वाद की राजनीति


आज एक फेसबुक मित्र की वाल पर कथित घनघोर अश्लील  हिन्दू धार्मिक साहित्य के दर्शन हुए। उनका परिश्रम सराहनीय है कि उन संस्कृत रचनाओं को हमारे समक्ष हिंदी अनुवाद के साथ उपलब्ध कराया क्यों कि कथित सही जात होने के बाद भी हमारे कुल परिवार और पूरे गाँव में शायद ही कोई संस्कृत श्लोकों का हिन्दी में सही मतलब बता सके। पढ़ तो फर्राटे से लेंगे बस देवनागरी में लिखा भर हो। हाँ एक बात और बतानी है कि हिन्दी भाषी घरों में तुलसी दास कृत "रामचरित मानस" के अलावा शायद ही कोई धार्मिक ग्रंथ हो, जिसका सर्वाधिक विरोध काशी के ब्राह्मणों ने किया था, जो उस वक्त के हिन्दी क्षेत्र की जनभाषा अवधी में थी, जिसने ब्राह्मणों के हाथ से रामकथा छीन ली और सबसे खतरनाक धर्म ग्रंथ "मनु समृति" का नाम सिर्फ शहरी पढ़ा लिखा वर्ग ही जानता है और इस किताब को हमने तो आज तक किसी घर में नहीं देखा वैसे भी किसी खास जात के उत्पीडन के लिए किसी खास जात को, कोई खास किताब पढ़नी पड़ती हो, इसकी आवश्यकता नहीं है। उसका संबंध तो सिर्फ सत्ता और ताकत से है जिसके मिलते ही आदमी शोषण के शोधित तरीके ढूँढ लेता है। वैसे इस किताब का घनघोर विरोध करने वालों को इसे एक बार जरूर पढ़नी चाहिए। खैर इस मनोरंजक साहित्य के लिए मित्र आपका आभार और पूरी उम्मीद है कि आगे भी आप इस तरह का मनोरंजन हमारे सामने लाते रहेंगे।
         चलिए अब पूरी बात को एक और नजिरिए से देखा जाय, मतलब कथित धार्मिक साहित्य में भी हिंदी सिनेमा की तरह पूरे मनोरंजन की व्यवस्था, मजेदार है, इस तरह की रचनाएँ वैसे आज के porn जैसी ही थी, जिसे चोरी छुपे हर आदमी पढ़ना, देखना, सुनना चाहता है। बस इंटरनेट के आ जाने से छुपने-छुपाने को कुछ नहीं बचा। अब कामसूत्र और कोक शास्त्र को भी आसानी से ढूँढा जा सकता है। वैसे मित्र खजुराहो की मूर्तिकला को बापू भी आज के बाकी विद्वानों की तरह ही नष्ट करने के पक्ष में थे पर दुर्भाग्य से कला और साहित्य की समझ रखने वाले गुरू देव रविन्द्र नाथ टैगोर जी ने टाँग अडा दी और उनको भी गुरू देव की बात समझ आ गयी। यह कुछ- कुछ M.F. Husain की paintings को अश्लील समझने वाले महाज्ञानियों की तरह ही है। आगे अजंता-एलोरा की कला का जिक्र भी होना चाहिए जो किसी एक पंथ से जुड़ा हुआ नहीं है, भाई बच्चे तो सारे मजहब और जाति के लोग पैदा करते हैं और प्रजनन के प्रतीक की पूजा पुरातन और आदिम है, जिसके खोज का श्रेय ब्राह्मणों को कदापि नहीं देना चाहिए और शिव के दूसरे पर्यायवाची भी हैं जो जंगल, जमीन, वृक्ष, पशु, पक्षी, आखेट आदि से जुड़े हैं, जो बिलकुल भी राजनीतिक ब्राह्मण वाद से मेल नहीं खाते, पर ब्राह्मणों की चालाकी समझने लायक है, इस आदिम देवता को भी उन्होंने हडप लिया और इसके लिए शिव पुराण रच डाला