलित करके यहाँ प्रेषित है। शायद इससे कुछ सन्तुष्टि प्राप्त हो, यथा --
माता कैकयी ने महाराज दशरथ से भरत जी को राजगद्दी और श्री राम को चौदह वर्ष का वनवास माँगा | हो सकता हैं कि बहुत से विद्वानों के लिए ये साधारण सा प्रश्न हो।
लेकिन जब भी ये प्रश्न मस्तिष्क में आता हैं संतोष जनक उत्तर प्राप्त करने के लिए मन बेचैन हो जाता हैं | प्रश्न ये हैं की श्री राम को आखिर चौदह वर्ष का ही वनवास क्यों ? क्यों नहीं चौदह से कम या चौदह से ज्यादा ?

भगवान् राम ने एक आदर्श पुत्र, भाई, शिष्य, पति, मित्र और गुरु बन कर यही दर्शाया की व्यक्ति को रिश्तों का निर्वाह किस प्रकार करना चाहिए। राम का दर्शन करने पर हम पाते है कि अयोध्या हमारा शरीर है जो कि सरयू नदी यानि हमारे मन के पास है. अयोध्या का एक नाम अवध भी है ,(अ वध) अर्थात जहाँ कोई या अपराध न हों।
जब इस शरीर का चंचल मन सरयूजल-सा शांत हो जाता है और इससे कोई अपराध नहीं होता तो ये शरीर ही अयोध्या कहलाता है। शरीर का तत्व (जीव), इस अयोध्या का राजा दशरथ है। दशरथ का अर्थ हुआ वो व्यक्ति जो इस शरीर रूपी रथ में जुटे हुए दसों इन्द्रिय रूपी घोड़ों (५ कर्मेन्द्रिय ५ ज्ञानेन्द्रिय) को अपने वश में रख सके।
तीन गुण सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण दशरथ की तीन रानियाँ कौशल्या, सुमित्रा और कैकई हैं। दशरथ रूपी साधक ने अपने जीवन में चारों पुरुषार्थों धर्म, अर्थ काम और मोक्ष को राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के रूपमें प्राप्त किया था।
तत्वदर्शन करने पर हम पाते है कि धर्मस्वरूप भगवान् राम स्वयं ब्रह्म हैं। शेषनाग भगवान् लक्ष्मण वैराग्य है, माँ सीता शांति और भक्ति है और बुद्धि का ज्ञान हनुमान जी हैं। रावण घमंड, कुभंकर्ण अहंकार, मारीच लालच और मेंघनाद काम का प्रतीक है। मंथरा कुटिलता, शूर्पनखा काम और ताडका क्रोध है।
चूँकि काम, क्रोध और कुटिलता ने संसार को वश में कर रखा है इसलिए प्रभु राम ने सबसे पहले क्रोध यानि ताडका का वध ठीक वैसे ही किया जैसे भगवान् कृष्ण ने पूतना का किया था । नाक और कान वासना के उपादान माने गए है, इसलिए प्रभु ने शुपर्नखा के नाक और कान काटे ।
भगवान् ने अपनी प्राप्ति का मार्ग स्पष्ट रूप से दर्शाया है। उपरोक्त भाव से अगर हम देखें तो पाएंगे कि भगवान् सबसे पहले वैराग्य (लक्ष्मण) को मिले थे, फिर वो भक्ति (माँ सीता) से और सबसे बाद में ज्ञान (भक्त शिरोमणि हनुमान जी) के द्वारा हासिल किये गए थे।
जब भक्ति (माँ सीता) ने लालच (मारीच) के छलावे में आ कर वैराग्य (लक्ष्मण) को अपने से दूर किया तो घमंड (रावण) ने आ कर भक्ति की शांति (माँ सीता की छाया) हर ली और उसे ब्रह्म (भगवान्) से दूर कर दिया।
भगवान् ने चौदह वर्ष के वनवास के द्वारा ये समझाया कि अगर व्यक्ति युवावस्था में चौदह [पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (कान, नाक, आँख, जीभ, त्वचा), पांच कर्मेन्द्रियाँ (वाक्, पाणी, पाद, पायु, उपस्थ), तथा मन, बुद्धि,चित और अहंकार] को वनवास (एकान्त आत्मा के वश) में रखेगा तभी प्रत्येक मनुष्य अपने अन्दर के घमंड या रावण को मार पायेगा।
रावण की आयु में 14 ही वर्ष शेष थे। प्रश्न उठता है कि ये बात कैकयी कैसे जानती थी ? ये घटना घट तो रही थी अयोध्या में, परन्तु योजना देवलोक की थी। कोप भवन में कोप का नाटक हुआ था, त्रिया चरित्र का। सत्य यह था कि राजमुकुट को बाली से वापस लाने की दोनों में मन्त्रणा हुई थी।
कैकेयी को राम पर भरोसा था, किंतु दशरथ को नहीं। इसलिए वे पुत्रमोह में प्राण गँवाए। और कैकेयी बदनाम हुईं।-- अजसु पिटारी तासु सिर,गई गिरा मति फेरि। सरस्वती ने मन्थरा की मति में अपनी योजना की कैसेट फिट कर दी। उसने कैकयी को वही सब सुनाया, समझाया और कहने को उकसाया जो सरस्वती को इष्ट था।
इसके सूत्रधार हैं स्वयं श्रीराम। वे ही निर्माता निर्देशक तथा अभिनेता हैं --सूत्रधार उर अन्तरयामी।। मेघनाद को वही मार सकता था जो 14 वर्ष की कठोर साधना सम्पन्न कर सके, जो निद्रा को जीत ले, ब्रह्मचर्य का पालन कर सकें।
यह कार्य लक्ष्मण द्वारा सम्पन्न हुआ। आप कहेंगे वरदान में लक्ष्मण थे ही नहीं तो इनकी चर्चा क्यों ? परन्तु भाई राम के बिना लक्ष्मण रह ही नहीं सकते। श्रीराम का यश यदि झंडा है तो लक्ष्मण उस झंडा के डंडा हैं, बिना डंडा के झंडा कैसे टिकेगा ?

