TATA

 रतन टाटा जी को श्रद्धांजली 

आने जाने का अंतहीन सिलसिला कुछ भी किसी के बगैर रुकता नहीं है सब जैसे था वैसे ही चलता रहता है अगर कोई यह सोचता है कि उसके बगैर दुनिया ठहर जाएगी तो उसे मालूम होना चाहिए कि उसके बगैर भी दुनिया चल रही थी और आगे भी ऐसे ही चलती रहेगी हो सकता है और बेहतर होगी या और बदतर होगी यह भला किसे मालूम है कि कब क्या कहां कैसे होगा बस हमको कोशिश करते रहना हैं और चीजें जैसे होनी चाहिए वैसी ही होती रहें, यह और है कि हमें लगता है कि वह ठीक नहीं है पर यह हमारी अपनी व्यक्तिगत धारणा है कि हम चाहते हैं कि कोई चीज कैसी रहे मेरे अनुकूल रहे मैं जैसा चाहता हूं वैसा रहे पर यह मुमकिन नहीं है उसका होना अपने आप में एक स्वतंत्र तरीके से होना है जिस पर हमारा नियंत्रण नहीं हो सकता है बस इस बात को जो लोग स्वीकार कर लेते हैं वह बहुत आगे निकल जाते हैं उन्हीं में से रतन टाटा, ऐसे ही शख्स थे जिन्हें उनके रहते और जाने के बाद भी उतने ही सम्मान से याद किया जाता है और किया जाता रहेगा क्योंकि जो लोग अपनी जिंदगी सिर्फ अपने लिए नहीं जीते वह कहीं आगे निकल जाते हैं कालजयी हो जाते हैं अमर हो जाते हैं और इतिहास के पन्नों में दर्ज हो जाते हैं अविस्मरणीय हो जाते हैं उद्योग लगाने पैसा कमाने और बहुत सी चीज करने और न करने वाले ना जाने कितने अनगिनत लोग हैं जो इस दुनिया में आते हैं और फिर चले जाते हैं और उनके आने-जाने का पता भी लोगों को नहीं चलता है कितने सारे उद्योगपति आए ढ़ेर सारा पैसा बनाया और बहुत बड़ा उद्योग भी खड़ा किया मगर उनके लिए वह सम्मान नहीं है जो हमारे लिए टाटा का है किसी भी आदमी सामने टाटा का उल्लेख करिए, नाम लीजिए उसे लगता है कि आप किसी सम्मानित चीज और व्यक्ति के बारे में बात कर रहे हैं तो उसके पीछे मूल कारण टाटा की ईमानदारी है जो देश और समाज के लिए समर्पित है भारत को आत्मनिर्भर बनानेमें जिसने लगातार कोशिशें की और भारत को एक बेहतरीन समाज में परिवर्तित करने कि कोशिशों में टाटा का भी अपना योगदान है।

धन का इस्तेमाल अगर जन के लिए न हो तो धन की कोई उपयोगिता और प्रासंगिकता नहीं रह जाती है क्योंकि आप कामाएंगे खाएंगे और इस दुनिया से विदा हो जाएंगे और आपको कोई याद नहीं करेगा आखिर क्यों याद करें आपके धन और सामर्थ्य से उसके जीवन में भला क्या बदलाव आया? इस समाज और देश को आपने क्या दिया इसी वजह से तो आप याद किए जाएंगे कि आपने क्या दिया आपने क्या लिया इसके लिए आप याद नहीं किए जाएंगे क्योंकि जो लोग आपको याद करेंगे उनके हाथ आपसे क्या लगा उसे याद किया जाएंगा।
तो जो हमारा टाटा समूह है टाटा के लोग हैं खासतौर पर अगर देखा जाए तो जमशेदजी टाटा हों फिर रतन जी टाटा जैसे लोग टाटा की विरासत को जिस तरीके से आगे बढ़ाया है और धन को उन्होंने सिर्फ अपनी निजी संपत्ति की तरह नहीं देखा और जो गांधी का ट्रस्टीशिप सिद्धांत है उसे बेहतर ढंग से अगर किसी ने समझा है हमारे देश में उसमें टाटा सबसे आगे माने जाएंगे दिखावा, प्रदर्शन से दूर सादगी सहजता के सबसे बड़े प्रतीक और सच मानिए तो देशभक्त और समाज का पथ प्रदर्शक होना है तो उसके लिए टाटा का तरीका बेहतरीन है।

