कुछ नया करते हैं

इस बात पर ज़रा गौर किया जाय कि वास्तव में जातीय-धार्मिक संकट सबसे ज्यादा कब होता है? तो हमारे देश में जब चुनाव होने वाला हो तब होता है और उस वक्त किसी खास तरह की घटनाओं में भरपूर इजाफा हो जाता है। जिसको मीडिया लगातार सनसनी खेज बनाए रखता है। फिर घरों में बैठकर गरमा गरम लाइव डिबेट देखने का अपना ही मजा है।
    खैर! इस वक्त दलितों और अल्पसंख्यकों पर जिस खतरे का लगातार जिक्र हो रहा है, वह वास्तव में खुद को इनका नेता मानने वाले लोगों के सामने अपना राजनीतिक भविष्य बचाने का संकट है। जिसे असुरक्षा बोध को और मजबूत करके हासिल किया जा सकता है। यह असुरक्षा बोध जितना मजबूत होता है, राजनीति का काम उतना ही आसान हो जाता है क्योंकि अब लोग अपने नेता पर न तो शक़ करते हैं और न कोई सवाल। इस तरह जब भी जातीय, धार्मिक पहचान सर्वाधिक महत्वपूर्ण बना दिए जाते हैं, तब वास्तविक समस्याओं से बेहाल जनता यह भूल जाती है कि उसे समस्या किस बात की है?
    जब भी जातीय, धार्मिक पहचान का कथित संकट आता है। तब-तब लोग खुद को उसी पहचान के दायरे में समेटने लग जाते हैं और इसका परिणाम यह होता है कि वह समाज के अन्य लोगों से जुड़ने का प्रयास बंद कर देता है तो इसके पीछे मूलकारण, वही प्रचारित डर और आशंका होती है। 


      क्या आपने कभी भी इस पूरे बहस में इन मुद्दों पर कोई बात सुनी है की वंचितों को कैसे शिक्षित किया जाय? या फिर उनके कथित नेता ए बताएं कि किस क्षेत्र में किस तरह कि खास समस्या आ रही है, उसमें सुधार के लिए किस तरह के अतिरिक्त प्रयास किए जाने कि आवश्यकता है क्योंकि छत्तीसगढ़, झारखंड, पूर्वोत्तर.. या दिल्ली के आसपास के वंचितों की समस्याएं एकदम अलग होंगी, ऐसे में समाधान का भी कोई एक निश्चित फार्मूला नहीं हो सकता। इसके लिए एक ईमानदार नेतृत्व और प्रशासन चाहिए, जिसका निर्माण करने में, हम अबतक नाकाम रहे हैं। ले देकर एक ही मुद्दा दिखता है "आरक्षण" जिसकी सिर्फ राजनीति हो रही है। वैसे भी जब सरकारी क्षेत्र में सिर्फ़ 3% नौकरियां हैं तो फिर इसका लाभ कितने लोगों को मिलेगा? लेकिन राजनीतिक अस्तित्व के लिए यह मजेदार है जिसके खोने पाने का डर और संभावना, समर्थक और विरोधियों को किसी खास गुट में हमेशा बनाए रखती है और अब ए तकरीबन उस चीज की लड़ाई है जो है ही नहीं क्योंकि हमारी आबादी इस समय 125 करोड़ पार कर गयी है। कुल मिलकर मतलब यही हैकि ज्यादातर लोगों को सरकारी क्षेत्र से निराश होना पड़ेगा। ऐसे में जरूरत इस बात कि है कि हम अपने दायरों से बाहर निकलें और नए आर्थिक, सामाजिक संबंधों को गढ़े।
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