पुजारी
"पंडित, ब्राह्मण, ब्राह्मणवाद"
क्या आप लोगों ने इस बात पर गौर किया है कि अधिकतर जो बड़े-बड़े बाबा लोग (धार्मिक माफिया) हैं उनमें जाति से ब्राह्मण बहुत ही कम हैं और लोगों को ए भी पता नहीं है कि ब्राह्मण समाज में पूजा-पाठ या फिर दान लेकर जीवन यापन करने वालों को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता और ज्यादातर ब्राह्मण मूलतः शिक्षित, अर्द्ध शिक्षित किसान हैं। इलाहाबाद में माघ मेले के दौरान अखाडों का थोड़ा नजदीक से आकलन करने पर संन्यास ग्रहण करने वालों में बहुत कम लोग, जाति से ब्राह्मण होते हैं। इसी तरह साधू और ब्राह्मण के भेष में भीख माँगने वालों में अन्य जातियों के लोग ही ज्यादा होते हैं। यह साहित्य, सिनेमा और राजनीतिक लक्ष्यों का बनाया प्रोपेगैंडा मात्र है। जबकि सर्वाधिक नास्तिक, वामपंथी और समाजवादी लोग भी इसी समाज से हैं और जो कथित ब्राह्मणवाद है उसकी हर जगह अपनी व्याख्या है वह भी राजनीतिक ज्यादा है। हम तो कहीं नहीं देखते किसी पुजारी से उसकी जाति पूँछी जाती हो, हाँ पूजा प्रार्थना कराने वाले को पंडित जी, गुरू जी का सम्बोधन तो मिलता ही है और उनको शहरी समाज में ब्राह्मण कह दिया जाता है। शहरों में तो वैसे भी सिर्फ एक यूनीफाॅर्म पहनना होता है, महज दिन भर की मजदूरी पर चाहे जो काम करवा लो खाना बनाने, परोसने से लेकर सफाई तक करने वाला एक ही आदमी है "दिहाडी मजदूर" जिसकी शहर में कोई जाति नहीं है। इस बात को अगर आप परखना चाहते हैं तो आपको जाति की जटिलता को थोड़ा सा समझना होगा और अब आप उस कथित ब्राह्मण पुजारी से बात करके देख लीजिए, वह शायद ही ब्राह्मण जाति का निकले , बस दो मिनट में फंस जाएगा, हर जगह वही रोजी रोटी का खेल है।
अब चलिए दूसरा पक्ष देखा जाय तो आज भी हमारे समाज में छुआछूत और जाति की सच्चाई बनी हुई है तो इसका मूल कारण राजनीति में जाति की भूमिका है जिसमें यह एक बड़े समूह के रूप में निर्णायक वोट बैंक का काम करता है और ऐसे में लोग खुद को किसी खास दायरे में बंधकर संगठित होने को अपनी सुरक्षा और अस्मिता को बचाने की गारंटी मान बैठते है। इन संगठनों का उद्देश्य किसी प्रकार की शिक्षा या जागरूकता का प्रसार करना नहीं होता, बल्कि इसी तरह के किसी दूसरी कथित चेतना वाले संगठन के साथ संघर्ष करना होता है और इस तरह का सामाजिक तनाव बनते ही जातीय, धार्मिक बोध और मजबूत होने लगते हैं और बुरा तब होता है जब शिक्षित, समझदार लोग भी इन गिरोहों के प्रभाव में आने लग जाते हैं।
हमारे बीच दो तरह की छुआछूत है, पहला जटिल ग्रामीण जातीय व्यवस्था जहाँ एक छोटी सी आबादी रहती है और सभी लोग एक दूसरे को जानते हैं यहाँ कि जाति व्यवस्था तब तक सही चलती रहती है जब तक छोटी जाति के लोग खुद को छोटा मानकर उसी के अनुरूप व्यहार करते रहते हैं जैसे ही वो अपने हक की बात करते है, वैसे ही व्यवस्था को नियंत्रित करने वालों के सामने संकट आने शुरू हो जाते है। शहरों में भी एक तरह की छुआछूत है जो सम्पन्न-गरीब या फिर सरकारी कार्यालयों में उच्च श्रेणी के कर्मचारियों का निम्न श्रेणी के कर्मचारियों के साथ किया जाने वाला व्यवहार भी देखा जा सकता है, जो एक किस्म का परिष्कृत छुआ छूत ही है।
रही बात मंदिरों की, जिनमें जाति, धर्म के आधार प्रवेश वर्जित होता है तो वो आमतौर पर व्यक्तिगत मंदिर हुआ करते हैं, जैसे कि हमारा घर, जिसमें सिर्फ हमारी मर्जी से हमारे लोग ही आ सकते हैं और इन व्यक्तिगत मंदिरों में परिवार के अलावा सजातीय लोग भी बिना अनुमति के नहीं आ सकते। अपने यहाँ हर आदमी को अपना देवता गढ़ने और पूजा पद्धति विकसित करने की हमेशा छूट रही है। इसी वजह से इतनी विविधता है कि हिन्दू की बाकी धर्मों की तरह कोई एक विचार से नहीं बाँध सकते हैं। इसी कारण वेटिकन, या .. ... जैसी कोई व्यवस्था नहीं है जिसमें किसी शहर या क्षेत्र का कोई एक धर्म स्थल या गुरु होता हो, सबको पूरी छूट है आप चाहें तो रैदास या रामानंद को गुरू बनाएँ आपकी मर्जी, बैजू बनने की पूरी छूट है। आमतौर पर ब्राह्मण वाद की आलोचना में, खासतौर पर दलित चिंतको द्वारा दलित उत्पीड़न को तो जोरदार तरीके से उठाया जाता है, परंतु महिला उत्पीड़न की चर्चा नहीं की जाती, जबकि उसी ब्राह्मण ग्रंथ (म.