Sangh and Indian Muslim

 संघ और भारतीय मुसलमान :

सिर्फ़ राजनीतिक दृष्टि अक्सर सच्चाई को धुँधला कर देती है। इसलिए कि वह पक्षधरता से अनुप्राणित होती है। वह तटस्थता से हर पहलू नहीं देखती। उदाहरण के लिए संघ प्रमुख मोहन भागवत के मस्जिद और मदरसे जाने की घटना को सोशल मीडिया पर जिस तरह राहुल गाँधी की 'भारत जोड़ो' यात्रा का सीधा नतीजा कहा गया, वह इच्छापूर्ति ज़्यादा है, यथार्थ कम। सोशल मीडिया के विद्वान यह भूल गए कि संघ का अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ पहले से है जिसमें कई रंग के मुस्लिम हैं। संघ ने अब बड़े पैमाने पर नामी-गिरामी मुस्लिम चेहरों से सम्पर्क करने का इरादा किया है, यह मोहन भागवत के प्रयत्न से मालूम होता है। इसीलिए कई बड़े मुस्लिम बुद्धिजीवियों से सरसंघचालक की मुलाकात हुई जिसे इच्छापूर्ति वाले सोशल मीडिया के ज्ञानियों ने अनदेखा किया। 

हम जिस दुनिया में रह रहे हैं, उसमें केवल स्थानीय घटनाएँ प्रभावित नहीं करतीं। अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों से आँख मूँदकर संकीर्ण राजनीतिक पक्षधरता तो दिखायी जा सकती है, सच्चाई के आसपास नहीं पहुँचा जा सकता। कल ही इंडियन एक्सप्रेस में बद्री नारायण का लेख प्रकाशित हुआ था कि राहुल जिस धारणा के आधार पर संघ की आलोचना कर रहे हैं, व्यापक समाज में वह धारणा बहुत कुछ बदल चुकी है इसलिए ना संघी-ना सेकुलर हिंदुओं का एक बड़ा समूह जो आरएसएस का विरोधी नहीं है, उसे जीतने की जगह कॉंग्रेस गँवा सकती है। इसपर हिंदी के कुछ 'क्रांतिकारियों' ने हमला किया, एनडीटीवी की बहस में भी आक्षेप किये गये। लेकिन ज़मीनी सच्चाई को देखते यह बात विचारणीय है। 

संघ अब सरकार चला रहा है और सरकार पर उसकी पकड़ मज़बूत है। जितनी संवैधानिक और जनतांत्रिक संस्थाएँ हैं, उनमें संघ की भरपूर पैठ हो गयी है। जनसामान्य में भी किसी दूसरे दल की अपेक्षा संघ की पहुँच अधिक गहराई तक है। समाज के सबसे निचले और उपेक्षित समुदायों तक संघ की विचारधारा और कार्यकर्ताओं का ताना-बाना मौजूद है। एकल विद्यालयों के माध्यम से संघ ने आदिवासियों और सबसे पिछड़े, दलित उत्पीड़ित समुदाय को जिस तरह सशक्त किया है, उसके बारे में न कॉंग्रेस को पता है, व वामपंथी बुद्धिजीवियों को। इसलिए राहुल की यात्रा से या विपक्षी नेताओं के मंचासीन होने से संघ इतना नहीं घबरा जायेगा कि उसके प्रमुख को मस्जिद और मदरसों की दौड़ लगानी पड़े। 

जिस बात पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है, वह है दुनिया में भारत की बिगड़ती स्थिति और भारतीयों पर बढ़ते हमले। इंग्लैंड में ऐसे हमलों में मुस्लिम, सिख और अनेक यूरोपीय लोग शामिल हैं। अमरीका ने अपने यहाँ भारतीयों पर हमले की आशंका जताई है और सावधान रहने को कहा है। कनाडा में ऐसे हमलों की चेतावनी भारत के विदेश मंत्रालय ने जारी की है। यह संकटपूर्ण स्थिति है और इसके लिए भारत में बिगड़ती साम्प्रदायिक परिस्थिति है। इसका फायदा उठाकर अमरीका भारत के विखण्डन की अपनी पुरानी रणनीति पर चलने लगे तो आश्चर्य नहीं। पाकिस्तान से अमरीका ने नयी आत्मीयता प्रदर्शित की है। इसका असर मोहन भागवत के कार्यकलापों पर दिखता है