सोचिए हमारे लोगों के पास जैसे ही चार पैसे आते हैं कैसे लोग बुलबुल की तरह उछलने लग जाते हैं और समाज में बड़े ही अनियंत्रित और असभ्य तरीके से पेश आने लगते हैं उनका मकसद सिर्फ इतना रहता है कि वह साबित करें कि वह कितने बड़े आदमी हो गए हैं और इस कोशिश में एकदम नालायक मूर्ख नकारे साबित होते हैं क्योंकि धन आ जाने से और उसका गंदा प्रदर्शन करने से अआप बड़े आदमी नहीं बन जाते।
अगर आपको ऐसा लगता है तो निश्चित रूप से आप में बुद्धि की थोड़ी कमी है आप सिर्फ एक दुकान हो और आप निर्जीव चीजों को इतना महत्व देते हैं इससे सिर्फ इतना ही पता चलता है कि आप अंदर से खोखले हो। जब आप अंदर से गहरे तक भरे होते हैं, तो समझदारी भरा भी सहजता से सामने आने लगती है और आप में ज्ञान की थोड़ी सी भी पूंजी पूंजी आते ही, यकीन मानिए आप तृप्त हो जाते हैं आपको किसी दिखावे प्रदर्शन की जरूरत नहीं रहती है। तो टाटा इसी तृप्ति का नाम है और रतन टाटा इसके सबसे बड़े प्रतीक है तो हमारी आज की पीढ़ी जिसने रतन टाटा को देखा है सच्चाई ईमानदारी और लगन से कैसे उद्योग चलाया जा सकता है और उसको समझ में कैसे स्थापित किया जा सकता है जो लोगों की पहचान स्वाभिमान और सम्मान का प्रतीक बन जाए वह हमें टाटा से सीखना चाहिए और इस चीज के लिए टाटा को धन्यवाद और रतन टाटा जी को विनम्र श्रद्धांजलि
💐💐💐💐🙏🙏🌹🌹💐💐

सोशल नेटवर्क से-

मैं आपका चेहरा याद रखना चाहता हूं ताकि जब मैं आपसे स्वर्ग में मिलूं, तो मैं आपको पहचान सकूं और एक बार फिर आपका धन्यवाद कर सकूं।

जब एक टेलीफोन साक्षात्कार में भारतीय
अरबपति रतनजी टाटा से रेडियो प्रस्तोता ने पूछा:

"सर आपको क्या याद है कि आपको जीवन में सबसे अधिक खुशी कब मिली"?

रतनजी टाटा ने कहा:
"मैं जीवन में खुशी के चार चरणों से गुजरा हूं, और आखिरकार मुझे सच्चे सुख का अर्थ समझ में आया।"

●पहला चरण धन और साधन संचय करना था।
लेकिन इस स्तर पर मुझे वह सुख नहीं मिला जो मैं चाहता था।

●फिर क़ीमती सामान और वस्तुओं को इकट्ठा करने का दूसरा चरण आया,,,लेकिन मैंने महसूस किया कि इस चीज का असर भी अस्थायी होता है और कीमती चीजों की चमक ज्यादा देर तक नहीं रहती।

●फिर आया बड़ा प्रोजेक्ट मिलने का तीसरा चरण। वह तब था जब भारत और अफ्रीका में डीजल की आपूर्ति का 95% मेरे पास था। मैं भारत और एशिया में सबसे बड़ा इस्पात कारखाने मालिक भी था,,,लेकिन यहां भी मुझे वो खुशी नहीं मिली जिसकी मैंने कल्पना की थी।

●चौथा चरण वह समय था जब मेरे एक मित्र ने मुझे कुछ विकलांग बच्चों के लिए व्हील चेयर खरीदने के लिए कहा।
लगभग 200 बच्चे थे। दोस्त के कहने पर मैंने तुरन्त व्हील चेयर खरीद लीं...लेकिन दोस्त ने जिद की कि मैं उसके साथ जाऊं और बच्चों को व्हील चेयर भेंट करूँ। मैं तैयार होकर उनके साथ चल दिया।
वहाँ मैंने सारे बच्चों को अपने हाथों से व्हील चेयर दीं।मैंने इन बच्चों के चेहरों पर खुशी की अजीब सी चमक देखी।मैंने उन सभी को व्हील चेयर पर बैठे, घूमते और मस्ती करते देखा।
यह ऐसा था जैसे वे किसी पिकनिक स्पॉट पर पहुंच गए हों, जहां वे बड़ा उपहार जीतकर शेयर कर रहे हों।

