fake news and hate news

fake news


किसी परिवार के लिए मौत से बढ़कर कोई बुरी खबर नहीं हो सकती और यह खबर तब खतरनाक बन जाती है जब किसी पूरे समुदाय पर उंगली उठने लग जाती है। जबकि ज्यादातर घटनाएँ अपराध से जुड़ी होती हैं और जातीय, धार्मिक संस्थाओं की उस वक्त कोई भूमिका नहीं होती और सामान्यतः घटनाओं के बाद उनकी जातीय, धार्मिक व्याख्या शुरू होती है और इन संगठनों की भूमिका भी। आमतौर पर सड़कों पर या कहीं भी कुछ इधर उधर हुआ तो कहा सुनी हो ही जाती है और ऐसे में सामने वाला local और संख्या में ज्यादा हुआ तो आपकी खैर नहीं। यह पूरी बात किसी जाति धर्म को लेकर नहीं है, बस किसके हत्थे कौन चढ़ जाएगा यह सोच पाना नामुमकिन है। परिवार के साथ यात्रा करके देखिए, यात्रा के दौरान हर तरह के लोग मिलते है। अच्छे और एक दूसरे की मदद करने वाले लोग, कभी- कभी तो कुछ घंटे की यात्रा में ही आपकी जाति-धर्म से जुड़ी धारणाएँ टूट जाती हैं और आप एकदम शानदार नई चीजों से अवगत होते हैं। वहीं कुछ लफंगे, उचक्के, ... अपराधी जो पूरी तरह secular होते हैं। बिना भेदभाव लोगों का शिकार करते हैं। कुछ पल में पूरी जिंदगी न भुलाया जा सकने वाला अनुभव दे जाते हैं।
      ऐसी घटनाओं को देखने का जो जातीय-धार्मिक नजरिया है, वह खतरनाक है और इसको खास नजरिए से दिखाने बताने का काम मीडिया कर रहा है। जिसकी विश्वसनीयता संदेह से परे नहीं है। हमारा मीडिया शिकार करते-करते अब खुद शिकार होने लगा है और किसी जाति धर्म के विरोध या समर्थन में एक घोषित, अघोषित एजेंडा लेकर चलने लगा है। ऐसा कुछ साबित करने के चक्कर में  वह अति विरोध का मुहिम चलाता है, जो अंततः जिसका विरोध किया जा रहा है, उसका मुफ्त में विज्ञापन साबित होता है। कोई छोटी सी वारदात करो और लाखों का air time बिलकुल free..
rajhansraju

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