भारत की राजनीति हो या संघ जैसा नियंत्रणकारी संगठन, उसे अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं से भी प्रभावित होना पड़ता है। पैगम्बर मुहम्मद साहब पर अनावश्यक टिप्पणी करने के लिए नूपुर शर्मा के खिलाफ भाजपा को प्रतीकात्मक कार्रवाई अरब देशों के दबाव में करनी पड़ी, यह कौन नहीं जानता? इसी प्रकार मुसलमानों तक पहुँच बनाने के लिए संघ की 'राष्ट्रीय' नीति और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियॉं कारण हैं, राहुल गाँधी या विपक्षी नेताओं का मिलना-जुलना नहीं। 

इस बात को भारत के जनतांत्रिक राजनेता जितनी जल्दी समझेंगे, देश का उतना भला करेंगे। जोड़-तोड़ से सत्ता पाने की अपेक्षा जनसंगठन पर बल देंगे। 

पहले कहा जाता था कि कम्युनिस्ट पार्टी और भजपा (आरएसएस) कर्यकर्ता आधारित (कैडर बेस्ड) संगठन हैं। आज क्या स्थिति है? नागार्जुन ने सर्दियों के लिए एक उपमान दिया था--'हजार-हजार बाहों वाली'! संघ आज हजार-हजार बाहों वाली संस्था की तरह समाज में सबसे निचले स्तरों तक अन्तर्व्याप्त है और कम्युनिस्ट प्रतियाँ तीन मुख्य भागों में तथा दर्ज़नों गौण भागों में विखण्डित हैं। इनमें कोई एक-दूसरे को सही मानने के लिए तैयार नहीं है। सब परस्पर इतने ग़लत हैं कि फ़ासिस्ट ख़तरा देखकर भी मेलजोल नहीं कर सकते। बल्कि कुछ अधिक बौद्धिक कम्युनिस्ट नेता भारत में फ़ासिज़्म के खतरे की बात को ही ख़ारिज करते हैं! जो बुद्धिजीवी थोड़ा असहमत होकर तथ्यों का आकलन करते हैं, उन्हें पल भर में "संघी" करार देते हैं!!

इतनी 'शुद्धता' के बावजूद वे जनसमुदाय से अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं लेकिन शुद्धता में क़सर नहीं है!!! 

इसका नतीजा यह है कि जो 'उन्हें' पसन्द है, वही कहिए, वरना...

जनता से जितना अलग-थलग होते जाते हैं, अपने संगठन के अंदर गुटबाज़ी और बाहर शुद्धतावादी आग्रह उतना ही बढ़ता जाता है। 

लेनिन ने रूसी कम्युनिस्ट पार्टी का अखबार 'ईस्क्रा' निकाला था। अपने सबसे बड़े विरोधी त्रोत्सकी से विचारधारात्मक बहसें ईस्क्रा में सार्वजनिक रूप में चलाते थे। लेकिन लेनिन के अनुयायी भारत के कम्युनिस्ट किसी बात पर असहमत होने वाले से इस तरह चिढ़ जाते हैं कि सोमनाथ चटर्जी जैसे कद्दावर नेता को भी बाहर का रास्ता दिखा देते हैं। तब किसी बुद्धिजीवी की क्या हैसियत कि राजनीतिक परिस्थितियों के विषय में तटस्थ राय दे? 

भारत में फ़ासिज़्म का स्रोत अमरीकी पूँजी, सामंती अवशेष और उन्हें संरक्षण देने वाले दरबारी कॉर्पोरेट हैं। सांगठनिक दृष्टि से इनका सबसे बड़ा मंच आरएसएस है। लेकिन आरएसएस ने पिछले चालीस-पचास सालों में जनसमुदाय के बीच जितना व्यवहारिक काम किया है, वह आज उसकी फसल काट रहा है। इस बात का पता विरोधियों को हो न हो, संघ को है। इसलिए नेताओं के मेलजोल से या राहुल की यात्रा से घबराकर वह मस्जिद-मदरसों की दौड़ लगाने लगा है, इस खामखयाली में नहीं रहना चाहिए। 

ब्राह्मणों का बड़ा हिस्सा संघ के साथ है; ठाकुरों का बड़ा हिस्सा पहले से संघ के साथ है; बनियों का अधिकांश हिस्सा संघ के साथ ही है, जनसंघ-भाजपा को बनियों की पार्टी ही कहा जाता रहा है; पिछड़े और अतिपिछड़े अधिकांशतः आज संघ के निकट हैं; दलितों का बहुत बड़ा हिस्सा संघ के आनुषंगिक संगठनों के साथ है; आदिवासियों के बीच संघ के बराबर किसी ने काम नहीं किया है। इस सच्चाई को लक्षित करने के लिए आप कोई लांछन लगाएँ, उससे किसी और का नहीं, आपका ही नुक़सान होगा। 