सं.) में स्त्री को शूद्रों के समान ही माना गया है। रही बात ब्राह्मण वाद की तो इसका किसी भी रूप में समर्थन नहीं होना चाहिए क्योंकि यह एक मानसिकता है जिसके विकार से सक्षम होने वाला अधिकांश भारतीय ग्रसित हो ही जाता है। वैसे मित्र कुछ अब्राह्मण पंडितों के नाम- बाबा रामदेव, आसाराम बापू, योगी आदित्य नाथ, .... कूछ अन्य जन्म से अब्राह्मण, महर्षि वाल्मीकि, वेद व्यास (धृतराष्ट्र, पांडु, विधुर नियोग से उत्पन्न इन्हीं की संतान थे) .. आगे भी असहमति का स्वागत है।
हाँ एक बात और मंदिरों में सिर्फ ब्राह्मण पुजारी नहीं होते शैव और शाक्त मंदिरों में अधिकांशतः अब्राह्मण ही पुजारी होते हैं चाहे तो पता कर लीजिए, उनमें अधिकांशतः OBC/SC जातियों के लोग होते हैं, इसका परंपरागत कारण यह है कि ब्राह्मण खान पान में सात्विक और शाकाहारी होता है जबकि इन पूजा स्थलों की पूजन विधि थोड़ी भिन्न होती है। ब्राह्मण पुजारी मूलतः वैष्णव मंदिरों में होते हैं। वह भी अध्ययन की एक बहुत लम्बी प्रक्रिया के बाद ही बन पाते हैं। इसी प्रक्रिया में संन्यासी बनना तो इससे भी कठिन होता है। अब कोई संन्यास ग्रहण करने के बाद इसके इतर किसी और तरह का व्यवहार करता है तो यह हर व्यवसाय और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार जैसा ही है इसको भी ईसी तरह से देखा जाना चाहिए। हममें से ज्यादातर लोग यह नहीं जानते कि संन्यास ग्रहण करने वाला व्यक्ति जब जंम से प्राप्त अपने सभी रिश्ते नातों का त्याग कर देता और अपना पिंडदान वह स्वयं करता है कि आज से मैने जिस समाज में जन्म लिया था उसके लिए मर गया और ऐसा करते ही वह जन्म से प्राप्त सभी पहचान (जातिऔर धर्म भी) से मुक्त हो जाता है और तभी उसे एक नया नाम दिया जाता है और पिता के नाम की जगह गुरु का नाम उसके नाम के साथ जुड़ जाता है। इसको हम योगी आदित्यनाथ जी के उदाहरण से समझ सकते हैं। वह नाथ पंथ के संन्यासी हैं इसी वजह से उनके नाम में नाथ लगा है और संन्यास ग्रहण करने के बाद उन्होंने अपने परिवार से कोई संबंध नहीं रखा यह सच्चाई है। मतलब कोई भी व्यक्ति संन्यासी बन सकता है। आप रामायण, महाभारत के चरित्रों के नाम देखिए इनमें क्या कोई जातिसूचक शब्द लगा है। इसका अर्थ यही है कि यह प्रत्येक व्यक्ति के सामर्थ्य और संघर्ष पर निर्भर करता है कि वह कौन सा वर्ण धारण करता है। निषाद राज जो राम के साथ गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करता है उसे आज का राजनीतिक दलित मानना राजनीतिक विमर्श के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता।
खैर मकसद ब्राह्मणों का गुणगान करना नहीं है। वैसे भी हमें जो जात, धर्म मिला है उसमें हमारा कोई योगदान नहीं है। जहाँ तक हिन्दुओं में जाति के आधार पर श्रेष्ठ होने की बात है तो वाल्मीकि और वेद व्यास का स्मरण कर लेना चाहिए । इसी तरह धर्म के नाम पर उग्र और हिंसक होने वाले तमाम लोगों खासतौर पर खुद को "गर्व से हिन्दू कहने वालों" को एक बार आदि गुरु शंकराचार्य को याद करना चाहिए कि ज्ञान कि ताकत ही सबसे बड़ी ताकत क्यों है तो इसका तुरंत जवाब मिल जाएगा। समाज में आगे-पीछे, कम-ज्यादा होने का मूल कारण ज्ञान (knowledge) ही है क्यों कि "ज्ञान ही शक्ति है" (knowledge is power) इससे भला किसे इंकार हो सकता है। जिसे हासिल करने के लिए व्यक्तिगत और सामूहिक दोनों ही स्तरों पर प्रयास होना चाहिए। परंतु ज्ञान हासिल करते ही दूसरी समस्या उठ खड़ी होती है उस व्यक्ति का ब्राह्मणी करण शुरू हो जाता और वह भी अंततः ब्राह्मण ... हाय रे ... दुर्भाग्य ..
rajhansraju
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ब्राह्मणवाद को सही से हमारे सामने रखने के लिए आभार
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