माता कैकयी यथार्थ जानती है। जो नारी युद्ध भूमि में दशरथ के प्राण बचाने के लिये अपना हाथ रथ के धुरे में लगा सकती है, रथ संचालन की कला में दक्ष है, वह राजनैतिक परिस्थितियों से अनजान कैसे रह सकती है ?
मेरे राम का पावन यश चौदहों भुवनों में फैल जाये। यह विना तप के और विन रावण वध के सम्भव न था। अतः मेरे राम केवल अयोध्या के ही सम्राट् न रह जाये विश्व के समस्त प्राणियों हृदयों के सम्राट बनें। उसके लिये अपनी साधित शोधित इन्द्रियों तथा अन्तःकरण को तप के द्वारा तदर्थ सिद्ध करें।

सारी योजना का केन्द्र राक्षस वध है अतः दण्डकारण्य को ही केन्द्र बनाया गया। महाराज अनरण्य के उस शाप का समय पूर्ण होने में 14 ही वर्ष शेष हैं। जो शाप उन्होंने रावण को दिया था कि मेरे वंश का राजकुमार तेरा वध करेगा।
वैसे भी जितने भी वध हुए हैं, सब आततायी की आयु की पूर्णता पर ही हुए है।अतः यहाँ रावण की १४ वर्ष आयु के अवशिष्टता पर संशय करना अनुचित है। पुनश्च लोभ या अहंकार रूप रावण का नाश एक साधक ही कर सकता है और वह साधक श्रीराम ने तपस्वी बन कर दिखा दिया।
ब्राह्मणत्त्व की चर्चा में हम कह चुके हैं कि जीवन ज्ञान के उत्कर्ष का ही दूसरा नाम है। राम ने मनुष्य की सीमा में ही कर्त्तव्य का सम्पादन किया। उन्होने सिद्ध किया कि ज्ञान के अभ्युदय में साधना मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार के विविध संख्यक सोपानों को उत्तीर्ण करते हुए ही पंचमकोष अहंकार के द्वार को खोल कर ब्रह्म—पुच्छ प्रतिष्ठा का सायुज्य प्राप्त करने में समर्थ होती है।
मन के ७, बुद्धि के १४, चित्त के १०८ सोपानों को उन्होने तपश्चरण द्वारा लाँघ कर ही रावण का वध किया और स्वयं अवध (अवध्य) पद को प्राप्त किया। यहाँ मन की ७ विवाह पूर्व सिद्धियाँ थी जिनसे वे वानप्रस्थ तप में प्रवृत्त हो सके। वान तपस्या में १४ सोपान लाँघ कर रावण को मार सके।
इसप्रकार साधना की रीति को प्रत्यक्ष सिद्ध करके दिखा दिया। परंतु यह सिद्धि भी शान्ति(सीता) की प्राप्ति तक ही अभीष्ट थी। शान्ति को धारण करते ही भीतर से आनंद रूप राम का अभ्युदय हुआ। !!"