मैं भागवत की मस्जिद-मदरसों की यात्रा को गम्भीर चीज़ मानता हूँ। एक समाजवैज्ञानिक की तरह बद्री नारायण ने जो कुछ कहा है, वह तथ्य का संकेत है। 

पुराने कम्युनिस्ट विरोधी की बात में भी सार देखकर उससे सीखते थे, आज कम्युनिस्ट मनचाही बात सुनना चाहते हैं और अपने निकटस्थ या तटस्थ लोगों को भी मारकर दूर करते हैं।

सौजन्य अजय तिवारी

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आज सुबह ख़बर पढ़ी थी कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाइ. क़ुरैशी, दिल्ली के पूर्व लेफ्टिनेंट गवर्नर नजीबजंग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति जमीरउद्दीन शाह और पूर्व प्रोफेसर-वर्तमान राष्ट्रीय लोकदल नेता शाहिद सिद्दीकी ने आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत से मुलाकात की। मुलाकात आधे घण्टे के लिए तय हुई थी लेकिन सवा घण्टे चली। दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी बात कही और समजिज शांति की आवश्यकता के अनुरूप समाधान निकालने की सम्भावना तलाशी। दिन में ही ज्ञात हुआ कि मोहन भागवत दिल्ली में किसी मस्जिद के इमाम से मिले। 

दूसरी ओर कल ही सुप्रीम कोर्ट ने इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को सामाजिक ध्रुवीकरण वाले कार्यक्रम के लिए लताड़ा था और सरकार मूकदर्शक बनी हुई है, इसपर गम्भीर सरोकार ज़ाहिर किया था। यदि नफ़रती कार्यक्रम पर अंकुश लगाने में सरकार अक्षम रहती है तो सुप्रीम कोर्ट स्वयं दिशानिर्देश तय करने को तैयार है। 

दोनों समाचार देश के शांतिप्रिय लोगों के लिए सुखद हैं। पर दो सवाल उठते हैं।

पहला, मुस्लिम विरोधी अफवाह फैलाने में जिस संघ का नाम सबसे ज्यादा आता है, क्या वह अपने बजबजाते कार्यकर्ताओं और समर्थकों को सांप्रदायिक नफ़रत से दूर कर सकती है?

दूसरा, क्या मुसलमान के रूप में जिन भारतीयों को निशाने पर लिया जाता है, वे कोई एक, इकहरी, अखण्ड इकाई हैं? 

हालाँकि चार महत्वपूर्ण मुस्लिम प्रतिनिधियों के मोहन भागवत से मिलने की घटना और भारतीय मुसलमानों के साथ व्यवहार का तरीका--दोनों दो अलग बातें हैं। वे परस्पर सम्बंधित हैं, इसमें शक़ नहीं। फिर बातचीत के लिए उन्हें अलग-अलग लेना उचित है। 

पहली बात: आज संघ ने अपनी सामाजिक शक्ति और स्वीकृति इतनी बढ़ा ली है कि मुस्लिम समाज को भी'संगम शरणम गच्छामि' की ज़रूरत महसूस होने लगी है। खुद संघ का अपना अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ है। उसमें शामिल मुसलमान कई रूपों के हैं। इसकी विस्तृत चर्चा फिर कभी। 

दूसरी बात: 'मुसलमान' या 'भारतीय मुसलमान' कहकर जिन्हें हम पुकारते हैं, वे भी अनेक प्रकार के हैं। इस विषय पर महान हिंदी आलोचक डॉ. रामविलास शर्मा और महत्वपूर्ण हिंदी विचारक डॉ. मुजीब रिज़्वी ने बहुत से तथ्य रखे हैं जो हर प्रकार के भ्रम और सन्देह दूर करने में सक्षम हैं। उनके तथ्यों और तर्को की चर्चा भी जल्दी ही किसी मौके पर करूँगा। 

अभी अत्यंत महत्वपूर्ण हिंदी कथाकार और फ़िल्म-सीरियल निर्माता अनन्य मित्र असग़र वजाहत द्वारा दिये गये कुछ तथ्यों का परिचय देना आवश्यक है। इससे मुसलमानों, खासकर भारतीय मुसलमानों को लेकर गलतफहमी थोड़ी कम हो सकती है, हालाँकि गलतफहमियों का कारण अफवाहें और अज्ञान है। 

अभी मैं अपनी टिप्पणी देने की जगह असग़र वजाहत की पूरी टिप्पणी प्रस्तुत कर रहा हूँ:

भारतीय मुसलमान : एक कड़वी बहस

(बहस के लिए)

