कैसा सच? किसका सच?


पूरा सच... आधा सच .. सच के पहले और बाद का सच, इन सबके बाद भी सच का पता नहीं चलता कि आखिर किस बात को सच बनाया जा रहा है और जो मीडिया में दिखाया, बताया जा रहा है। वह तर्क, बुद्धि से परे निश्चित रूप से अविश्वसनीय है। उसका फोकस सिर्फ बाजार है और बाजार का संबंध मुनाफा से है। इसी कारण वह एक ही समय में beauty product, religion और आतंकवाद सबको दिखाता है क्योंकि सब कुछ बिक रहा है। बाजार में सबके लिए जगह है, बस उसकी packaging अच्छी होनी चाहिए। यह हो भी रहा है। पूरी दुनिया में आतंकवाद एक बड़ा व्यवसाय है, जो हथियारों की खरीद फरोख्त का पूरी तरह विकेन्द्रित तरीका है। जिसमें आतंकी संगठन पूरी तरह private company की तरह व्यवहार करते हैं और उसके सारे आदर्श मालिक के पक्ष में होते हैं। यह संगठन तब और अधिक सक्रिय हो जाते हैं, जब वह किसी खनिज संपदा वाले क्षेत्र पर काबिज हों या फिर इस जगह का सामरिक महत्व हो। तब तो वहाँ के लोगों की खैर नहीं और सच का अजब-गजब projection शुरू हो जाता है। किसका सच, कौन सा सच, सब प्रायोजित।
         खैर ज्यादातर लोग, जो इस तरह की गतिविधियों में शामिल होते हैं वो लोग बेमकसद ही होते हैं और थोड़े से मजे और रोमांच की चाहत में पागलपन की हरकते करने लगते हैं। जिसकी न तो कोई आवश्यकता होती है और न उस व्यक्ति के लिए ही कोई उपयोग होता है। वैसे ही जैसे पाँच सौ करोड़ की अधिक की सम्पत्ति जमा करने वाले वरिष्ठ अधिकारी, जो अपने जीवन काल में यह पैसा खर्च ही नहीं कर सकता ... वजह- बेचारे ने बचपन में बड़ी गरीबी झेली थी।
            लोगों के समझदारी का अति तब हो जाता है। जब हिंसक, भ्रष्ट और तमाम दूसरे तरह के अपराध करने वालों को मीडिया हीरो बनाने लग जाता है और बेचारा, मजबूर वाले tag का तो अपना ही मजा है। इनका बस चले तो हर अपराधी को संत से सम्बोधित करने लग जाए। बेचारा कितनी मेहनत से चोरी करता है क्योंकि ....
rajhansraju

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