इन विवादों का एक फायदा यह है कि इसी बहाने कुछ लोग ही सही पढ़ेगे...
और कहां कहां किस पुस्तक में तुलसी दास के अलावा अन्य कवियों ने भी पांच छः सौ साल पहले आज कि दलित पिछड़े आदिवासी और महिलाओं के बारे में ऐसा कुपाठ किया उससे भी अवगत कराएं तो प्रसन्नता होगी। बस एक कृपा कि आवश्यकता है कि सभी का देश काल और संदर्भ अवश्य बताएं और इस विमर्श कोशिश को और धार देने के लिए अन्य धर्म ग्रंथों की लाइनों को भी ऐसे ही समझाइए 
🙏🙏🙏 


हमारे राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम है मरा मरा करने वाले भी उन तक पहुंच जाते हैं, सवाल जवाब तर्क कुतर्क से परेशान मत होइए, थोड़ा पढ़िए, सुनिए, संगत करिए इसके बाद आपने कुछ सीखा, समझा हो तब बोलिए और बयानबाजों को किताबें भेंट करनी चाहिए क्योंकि ज्यादातर कुपढ़े होते हैं और उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करनी चाहिए
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जाति विमर्श 

300 वर्ष तक भारत के बड़े भूभाग पर राज करने वाले होलकर की जाति से आने वाले धनगर और सिंधिया के कुनबे वाले आज पिछड़े हैं।

वहीं उन महाराजा विक्रमादित्य हेमराज तेली के वंशज आज पिछड़े हैं जिन्होंने अखंड भारत पर राज किया..!

वह मौर्य साम्राज्य आज पिछड़ा दलित है, जिनके वंशजों ने पीढ़ियों तक बंगाल की खाड़ी से लेकर पर्शिया की सीमा तक अखंड भारतवर्ष पर राज किया।

महापद्मनंद और धनानंद का वंशज नाई समुदाय आज पिछड़ा है। जो भारत के सबसे शक्तिशाली राजे होते थे !

हिंदुओं के सबसे पवित्र ग्रंथ रामायण के रचियता और श्री राम की अर्धांगिनी माता सीता को अपने आश्रम में शरण देने वाले, श्री राम के पुत्रों लव कुश का पालन पोषण और उनको शिक्षित करने वाले महर्षि वाल्मीकि के वंशज आज अछूत कैसे हो गए या हो सकते हैं!

महर्षि वेद व्यास की माता व मछुआरा समुदाय से आने वाली रानी सत्यवती के वंशज भी आज पिछड़े हैं। जिनके 
बच्चे हस्तिनापुर पर राज करने वाले कौरव और पांडव अखंड भारत के सबसे महान योद्धा और चक्रवर्ती सम्राट थे।

उस आदिवासी कन्या शकुंतला का समुदाय भी आज अनुसूचित जनजाति में काउंट होता है जिनके पुत्र "भरत" के नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। महर्षि वेद व्यास, महर्षि वाल्मीकि, आचार्य विदुर, सम्राट चंद्रगुप्त, सम्राट अशोक जैसे और भी अनेका अनेक उदाहरण हैं.... जिनके वंशज/स्वजातीय लोग आज स्वयं को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ा वर्ग का बताकर अपने साथ शोषण, दमन और अत्याचार हुआ बताते हैं।

अब सवाल ये उठता है कि...क्या इतने लंबे समय तक राज करने वाले इन वर्गों के राजाओं ने अपनी ही जात, बिरादरी वालों पर स्वयं ही अत्याचार होने दिया या उन को पढ़ने/बढ़ने नही दिया !! हजारो वर्षों से अनपढ़, गंवार व शोषित बनाये रखा !

भगवान कृष्ण के वंशज होने का दावा करने वाले, आज भी बड़ी बड़ी जमीन जायदाद वाले, हर तरह से संपन्न यदुवंशी अंततः पिछड़े कैसे हो गए !!