अपवाद (Exceptions) की सभी सम्भावनाओं और अल्प ज्ञान की सीमाओं में।

--असग़र वजाहत 


भारतीय मुसलमानों  पर लिखने से पहले यह साफ कर देना जरूरी है कि जिस तरह कोई एक भारतीय खाना नहीं है,एक भारतीय संगीत नहीं है, एक भाषा नहीं है, एक पहनावा नहीं है उसी तरह मुसलमानों की कोई एक पहचान/ एकरूपता नहीं है। वे एक मूल धर्म के कई सम्प्रदायों को मानते हैं लेकिन उनकी भाषा, पहनावा, खाना पान एक दूसरे से बहुत अलग हैं। उनके बहुत से विश्वास भी  एक दूसरे-से मेल नहीं खाते। कहीं कहीं वे जातिवाद का भी शिकार हैं। इसलिए जब हम भारतीय मुसलमानों की बात करते हैं तब निश्चित रूप से यह  उत्तर भारत, विशेष रुप से उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार और  राजस्थान के मुसलमानों के बारे में ही होता है।


1. भारत के मुसलमानों की एक मूल समस्या उनके अंदर शिक्षा और जागरूकता का अभाव है। इसका मूल कारण उनका अपने छोटे-छोटे धार्मिक गुटों के प्रभाव में रहना ही है। कुछ धार्मिक गुट उन्हें आधुनिक और वैज्ञानिक शिक्षा से दूर रखकर केवल मदरसा शिक्षा तक सीमित कर देते हैं।

2. पढ़े लिखे मुस्लिम समुदाय का संबंध अपने धर्म के कमजोर और पिछड़े हुए लोगों से लगभग पूरी तरह कटा हुआ है। मध्यम और उच्च मध्यमवर्गीय मुसलमानों ने अपने लिए 'सुरक्षित स्वर्ग' बना लिए हैं।

3. मुसलमान चुनाव में मतदान करने और अपने धार्मिक विश्वासों और सीधे सीधे उन्हें प्रभावित करने वाले क़ानूनों के अलावा  देश की बड़ी समस्याओं या राष्ट्रीय मुद्दे पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देते और न इस संबंध में आयोजित आंदोलनों का सक्रिय हिस्सा बनते हैं। उदाहरण के लिए सरकार की शिक्षा नीति, स्वास्थ्य नीति, लोकतांत्रिक संगठनों की गिरावट आदि। 

4. मुस्लिम बुद्धिजीवी जो आमतौर पर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जामिया मिलिया इस्लामिया और इसी तरह के दूसरे संस्थानों से संबंधित हैं, आमतौर पर  अकादमिक कामों के अलावा अपने समाज ही नहीं बल्कि देश की प्रमुख समस्याओं के प्रति उदासीन रहते हैं।

5. धर्म प्रचार और धर्म सुधार के नाम पर मुसलमान करोड़ों रुपए खर्च कर देते हैं लेकिन लोकतंत्र को बचाने के लिए, जो उन्हें धार्मिक काम करने की छूट देता है, प्रायः कुछ नहीं करते।

6. कुछ मुस्लिम धर्म प्रचारकों ने अनपढ़ या कम पढ़े मुसलमानों पर धर्म का ऐसा आतंक स्थापित कर दिया है कि वे केवल जमीन के नीचे अर्थात कब्र में क्या होगा और आकाश के ऊपर मतलब स्वर्ग और नरक के अतिरिक्त और किसी चीज़ की चिंता ही नहीं करते। जबकि इस्लाम धर्म दीन और दुनिया मतलब धर्म और संसार दोनों को साथ लेकर चलने के पर बल देता है।

7. पिछले कुछ दशकों से बढ़ती मुस्लिम विरोधी भावनाओं और हिंसा के कारण मुस्लिम समुदाय आतंकित, भयभीत, डरा हुआ और अपनी सुरक्षा के प्रति बहुत चिंतित है। उसकी दूसरी प्रतिक्रिया आक्रामकता की है जो निश्चित रूप से उसे और अधिक कमजोर कर देगी।

8. अपनी वर्तमान स्थिति के कारण मुसलमान 'सॉफ्ट टारगेट' बन जाते हैं। उन्हें पूरी तरह खलनायक बना दिया गया है। उन पर हमला करना, उन्हें बदनाम करना, उन्हें अपमानित करना, उनके साथ भेदभाव करना, हिंसा करना, उनके अधिकारों का हनन करना बहुत सरल हो जाता है।


