वह मार दी गयी

murder 

आज़ सुबह जैसे ही अखबार पर नज़र पडी, हाँ मुख पृष्ठ पर ही कोचिंग से लौट रही छात्रा को गोली मारने की खबर थी। वैसे यह खबर मेरे शहर कि है, फिर इससे क्या फर्क पडता है? सब जगह सब कुछ एक जैसा ही तो घट रहा है, कोई अंतर नहीं है कि हमारा शहर कौन सा है? सबका व्यवहार भी कुल मिलाकर एक जैसा हि है, शयद प्रतीकों में ही कुछ भिन्नता हो, नहीं तो एक जैसी ही रिक्तता भी है? सब एकदम खाली? हाँ! उपदेश जैसा ही लग रहा होगा, शायद कुछ बातों को कहने का यही तरीका ठीक है?
खैर फिर अखबार के मुखपृष्ठ पर आते हैं-  उसकी और उसके घरवालों की बाकायदा फोटो लगी थी। उसको गोली मारे जाने का पूरा वृत्तांत अखबार में किसी फिल्म या उपन्यास के रोमांचक अंश जैसा ही था जैसे वह पत्रकार या फिर शायद! कहानीकार, हर बात का चश्मदीद हो और सबकुछ किसी खेल के सजीव प्रसारण जैसा। आगे कुछ भी जानने समझने के लिए नहीं बचा है, बस हो गया फैसला, हमने सब बता दिया। तुरंत मुकदमा, तुरंत फैसला, आज़ घोषणा हो गयी सारी लडकियों को उनके घर वालों, दोस्तों से खतरा है, उनका स्कूल-कालेज़ जाना ही सारी समस्या का मूल कारण है, हर चीज़ पर रोक लगाओ, इज़्ज़त-परिवार सबको खतरा है, नए गेटप और मेकप में ठेकेदार और चैकीदार नज़र आने लगे, सारी जिम्मेदारी लेने को तैयार, हमको खतरों के बारे में बताया जाने लगा और माध्यम बन रहा है अपने आप को समाज़ की आवाज़ होने का दावा करने वाला मीडिआ जो बताने समझाने के बजाय डरा रहा है, विश्वास पैदा करने के बजाय किसी अघोषित प्रोपेगैंडा‌ का हिस्सा बन रहा है, जो यह बता रहा है कि अब आपका शहर रहने लायक नहीं है, वह शहर, रिश्तों के साथ नए डरावने विशेषण जोड रहा है।
हर चीज़ पर उंगली उठ गयी, वाह क्या धमाकेदार खबर बन गयी। अभी-अभी एक नयी घटना की खबर मिली है- न्यूज़ एक्सक्लूजिव और वैल्यूबल है मतलब बिकाऊ भी, क्योंकि इसमे मुम्बइया ग्लैमर जो है। फिर यह तो टी.वी. और सिनेमा से जुडे‌ रईस लोग हैं, खूब मज़ा आएगा। इनकी तो कोई निज़ी जिंदगी होती नहीं ए तो फिल्म जैसे ही होते है। अब टी.वी. अखबार के समाचारों और चाय-पान की दुकानों की चर्चा में ज्यादा अच्छा कौन है? समझना हो तो यही लगता है कि गली-नुक्कण वाले कम से कम अपनी बात रख तो लेते हैं। यहाँ तो विशेषज्ञ के नाम पर पता नहीं कैसे-कैसे और न जाने कौन-कौन सी बात कहने वाले लोग ढूँढ़ लिए जाते हैं, उस व्यक्ति का गुण सबसे तेज़ आवाज़ में बोलना और किसी को कुछ भी न बोलने देना होता है। इन सबको देखकर यही लगता है कि हमारे यहाँ की बडी-बडी शिक्षा संस्थाएँ बेकार और किसी काम की नहीं है। यहाँ अध्ययन-अध्यापन करने वाले लोग किसी काम के नहीं है। अन्यथा इन बहसो और विमर्ष में हमारे मनोविज्ञान, समाज़शास्त्र, दर्शन, विज्ञान या फिर बुद्धिवाद के प्रबल समर्थक और जानकार अवश्य दिखाई पड़ते जो हमारी सम्स्याओं को नए संदर्भ मे हमारे सामने लाते और उन सम्स्याओ का तर्कसंगत समाधान खोजते, न कि अराज़कता पूर्ण व्यवहार करके जग हँसाई करते।
एक तरफ हम अपनी निज़ता और दूसरों की निज़ता पर घनघोर बहस करने को तैयार हैं। जिसे सुनकर ऐसा लगता है कि हम मौलिक अधिकारों की जानकारी से पूर्ण है और लडाई के लिए अब हम तैयार हैं और अब तो हमारे हाथ सोसल नेटवर्क की भी ताकत है, बस एक क्लिक करना है कि आप किसके साथ है, अभी-अभी अपने सपने को मै सबको बाँट आया, अपने वाल पर एक अच्छी फोटो के साथ पोस्ट किया है। मर गयी तो क्या हुआ फोटो तो ग्लैमरस है..दु:ख वाली खबर पर भी ढे‌रों लाइक मिलते रहे। यह पता नहीं किस बात के लिए था।
                                         