मध्य काल में बहराइच से नेपाल तक बड़े भूभाग पर राज करने वाले पासी आखिर दलित कैसे हो गए !!

मध्यकाल में प्रसिद्ध पाल वंशी राजाओं के वंशज कैसे पिछड़े हो गए !!

इतिहास में चंवर वंशी राजाओं का जिक्र है जो आज दलित कहे जाते हैं।

गौर, गुर्जर, मीणा, जाट, वर्मा, गोंड आदि वर्ग के राजा बड़े लम्बे समय तक शासक रहे हैं। देश के इतिहास में इनकी छाप है। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि मुगल आक्रांताओं के शासन काल, उसके बाद अंग्रेजी शासन की गुलामी के बाद ये सारे वर्ग विभाजित होकर वंचित, शोषित और पीड़ित कहलाने लगे.... क्या किसी ने यह विचार किया कि कहीं विदेशी आक्रांताओं ने ही हिंदू सनातन समाज में फूट डालने के लिए ये तो नहीं किया?

परतंत्रता से निकलने के बाद विभाजन की दोधारी तलवार से समस्त हिंदु समाज को काटने की रणनीति के चलते ही 1947 के बाद इस खाई को और गहरा किया गया! अन्यथा यह कैसे संभव है कि तुम लंबे समय तक राज भी करो और विदेशी नेक्सस जाल में फंसकर विक्टिज़्म भी बन जाओ... और राजा बनने के बाद भी क्या आपके स्वजातीय राजा अपनी जात/बिरादरी के साथ ऐसा ही करते रहे कि वो अनपढ़/गंवार/मूर्ख/पिछड़ा/दबा/कुचला ही बना रहे !!

सैकड़ों वर्षो तक अखंड भारत पर राज करने के बाद भी तुम अपनी जाति का उद्धार नहीं कर सके तो इसमें दोष ब्राह्मण और हिन्दू धर्मशास्त्र को क्यों देते हो !! 
एक बार स्वयं की ओर झांक कर भी देखो..!

सोचिएगा जरूर।


असुर, दैत्य, दानव, राक्षस, पिशाच और बेताल में क्या अंतर है?

"हिन्दू धार्मिक कथाओं को पढ़ते कई बार असुर, दैत्य, दानव, राक्षस, पिशाच और बेताल का वर्णन आता है। आम तौर पर हम इन सभी को एक ही मान लेते हैं और इसका उपयोग एक पर्यायवाची शब्द के रूप में करते हैं, किन्तु ये सभी अलग-अलग हैं। आइये इन सभी के बीच के अंतर को जान लेते हैं।

इनमें से एक "असुर" तो एक प्रतीकात्मक शब्द है। "जो सुर नही है वो असुर है।" अर्थात - जो कोई भी देवता नही है वो सभी असुर कहलाते हैं। किंतु इस वाक्य में देवता का अर्थ बहुत व्यापक है। मूल रूप से देवता केवल १२ हैं जिन्हें हम आदित्य कहते हैं। महर्षि कश्यप और दक्षपुत्री अदिति के गर्भ से उत्पन्न १२ पुत्र ही आदित्य अथवा देवता कहलाते हैं। 

किन्तु यहाँ देवता का अर्थ सभी ३३ कोटि देवता, उप-देवता, यक्ष, गन्धर्व इत्यादि है। ये सभी सम्मलित रूप से "सुर" कहलाते हैं। तो इस प्रकार दैत्य, दानव, राक्षस, पिशाच, बेताल इत्यादि को भी हम असुर कह सकते हैं। सदैव स्मरण रखें कि असुर कोई अलग जाति नही अपितु उन सभी जातियों के लिए एक प्रतीकात्मक शब्द है जो सुर अर्थात देवता नही हैं।