9.अपनी कमज़ोर स्थिति के कारण मुसलमान अपने खिलाफ व्यापक स्तर पर किए जाने वाले घृणा प्रचार, झूठे समाचारों और गलत व्याख्या का जवाब दे पाने में समर्थ नहीं है।


10. भारत का मुसलमान अब तक अपनी राजनीतिक भूमिका को समझ ही नहीं पाया है और यह उसकी समस्याओं का एक बहुत बड़ा कारण है।


11.कांग्रेस और उसके बाद क्षेत्रीय दलों ने  मुसलमानों का तुष्टीकरण करके उनकी स्थिति को और खराब बनाया है। कांग्रेस ने मुसलमानों को 'खुश करने' की जिस परंपरा की शुरुआत की थी उसको बाद में मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, मायावती आदि ने चरम पर पहुँचा दिया था। मुसलमानों को बहुत 'खुश कर' दिया था। मुसलमानों के वोट लेकर  कई दशकों तक यह नेता सत्ता का मजा लेते रहे। इसी समय उत्तर प्रदेश और  बिहार के जिलों में 'मुस्लिम माफिया' का जन्म होता है। मुस्लिम बाहुबली पैदा होते हैं और क्या मुस्लिम धार्मिक नेताओं के संपत्ति में वृद्धि होती है? साधारण मुसलमान यह समझ नहीं पाए कि उनके साथ जो उपकार किया जा रहा है वह कल उनके लिए आफत बन जाएगा, मुसीबत बन जाएगा। मुसलमानों के प्रति इस तुष्टिकरण  की प्रतिक्रिया  ने दरअसल उन लोगों की बहुत मदद की है जो मुसलमानों को खलनायक बना कर पेश करते हैं।


12. आज बहुत सफलता, चतुराई, होशियारी और अपार धन-संपत्ति की सहायता से मुसलमानों को इतना बड़ा खलनायक सिद्ध कर दिया गया है कि अब वे नेता जो पहले मुसलमानों की माला जपा करते थे अब मुसलमानो  का नाम लेते हुए डरते हैं। 


13. आजादी के 70 साल बाद मुसलमान व्यापारियों और कारोबारियों के पास अच्छा पैसा आ गया है लेकिन वे उस पैसे का उपयोग अपनी बिरादरी या देश हित करते नहीं दिखाई देते।


14. आशा है भविष्य में सार्थक परिवर्तन होंगें। देश में विभिन्न समुदायों के बीच एकता भाईचारा स्थापित होगा। लोकतंत्र मजबूत होगा।देश हित और समाज हित में देशवासियों को एक दूसरे से मिलकर काम करने की आवश्यकता है।

