पशुपालन के बहाने
पशुपालन जहाँ भी होता है, वहाँ कुछ चीजों की एक अनिवार्य चक्रीय व्यवस्था कायम हो जाती है, जो उसे एक व्यापार का रूप देती है और इस चक्र के किसी भी कड़ी को तोड़ने से पूरा पहिया अव्यवस्थित हो जाता है। हम चाहे जितने भावुक हो लें और कैसे भी आदर्श का महिमा मंडन कर लें, अंततः चलता तो लाभ-हानि का खेल ही है। इसको हम narcotics के खतरनाक business से समझ सकते हैं। जो पूरी दुनिया में प्रतिबंधित है और सर्वाधिक कठोर सजाएँ इसी से जुडे अपराध में दी जाती हैं। इसके बावजूद भी हर गली-मुहल्ले में स्मैकिए मिल जाएँगे तो इसके पीछे मूल कारण, मुनाफा ही है। दुनिया में कोई भी किसान पशु पालन धर्मार्थ तो कर नहीं सकता। क्यों कि वह पहले से ही इतनी आर्थिक तंगी से जूझ रहा होता है कि वह किसी भी अनुत्पादक पशु का बोझ नहीं उठा सकता और उसे बेचने खरीदने लिए एक बाजार चाहिए। जहाँ वह अपने माल (किसान की भाषा में उसके पशु संपत्ति को यह भी कहा जाता है) का नवीनीकरण करता रहे। इस पूरी प्रक्रिया में कृषक, पशुपालक, दुग्ध व्यवसायी और इसके बाद चमडा, खाद उद्योग(fertiliser industry) आता है और ए सभी मिलकर एक चक्र का निर्माण करते हैं। अब सोचिए इसमें से कोई एक छोड़ दिया जाए यानी कोई एक कड़ी तोड़ दिया जाए तो इसका परिणाम क्या होगा?
अब पशु कटेंगे कहाँ? सिर्फ सोचने, समझने की बात यही है। क्यों कि जब जिंदा पशु से ज्यादा कीमत, मृत पशु की हो तो उसे बचाना नामुमकिन ही है।
इसका एक मजेदार उदाहरण पाकिस्तान का है जहाँ 2015 में गधों के चमड़े का निर्यात बेतहासा बढ़ गया और उसका गोश्त हर गोश्त में मिलाकर बेंचा जाने लगा तो इसकी वजह ... जो गधा कुछ सौ रुपयों में मारा-मारा फिरता था। चीन की कृपा से जैसे ही लोगों को पता चला कि उसके चमडे की कीमत 12000 से 15000 रुपये के बीच शुरू होती है। इस धंधे से जुड़े लोगों की लाटरी लग गयी।
( http://dunyanews.tv/en/Pakistan/296843-Export-of-donkey-skin-increases-Ishaq-Dar-approve)
अब ऐसे में गधों की जान भला कौन बचा सकता है। फिर पशुओं के खुर और सींग का भी अच्छा खासा बाजार है।
अब तय करिए कि हजारों करोड़ का व्यापार, आप किसके हाथ में देना चाह रहे हैं। पशु smugglers जिन्हें सिर्फ सीमा पार(चाहे राज्य हो या फिर देश) कराना है या फिर बड़ी multinational कम्पनी जिसमें बड़े- बड़े नेताओं की हिस्सेदारी होगी और जहाँ सबकुछ जायज होगा। देश का खुद को खेवनहार समझने वालों अब कृपा करना बंद करो क्यों कि शिक्षित, वैचारिक, वैज्ञानिक समाज के लिए हम पर्याप्त मूर्ख साबित हो चुके है। क्यों कि हम नई मान्यताओं और प्रतीकों को गढ़ने में नाकाम रहे हैं और अतीत में लौट जाना चाहते हैं। जबकी सच ए है कि हमने अपनी चिंतन प्रक्रिया खो दी है और नए ज्ञान खोज सकने की अपनी क्षमता पर भरोसा नहीं है। हम आज की दुनिया को कोई भी नया विचार देने में नाकामयाब रहे हैं और अपनी पीठ थपथपाने की अजीब बिमारी लग गयी है।
rajhansraju
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