अन्य सभी अलग अलग जातियाँ हैं। इन सभी के पिता मरीचि पुत्र महर्षि कश्यप हैं। महर्षि कश्यप ने ब्रह्मापुत्र प्रजापति दक्ष की १७ कन्याओं से विवाह किया जिससे समस्त जातियाँ उत्पन्न हुई। ये सभी भी उन्ही में से एक हैं। आइये इनके विषय में संक्षेप में जान लेते हैं।
दैत्य: महर्षि कश्यप और दक्ष की पुत्री दिति के पुत्र दैत्य कहलाये। इस प्रकार ये देवताओं (आदित्यों) के छोटे भाई हुए। कश्यप और दिति के दो पुत्र - हिरण्यकश्यप एवं हिरण्याक्ष हुए जहाँ से दैत्य जाति का आरम्भ हुआ। इन्ही के गुरु भृगु पुत्र शुक्राचार्य थे। इन दोनों की होलिका नामक एक पुत्री भी हुई। हिरण्याक्ष का वध भगवान वाराह ने किया। हिरण्याक्ष का पुत्र ही कालनेमि था जिसने द्वापर तक श्रीहरि के सभी अवतारों से प्रतिशोध लिया और बार बार उनके हाथों मारा गया। बड़े भाई हिरण्यकशिपु के सबसे छोटे पुत्र प्रह्लाद थे जो महान विष्णु भक्त हुए। उन्ही को मारने के प्रयास में होलिका मारी गयी। होलिका का पुत्र स्वर्भानु था जिसे हम राहु केतु के नाम से जानते हैं। अंत में अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा हेतु नारायण ने नृसिंह अवतार लेकर हिरण्यकश्यप का वध कर दिया। प्रह्लाद के पुत्र विरोचन हुए और विरोचन के पुत्र दैत्यराज बलि हुए। इन्ही बलि को श्रीहरि ने वामन रूप लेकर पराभूत किया और पाताल का राज्य दे दिया। इन बलि के पुत्र महापराक्रमी बाण हुए जो महान शिवभक्त हुए। कालांतर में इन्हें श्रीकृष्ण ने परास्त किया और इनकी पुत्री उषा श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध से ब्याही गयी। बलि की पुत्री वज्रज्वला रावण के भाई कुम्भकर्ण से ब्याही गयी। इनके कुल का भी अनंत विस्तर हुआ।
दानव: ये दैत्यों और आदित्यों के छोटे भाई थे जिनकी उत्पत्ति महर्षि कश्यप और दक्षपुत्री दनु से हुई। दानवों के ११४ कुल चले जिनमें से ६४ मुख्य माने जाते हैं। ये आकार में बहुत बड़े होते थे और बहुत बर्बर माने जाते थे। ये दैत्य और राक्षसों की भांति उतने सुसंस्कृत नही होते थे। पहली पीढ़ी के दानवों में विप्रचित्ति प्रमुख है जो होलिका का पति था। मय दानव को तो सभी जानते हैं जो असुरों के शिल्पी थे। इन्ही की पुत्री मंदोदरी रावण की पट्टमहिषी थी। इसके अतिरिक्त कालिकेय दानवों का वंश भी बहुत प्रसिद्ध था। कालिकेय कुल में जन्मा विद्युतजिव्ह ही रावण की बहन शूर्पणखा का पति था। बाद में रावण ने युद्ध में उसका वध कर दिया और शूर्पणखा को दंडकवन का राज्य प्रदान किया। दानवों में वृषपर्वा का नाम भी बहुत प्रसिद्ध है जो ययाति की दूसरी पत्नी शर्मिष्ठा के पिता थे।
राक्षस: ये सभी असुरों में सबसे सुसंस्कृत और विद्वान माने जाते हैं। इनकी उत्पत्ति की दो कथा प्रसिद्ध है। एक कथा के अनुसार महर्षि कश्यप और दक्षपुत्री सुरसा के पुत्र ही राक्षस कहलाये। हालांकि राक्षसों की उत्पत्ति की दूसरी कथा ही अधिक मान्य है जिसके अनुसार ब्रह्मा जी के क्रोध से हेति और प्रहेति नामक दो असुरों का जन्म हुआ और वही से राक्षस वंश की शुरुआत हुई। प्रहेति तपस्वी बन गया और हेति ने यमराज की बहन भया से विवाह किया जिससे उसे विद्युत्केश नामक पुत्र प्राप्त हुआ। विद्युत्केश की पत्नी सलकंटका थी जिससे उसे सुकेश नामक पुत्र हुआ, जिसे उसने त्याग दिया। तब माता पार्वती ने उसे गोद ले लिया और वो शिव पुत्र कहलाया। सुकेश ने देववती से विवाह किया जिससे उसे तीन पुत्र प्राप्त हुए - माल्यवान, सुमाली एवं माली। सुमाली के १० पुत्र और ४ पुत्रियां हुई जिनमें से एक कैकसी थी। कैकसी ने ब्रह्मा के पौत्र और महर्षि