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 हमारा अपने भारतीय मुसलमानों से सवाल.. 
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सुना है 
तुम दीन के पक्के और सच्चे हो
फिर... 
उसने महादेव को गाली दिया
तुमने कुछ नहीं कहा 
इसी तरह किसी भी जगह
कितना भी भयानक गुनाह हुआ 
और उसमें मुसलमान शामिल था 
तब हमेशा की तरह
बस चुप रहकर 
उसका साथ दिया 
और अब.... 
इस्लाम और मुसलमान शब्द आते ही 
तुम्हारी आँख बंद हो जाती है 
सही-गलत गलत का फर्क 
खत्म हो जाता है 
तब तुम्हें सिर्फ 
मुसलमान दिखाई देता है 
यही सच है 
अब तुम्हीं बताओ 
तुमसे भला 
किस सच की उम्मीद करुँ
क्योंकि तुम किस तरफ हो 
अब तो यह सवाल भी नहीं है 
मेरे पास कहने के लिए 
कुछ नहीं है 
तुम्हीं सोचो कि तुमसे
मैं क्या कहूँ..... 
©️Rajhansraju 
#nupurshsrma 
#masoodfayajhashami 
#rajhansraju 
#MeriChetna 
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हमारा भारतीय मुसलमान जैसे ही इस्लाम और मुसलमान शब्द सुनता है उसे कुछ भी दिखाई देना बंद हो जाता है और फिर जो मौलाना, मौलवी और कथित मुसलमानों का  नेता होता है उसी के पीछे चल पड़ते हैं अब सोचिए तमाम मान्यताओं को मानने वाले लोग इस दुनिया में रहते हैं और बहुत तरक्की प्रतिक्रियाएं जो उनसे सहमत नहीं रहते हैं और दूसरी तरह की बातें हैं निरंतर कही जाती रहती हैं पर मुसलमानों की तरह कोई दूसरे इस तरह की प्रतिक्रिया नहीं करता है अब अपने ही देश का उदाहरण दीजिए मुसलमानों के अलावा कौन से लोग सड़कों पर पत्थरबाजी करते हैं खास तौर पर हिंदुओं के बच्चे तो नहीं दिखाई पड़ते हैं या फिर कभी कभी इस तरह की अगर हरकतें कोई बच्चा करता है तो हिंदू परिवार खुद ही अपने बच्चों का इलाज कर लेता है मगर वह बच्चा इस तरह की हरकतों में शामिल मिलता है तो फिर उसके घर पर खैर नहीं होती है पर देश में इस तरह की हरकतों को देखकर ऐसा ही लगता है कि हमारे मुस्लिम परिवार क्या अपने बच्चों के 72 काटा कि नहीं करते क्या सही गलत है इस पर बात नहीं करते या फिर उन्हें इन्हीं धार्मिक गुरु और नेताओं के हवाले छोड़ दिया है कि वह जैसा चाहे उनका ब्रेनवाश करते रहें जबकि हिंदू समाज का घर मुखर आलोचक खुद हिंदू ही है चाहे वह धर्म ग्रंथ हो या फिर पुजारी पंसारी हो या कथित बाबा लोग आप देखिए तो आंख बंद करें कुछ लोग समर्थन करते हैं तो एक बहुत बड़ी संख्या में लोग उनका विरोध भी करते हैं और उनके खिलाफ मीडिया में और अपने बीच अच्छी खासी चर्चा की जाती है और धार्मिक मान्यताओं को भी अंतिम सत्य की तरह नहीं देखा जाता है बाकायदा उस पर सवाल जवाब किए जाते हैं और उन्हें मानने ना मानने की एक तरफ से पूरी छूट होती है एक ही घर में कितने सदस्य होते हैं अलग अलग तरीके से पूजा पद्धति और अपने भगवान को गढ़ने मानने की सूट का पूरा फायदा उठाते हैं और सबसे बड़ी मजे की बात यह है आप को ना मानने की भी पूरी छूट है व्हाट्सएप जिसमें जितनी सामर्थ्य और अक्ल हो वह अपने हिसाब से ईश्वर को बड़े-बड़े और पाएं क्योंकि यह जो धर्म की यात्रा होती है वहां बेहद व्यक्तिगत है इसमें किसी धर्म ग्रंथ की भी जरूरत नहीं होती है यह मान्यता सनातन में भी है जोहर पूजा पद्धति को मानने कर कोई एतराज नहीं करते वही जो हमारा इस्लामिक बिलीफ सिस्टम है उसमें सिर्फ एक खुदा एक धर्म ग्रंथ जब इस तरह की बात आ जाती है फिर दूसरों की मान्यताओं को लोग जगह नहीं दे पाते हैं और अपने जैसा ही लोगों को बनाना चाहते है







इसी क्रम में हम अपने समर्थकों और विरोधियों की टोली का भी थोड़ा सा आकलन करें तो मजा आएगा, हलांकि हम आंख बंद करके समर्थन या विरोध करने की परंपरा से हम मुक्त नहीं हुए हैं और इस काम में हम पूरे सनातनी हैं। हमने जिस भी रंग का चश्मा लगा रखा है उसे हम किसी कीमत पर उतार नहीं सकते। इसे हम बड़े से बड़े बौद्धिक, कम बौद्धिक या फिर अबौद्धिक के व्यवहार का आकलन करके समझ सकते हैं अगर वह पूर्व में विरोधी था तो वह आज भी विरोधी है और यदि वह समर्थक था तो आज भी उतना ही समर्थक है। उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है वह अपने धुर समर्थक या विरोधी होने की निरंतरता बनाए हुए है।
  वैसे भी हम चाहे जिस जाति धर्म के हों पर कुछ मामलों में हम धुर सनातनी हैं कुछ भी हो जाए हम बदलेंगे नहीं, आखिर हम तो सीधे साधे अनुसरण करने वाले लोग ठहरे, बेवजह अक्ल क्यों लगाएं। 










भाई आप किसी भी तरफ से reporting करते हों बस एक बार जिससे भी बात कर रहे हो उसका पूरा नाम और क्या वह किसी संगठन से संबंधित है जरूर पूछिये
हलांकि यह कहना अच्छा नहीं लगता पर हमारे यहां जातीय धार्मिक आधार पर ही लोगों की धारणा तय होती है चाहे तो comment box से ही लोगों के stand का अंदाजा लगा सकते हैं कि कौन से लोग किस तरफ क्यों है 
विरोधी हैं तो.... इस जाति धर्म के 
समर्थक हैं तो.... तो इस जाति धर्म के। 
ऐसे में जाति पर खुलकर बात करके ही इस बिमारी से मुक्त हुआ जा सकता है..