और हाय रे दुर्भाग्य जिन्होंने शिव को गढ़ा था उन्हें पता ही नहीं चला  कि कब उन्होंने उसे अपना मानना बंद कर दिया। हलाँकि यह "न मानने" का प्रदर्शन खुद को मनवाने का एक तरीका है, अगर आप किसी धार्मिक रीति रिवाज को नहीं मानते तो इसका ढिंढोरा पीटने की क्या जरूरत है यह तो हमारा व्यक्तिगत मामला है वैसे ही जैसे कौन किस रंग की चड्ढी पहनता है किसी और से मतलब नहीं होना चाहिए।
      नास्तिक होने में कोई हर्ज नहीं है वैसे ही आस्तिक होने में भी कोई हर्ज नहीं है वैसे भी हमारे पास जो अधिकार हैं वह संविधान और कानून की वजह से हैं इसलिए किसी धर्म ग्रंथ या वाद का हमारे जीवन में ऐसा कोई अर्थ नहीं है जो हमारे जिंदा रहने की अनिवार्य शर्त हो, इन्हें मानने न मानने के लिए हम पूरी तरह आजाद हैं। हाँ! "मै नास्तिक हूँ" और यह मेरा व्यक्तिगत चुनाव है, पर यह नास्तिकता कोई संघर्ष करके हासिल करने वाली चीज नहीं है, मेरे लिए इसका अर्थ सिर्फ उदार होना है जो हर तरह के प्रतीक और साहित्य को देख समझ सके, उनसे बिना डर या घृणा के, जिसमें नास्तिक होने का बोध या कट्टरता भी न हो, अन्यथा यह नास्तिकता भी एक धार्मिक सम्प्रदाय बन जाएगा और पता नहीं किससे-किससे संघर्ष करता दिखाई देगा। बहुत सारी चीजें हमारे अतीत का हिस्सा है कि हम क्या थे और हम चीजों को उस वक्त कैसे देखते समझते थे, वह अध्ययन, शोध और यहाँ तक कि मनोरंजन का विषय हो सकता है पर उसके लिए हमें अपने वर्तमान की कुर्बानी नहीं देनी चाहिए। यहाँ हमारी मनोवृत्ति खुद को विकसित करने के बजाय दूसरों को नीचा दिखाने और बदला लेने की ज्यादा है, हम चाहे जिस समुदाय से संबंध रखते हो इससे फर्क नहीं पड़ता, दलित-सवर्ण, हिन्दू-मुस्लिम सब शोषण से मुक्ति तो चाहते हैं, पर ज्यादातर बनना शोषक ही चाहते हैं। शायद इसी लिए कोई भी समुदाय अपनी महिलाओं के बारे में बात नहीं करना चाहता क्यों कि आज तक दुनिया के किसी भी समुदाय ने उन्हें कोई आजादी नहीं दी और सारे जातीय, धार्मिक, कायदे कानून उसी के खिलाफ हैं।
     रही बात आज के हिन्दू धर्म की तो उसमें जात की निर्णायक राजनीतिक भूमिका समस्या के मूल में है। हर समाज की तरह शोषित, उपेक्षित लोग हैं और आगे भी रहेंगे उनका नाम और क्षेत्र बदल सकता है क्योंकि हमारे यहाँ अशिक्षा, गरीबी राजनीतिक दलों के लिए वरदान है क्योंकि यह लोगों को जात, धर्म के आधार पर संगठित करने और रखने का मूल आधार है और इसीलिए जब  ब्राह्मणवादी या दलित चिंतक हिन्दू धर्म की आलोचना या प्रशंसा करते हैं तो वह कभी उपनिषदों की बात नहीं करता और भागवत गीता की तो भूलकर भी न तो चर्चा करता है और न ही कभी उसके अर्थ बताता है। भाई दोनों अपने धंधे  बंद करने से रहे।
rajhansraju

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