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कौन जीता? कौन हारा?

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अभी हाल में जो घटनाएँ घटी या घट रही हैं, उनके पीछे की सोच-समझ, प्रतिक्रिया को शायद मै समझ नहीं पा रहा हूँ ? इसी  वजह से एक अज़ीब सी उधेड़ बुन चलती रही है कि मै गुस्से में हूँ या फिर दुःखी हूँ , यह समझ पाना मुश्किल हो रहा है। यहाँ रिश्तों, सम्बन्धों का ताना-बाना टूट रहा है या फिर और जटिल होता जा रहा है। जहाँ हमारे सामाजिक, पारिवारिक मूल्यों का खोखलापन अब हमें चिढ़ाने लगा है और कथित शिक्षित वर्ग न तो किसी प्रकार के नए नैतिक मूल्यों का सृजन कर पा रहा है और न ही पुराने मानकों से बाहर निकल पा रहा है। वह एक साथ सब कुछ होना चाहता है।  जिसके लिए वह सभ्यता-संस्कृति कि चासनी में रंगे तमाम आयोजनों में अपनी औकात से अधिक पैसा खर्च कर रहा है तो दूसरी तरफ आधुनिक दिखने के लिए तमाम गैर ज़रूरी दूसरे कामों को भी करने को उतना ही बेचैन है।  यह एक अज़ीब विडम्बना है कि किसी भी व्यक्ति के आधुनिक होने का अंत उसी वक़्त हो जाता है जब वह खुद के बच्चों के बारे में सोचना शुरू करता है। सभी माँ-बाप सीधा, सरल और आज्ञाकारी संतान चाहते हैं और उनको लगता है कि ढेर सारा पैसा कमाने और फिर उसे महँगे से स्कूल में  ड़ाल देने से उ