आमतौर पर वारदात के बाद ही घरवालों को पता चलता है कि उनके बच्चे क्या कर रहे थे (यहाँ लडके-लडकी का कोई भेद नहीं है), उनको किस बात की सम्स्या थी, वह अपने घर वालो से क्यों बात नहीं कर पाए, उनका अकेलापन कब कैसे उन पर भारी पडने लग गया, उसके लिए  दूसरी चीज़ें कैसे और क्यों? ज्यादा महत्वपूर्ण हो गयी? घरवाले अब भी यही कह रहे हैं कि हमने कोई कमी नहीं छोडी, कौन सी सुविधा नहीं दी, रात-दिन इन्ही के लिए तो मर खप रहे है, हलाँकि संडे को ही कुछ देर के लिए ही बच्चों से मिल पाते है फिर उनका भी कहीं न कहीं जाने का समय हो जाता है। हर आदमी बिना काम के व्यस्त है, एक दूसरे की सुनने और बात करने का वक़्त ही नहीं है कि घरवालों की कुछ बेवज़ह की बातें सुन लिया जाय। कुछ दिनों पर आपस मे लड लिया, नाराज़ हो जाय, मनाया जाय, कुछ मिल के पकाया जाय, बुआ, मौसी से मिल लिया जाय, नहीं तो वही मोबाइल और न जाने कौन सी न बचाई जा सकने वाली इज्जत और वो चार आदमी जो आज़ तक किसी को नहीं मिले, जो हम सबके बारे में पता नहीं कया-क्या बात करते है, उनका डर तो गज़ब का है। अरे भाई पूरी दुनिया को भला बुरा कहने से कुछ नहीं होने वाला, पहले घर में समय तो दीजिए, बच्चों को देखना समझना सीखाइए, बेटियों को सुरक्षित करना है तो पहले अपने बेटों का पालन पोषण सही ढं‌ग से करना होगा। उनमे सम्मान कि भावना चाहे वह महिलाओं के प्रति हो या फिर अपने बडे‌-बुज़ुर्गों के प्रति, यह एक दिन मे कीसी प्रवचन या सज़ा के भाय से नहीं आती, व्यवहार एक सतत सीखी गयी प्रक्रिया है, जिसे हम अपनी आदत में ढाल लेते है। संयत व्यवहार सभी के लिए आवश्यक है जहाँ हर व्यक्ति को यह पता होना चाहिए कि मेरी सीमा यहीं तक है, वह चाहे मेरी आज़ादी हो या कुछ और?
मेरा बच्चा ऐसा कैसे बन गया कि वह किसी की यूँ ही हत्या कर दे वह भी उससे थोडी सी असहमती के कारण या फिर वह अपने को इतना कमज़ोर मान ले कि खुद को ही खत्म कर ले, दोनों ही  स्थितियाँ माँ-बाप, परिवार और समाज़ की असफलता का परिणाम है। अब हम चाहे जितनी बडी-बडी बातें करले, अपने-अपने धर्म और संस्कृति के श्रेष्ठ होने का कितना भी बडा आडम्बर रच लें, सच्चाई ए है कि हम असफल हो रहे हैं। हममे धीरज़ कम हुआ है, हम कैसे भी करके सब हासिल कर लेना चाहते है फिर बच्चे तो हमारे ही है, वह भी एकदम हम जैसे..
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