पुलस्त्य के पुत्र विश्रवा से विवाह किया जिससे रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण पैदा हुए। रावण की दो पत्नियों - मंदोदरी और धन्यमालिनी से ७ पुत्र हुए जिनमें मेघनाद ज्येष्ठ था। कुम्भकर्ण के वज्रज्वला से कुम्भ एवं निकुम्भ नामक पुत्र हुए। उसनें एक विवाह विराध राक्षस की विधवा कर्कटी से भी किया जिससे भीम नामक पुत्र हुआ। इसी पुत्र को मारकर भगवान शंकर भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में स्थापित हुए। विभीषण की पत्नी सरमा से एक पुत्री त्रिजटा हुई। कैकसी की एक पुत्री शूर्पणखा हुई जो विद्युतजिव्ह से ब्याही जिसका वध रावण ने कर दिया। दुर्भाग्य से विभीषण को छोड़ सभी राक्षसों का वध लंका युद्ध में हो गया। राक्षस वंश के बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ें।
पिशाच: इनका वर्णन हिन्दू ग्रंथों में थोड़ा कम मिलता है किन्तु कुछ ग्रंथों के अनुसार पिशाच महर्षि कश्यप और दक्षपुत्री क्रोधवर्षा के पुत्र माने जाते हैं। इनके अतिरिक्त सर्पों और अन्य विषैले जीव की उत्पत्ति भी क्रोधवर्षा से ही हुई। पुराणों में इन्हे मांसभक्षी बताया गया है जो रक्त का पान करते हैं। अन्य सभी असुर भी निशाचर होते थे किन्तु पिशाचों को पूर्ण रूप से निशाचर ही माना गया है। ये इच्छाधारी होते थे और किसी भी रूप को धारण कर सकते थे। पश्चिमी संस्कृति में "वैम्पायर" का जो वर्णन किया जाता है वो वास्तव में हमारे पिशाच का ही स्वरुप है। 
बेताल: पिशाचों में जो सर्वाधिक शक्तिशाली होते थे उन्हें ही बेताल कहा जाता है। कई स्थानों पर इन्हे पिशाचों का स्वामी भी बताया गया है। शैव धर्म में इन्हे भगवान शंकर का गण और कई स्थानों पर उनका वाहन भी कहा गया है। कुछ स्थानों पर इन्हे माँ शांतादुर्गा का भाई भी माना गया है। ये काल भैरव के भक्त और सेवक के रूप में नियुक्त होते थे। बेतालों में ही एक शाखा "अग्नि बेताल" की मानी गयी है जो माता काली के भक्त थे। गोवा के अमोना गांव में बेताल स्वामी का विश्व प्रसिद्ध मंदिर है। 
तो इस प्रकार दैत्य, दानव और राक्षसों के कुल में आपसी विवाह तो हुए ही, साथ ही इनके कुल की कन्याओं ने मानवों से भी विवाह किया। दानवराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा ने एक मानव ययाति से विवाह किया और उनसे ही समस्त राजवंश चले। राक्षस कुल में जन्मी हिडिम्बा का विवाह भीम से हुआ। श्रीकृष्ण का पड़पोता वज्र भी माता की ओर से दैत्यकुल का ही था। ऐसे ही कई और उदाहरण हमें पुराणों में देखने मिलते हैं।
#बाबा_कॉपीपेस्टाचार्य






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Comments

  1. इस दुनिया को,
    आबाद रखने की यही शर्त है,
    इसका खारापन सोखने को,
    हमारे पास,
    एक समुंदर हो।

    ReplyDelete
  2. प्रभु भल कीन्ह मोहिसिख दीन्ही,
    मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।
    ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी,
    सकल ताड़ना के अधिकारी ।। 3।।

    अर्थ -

    प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी
    अर्थात दंड दिया
    किंतु मर्यादा (जीवो का स्वभाव)
    भी आपकी ही बनाई हुई है
    ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री
    यह सब शिक्षा के अधिकारी हैं..

    ReplyDelete
    Replies
    1. दुनिया के रंग देखो भइया
      कितनी रंग बिरंगी है
      शातिर है यह खेल उसी का
      और वही खिलाड़ी है

      Delete

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