हमारे यहाँ जातीय, धार्मिक और एजेंडे के आधार पर लोग निरंतर भक्ति रस में डूबे रहते हैं। आप चाहें तो इसकी पड़ताल Social Network पर ही उनकी wall visit करके कर सकते हैं। वह लगातार किसी तरफ़, खास तरह के narrative के पक्ष में उपस्थित समस्त बकवास को अपने ज्ञान का ब्रह्मास्त्र मानते हैं और जिसका प्रहार हर मनुष्य पर बिना भेदभाव के इस मायाजाल (इन्टरनेट) के माध्यम से अहर्निश करते रहते हैं।
इन महान योद्धाओं का परम गुण यह है कि यह सदैव दूसरे योद्धा को भक्त की उपाधि से विभूषित करते रहते हैं जबकि स्वयं अपने आराध्य के कीर्तन में रत रहते हैं और इस पुनीत कार्य में किंचित वंचना की संभावना नहीं रहती। 
आधुनिक चारण काल में मीडिया के मायावी चतुर सुजानों ने अपनी हर तरह की अस्थि से मुक्ति पा ली है अब वह किसी भी चरण में बड़ी सहजता से पड़े रहते हैं अब किसी तरह की वेदना नहीं होती क्योंकि कुर्सी का रास्ता यहाँ से भी निकलता है। चाटुकारिता और प्रोपेगेंडा धनार्जन का सहज मान्य तरीका बन गया है। जिंहे समाज का दर्पण बनना था वह खास तरह का चेहरा बनने के लिए लालायित हैं। कोई भी घटना हो एक खास तरह का narrative बनाने में लग जाना, बस मीडिया का काम सिर्फ़ इतना ही रह गया है और हर तरह के भक्तों की पर्याप्त संख्या किसी भी बकवास को अच्छा खासा बाजारु और बिकाऊ content बना देता है और इस बकवास का creater हुनरमंद बन जाता है क्योंकि पैसा कमाने का यह भी तरीका है। ऐसे में नाराज और प्रसन्न दोनों श्रेणी के लोग उसके महज़ प्रचारक और खरीदार कब बन जाते हैं वह समझ नहीं पाते... ❤️❤️❤️
बेचारी मासूम जनता पैसा, data, time जैसी निर्मूल्य चीजें लगातार बर्बाद करती रहती है क्योंकि उसके लिए यदि इनका कोई मूल्य होता तो वह स्वयं को संवर्धित करने के लिए खुद पर निवेश करता... 
जबकि वह तो बीमार भीड़ का हिस्सा बनने के लिए परेशान है और मैं ज्यादा बिमार हूँ यही सिद्ध करने में लगा रहता है या यूँ कहिए कि जिसने भी तुम्हें कोई भी झंडा पकड़ा कर आगे कर दिया है और तुम बहुत खुश हो रहे हो जबकि हकीकत यह है कि उसने तुम्हें प्यादा बना दिया है जिसके मरना जीना कोई मायने नहीं रखता और शतरंज के खेल में प्यादों के मरने से ही आगे का रास्ता खुलता है और नयी चाल चली जाती है 
©️Rajhansraju 
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#rajhansraju 
#loudspeaker 


भारतीयों को पराजित करने के लिये सिर्फ़ राजनीतिक विजय से लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता था। उसके लिए उनमें हीन भावना का होना आवश्यक था और उसके लिए प्रतीकों को नष्ट-भ्रष्ट करना, फिर उनके संरक्षकों और निर्माताओं का चारित्रिक हनन ए भी उसी हीन भावना को भरने का उपक्रम रहा है।
इसी प्रक्रिया में हमारे शास्त्रों और परंपराओं की गलत व्याख्याएँ की गई और बहुत से बकवास प्रकरण जोड़े गये।
इसी क्रम में दलित, द्रविड़ theory, aryan invasion theory धीरे-धीरे खासतौर पर British Education system के माध्यम से missionary का agenda आगे बढाया गया। ऐसे में convent school एक बड़ा माध्यम बने और इन संस्थाओं (missionary) ने brainwash का काम बड़े व्यवस्थित तरीके से गरीब और अशिक्षितों के आड़ में किया और  missionaries का वही model अब तक फली भूत हो रहा है क्योंकि उन्होंने पर्याप्त संख्या में लोगों का brainwash कर लिया है जो अब उनके एजेंडे का हिस्सा बन चुके हैं और इसी का परिणाम है कि धर्मांतरित और अवसादी लोग अपने ही लोगों के विरुध्द खड़े नजर आते हैं जबकि एक बहुत बड़ा समूह जो अपने को पता नहीं क्या-क्या होने का दावा करता है जो अपनी ही बात ठीक से नहीं रख पाता है क्योंकि वह न तो पढ़ने को तैयार है स, न सुनने को और समझना तो बहुत दूर की बात है बस भेंड़ चाल का हिस्सा बनने में उसे बहुत मजा आता है। वो तमाम लोग जो जाहिलियत  बरकरार रखते हुए अपने काम में लगे रहते हैं उन मासूम लोगों को कुछ कहा ही नहीं जा सकता बाकी लोग थोड़ा सा पढ़िये लिखिये ज्यादा कोशिश भी नहीं करनी है कम से कम तथ्यों से परिचित तो हो लीजिए। 
#rajhansraju 


