right to coffin

                        कफ़न का अधिकार 
किसी मृतक को अंतिम विदाई देने का हर मज़हब ने एक तरीका बनाया है। उसका मकसद मृतक को अंततः सम्मान से रुखसत करना है। चाहे वह सैनिक हो या फिर आम आदमी, उस देह को किसी झण्डे से ढका जाय या उस पर फूलों की पर्त बिछा दी जाय, नहीं तो किसी मामूली कपड़े का ही कफ़न हो। उस देह को हम अपने-अपने तरीके से विदा करते हैं। चलो आज उसका सफ़र ख़त्म हुआ और हम उस देह को विदा करने चल पड़ते हैं। चाहे वह श्मशान की आग हो या कब्रिस्तान की मिट्टी। इन जगहों पर किसी एक व्यक्ति का अधिकार नहीं होता। शायद इस वज़ह से भी आमतौर पर सभी को आग और मिट्टी मिल ही जाती है। वैसे जब हम किसी मृत देह को लेकर कुछ दूर चलते हैं तो वास्तव में यह यात्रा हम अपने देह की सीमा का स्मरण करने के लिए करते हैं। देह के फ़ना (ख़त्म) होने का तरीका सभी तरह के भेद ख़त्म कर देता है। अमीर-गरीब, छोटा-बड़ा सबके देह की एक ही हालत होती है। खुशनसीब हुए तो यह मिट्टी या आग नसीब होती है। कोई राख बन के मिट्टी में मिल जाता है तो कुछ लोग थोड़ा सा ज्यादा वक़्त लेते हैं इस मिट्टी की आगोशी में  पहुँचने के लिए। 
                             पर! जब कभी इंसानी जिस्मों का कूड़े के ढ़ेर जैसा अम्बार दिखता है। वज़ह कुछ भी हो, जैसे फेंक दिया गया हो, बेपरवाही से, बिना पहचान के कि ए कौन हैं? कहाँ से आए हैं? क्या ए किसी के कुछ नहीं लगते? ऐसा नहीं हैं ए अपने घरो से आए हैं, इनका पूरा परिवार है। सोचिए उन घरों की क्या हालत हुई होगी जब इन डरावनी तश्वीरों में कोई अपना नज़र आया होगा? कैसे सम्भाला होगा खुद को? कैसे अपने भाई, पिता...... किसी और को वह कैसे देख पाया होगा? यह कैसी यात्रा है जहाँ किसी को कफ़न भी नसीब नहीं होता। उस जगह का नाम कुछ भी हो, हादसों की वज़ह भी, चाहे कुछ भी हो। पर उसके बाद की संवेदन हीनता हमें शर्मिन्दा ही करती है, फिर चाहे वह सरकारें हों या फिर आम लोग। हाँ हम जीवन के दौड़ में काफी आगे बढ़ आए हैं और हमारे जीने और सोचने का तरीका काफी हद तक मशीनी होता जा रहा है। हमारा धार्मिक होना भी आडम्बरों का बड़ा पिटारा बनाता जा रहा है। जहाँ हर किस्म का सम्मोहन है, बाज़ार की चमक है, सब कुछ आलीशान और बिकाऊ है। भावना शून्य, सिर्फ रिक्तता जिसमे शायद खुद के लिए ही जगह बची है। यह सारी प्रगति, सम्पन्नता किस काम की जो मुर्दों के लिए कफ़न की व्यवस्था भी न कर सके! 
          अब तो एक नया अंतराष्ट्रीय समझौता होना चाहिए जिसमे कफ़न का अधिकार शामिल हो। जिसमे  किसी भी मृत देह को खुला न रखा जाय और उसे थोड़े बहुत सम्मान से भी रुखसत कर दिया जाय तो शायद हमें खुद के इंसान होने पर बुरा नहीं लगेगा और हम अपना थोड़ा सा सम्मान कर पाएंगे।  इसे हम Right to coffin कह सकते हैं। देह की अंतिम यात्रा वास्तव में व्यक्ति के सम्मान में किया जाने वाला अंतिम प्रयास है, वैसे यह छोटा सा सम्मान देने में हमें कंजूसी नहीं करनी चाहिए, हो सकता है, हमारे भी कुछ पैसे खर्च हो जाए और हमारा थोड़ा सा वक़्त भी बर्बाद हो। पर क्या? हमें यह अंदाज़ा है कि इस भाग दौड़ की जिंदगी में हम कब न पहचाने जा सकने वाले लावारिस बन जाएँगे। जब सब कुछ इतना तेज़ी से घट रहा हो और यातायात के साधनों कि गति बेतहासा बढ़ती जा रही हो और हम भी उसी रेस में शामिल हैं। ऐसे में कुछ भी बुरा होने पर हम कितना बच पाएंगे अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। फिर तो उसी कफ़न, आग और मिट्टी का सवाल होगा ..…   
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