वर्तमान परिदृश्य को देखते हुये यह आसानी से समझा जा सकता है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था, समस्याओं के मूल में है और कैसे भी सत्ता प्राप्त करने के लिए, जिस तरह की वर्तमान दलीय व्यवस्था है वह किसी भी हद तक जाती है या यह कहें कि वह गिरावट के हर स्तर पर पहुंचती रही है और यह कारनामा करने में कोई भी दल अछूता नहीं रहा है। 
यदि हम समान्य दृष्टि से भी अपने राजनीतिक दलों को देखें तो वह मुनाफा कमाने वाले निजी संस्थान ही नजर आते हैं जो कैसे भी करके अपने पारिवारिक प्रभुत्व को बनाए रखना चाहते हैं जिसमें किसी और को किसी भी तरह कका भागीदार बनाने को तैयार नहीं है।
ऐसे में बहुदलीय प्रणाली अब भारतीय समाज पर बोझ बन गयी है जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण है। साथ ही जाति, धर्म, क्षेत्र, अलगाववाद ही इनके अस्तित्व के मूल में होने के कारण ए भारत और भारतीयता से समझौता करते नजर आते हैं और कभी-कभी तो Idea of India के ही विरुद्ध दिखाई पड़ते हैं और बहुसांस्कृतिक बहुलतावादी देश में इस तरह के दबाव समूह निरंतर चंद संसद और विधान सभा की सीटें जीत लेते हैं और लोकतंत्र बहुमत का गणित इंहें प्रासंगिक बनाये रखता है और सत्ता बनाये रखने की मजबूरी इनका भरण पोषण करती रहती है जो भारत की अखंडता को धीरे-धीरे कमजोर करने का एक कारण बन जाता है।
ऐसे में यह आवश्यक है कि हम अब तीन दलीय व्यवस्था की तरफ प्रस्थान करें और अति लोकतंत्र से मुक्त हों। वैसे भी वर्तमान राजनीतिक दलों को ठीक से देखा जाए तो वह NDA, UPA, Others में बंटे हुए, बस इन्हें एक नाम चिह्न देना है और जिसका पूरा खर्च सरकार उठाए जिनके संचालन की एक नियमावली हो सबकुछ चुनाव आयोग द्वारा संचालित हो..




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किसी को भी अपनी जातीय धार्मिक चेतना को छोड़ने के लिए कहना... समय की बर्बादी ही होगी आप समर्थक और विरोधियों पर थोड़ा नजर डालिए तो उसमें जातीय खेमे बंदी साफ नजर आती है अब उस समीकरण को कौन अपने पक्ष में कितना कर पाया है खेल इसी बात का है 




अब क्या कहूं?
सच यही है, 
जिससे कह रहा,
वह सुनता नहीं।
rajhansraju


आम आदमी को हल्के में मत लीजिए और मूर्ख समझने की गलती बिलकुल मत करिए। कुछ भी अंतिम नहीं है अगर कुछ शाश्वत है तो वह परिवर्तन है। 
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Comments

  1. shabdon ki behtareen kareegari hum sabke sath share karane ke lie shukriya
    इन शानदार शब्दों तक पहुंचना आसान नहीं होता क्योंकि ज़्यादातार इस ट्राफिक मे चीजें खो जाती हैं और बहुत सी अच्छी और सही बातें हम तक नहीं पहुँच पाती

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  2. प्रभु भल कीन्ह मोहिसिख दीन्ही,
    मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।
    ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी,
    सकल ताड़ना के अधिकारी ।। 3।।

    अर्थ -

    प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी
    अर्थात दंड दिया
    किंतु मर्यादा (जीवो का स्वभाव)
    भी आपकी ही बनाई हुई है
    ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री
    यह सब शिक्षा के अधिकारी हैं..

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