मुझे उस दिन अपने अन्दर असली खुशी महसूस हुई। जब मैं वहाँ से वापस जाने को हुआ तो उन बच्चों में से एक ने मेरी टांग पकड़ ली।मैंने धीरे से अपने पैर को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन बच्चे ने मुझे नहीं छोड़ा और उसने मेरे चेहरे को देखा और मेरे पैरों को और कसकर पकड़ लिया।
मैं झुक गया और बच्चे से पूछा: क्या तुम्हें कुछ और चाहिए?

तब उस बच्चे ने मुझे जो जवाब दिया, उसने न केवल मुझे झकझोर दिया बल्कि जीवन के प्रति मेरे दृष्टिकोण को भी पूरी तरह से बदल दिया।

उस बच्चे ने मुझसे कहा था-

"मैं आपका चेहरा याद रखना चाहता हूं ताकि जब मैं आपसे स्वर्ग में मिलूं, तो मैं आपको पहचान सकूं और एक बार फिर आपका धन्यवाद कर सकूं।"

उपरोक्त शानदार कहानी का मर्म यह है कि हम सभी को अपने अंतर्मन में झांकना चाहिए और यह मनन अवश्य करना चाहिए कि, इस जीवन और संसार और सारी सांसारिक गतिविधियों को छोड़ने के बाद आपको किसलिए याद किया जाएगा?
श्रद्धांजलि🙋‍♂

क्या कोई आपका चेहरा फिर से देखना चाहेगा, यह बहुत मायने रखता है🙋‍♂
नमन 🙏🏻

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आज का प्रजातंत्र
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जेबकतरे का बयान
मनोज कुमार पांडेय

आप बहुत अच्छे आदमी हैं। अभी आपकी एक आवाज पर मेरा कचूमर निकल गया होता पर आपने बस मेरा हाथ पकड़े रखा। मैं शर्त लगाकर कह सकता हूँ कि आप या तो लेखक हैं या पत्रकार । नहीं भी हैं तो आपके भीतर एक कलाकार का दिल धड़कता है। नहीं तो बताइए कि मैं आपका पर्स मारनेवाला था और आप मुझे यहाँ मेरी पसन्दीदा जगह पर बैठाकर बीयर पिला रहे हैं। आपने एक थप्पड़ तक नहीं मारा मुझे। कैसे आदमी हैं आप? आजकल इतना भला आदमी होना भी ठीक नहीं।
वैसे आपने बहुत अच्छा किया जो वहाँ पर शोर नहीं मचाया। आप अन्दाजा भी नहीं लगा सकते कि भीड़ मेरा क्या हाल करती! मैं भीड़ की तलाश में ही दिल्ली आया था। भीड़ बचाती भी है और भीड़ मार भी देती है। पूरे दो बार भीड़ बस मेरी जान ही ले लेने वाली थी। पहली बार इलाहाबाद में लक्ष्मी टाकीज में पर्स उड़ाते हुए पकड़ा गया। इतनी मार पड़ी कि महीनों उठने का होश नहीं रहा। पर इसी के साथ मेरा डर भी खतम हो गया। हमेशा के लिए।
शुरू में बस एक-दो मिनट तक दर्द हुआ, हालाँकि यह दर्द इतना भीषण था कि आज भी उसे याद करके काँप जाता हूँ। पर बाद में मैं किसी भी तरह के दर्द के एहसास से मुक्त हो गया। जब मुझे लोग लात-घूसों से मार रहे थे, मेरी हड्डियां तोड़ रहे थे को मैं उन्हें उन्हीं नजरों से देख रहा था जिन नजरों से वहाँ मौजूद तमाशाई इस सब को देख रहे थे। बाद में तो खैर मार रहे थे, मेरी हड्डियाँ तोड़ रहे थे तो मैं उन्हें उन्हीं नजरों से देख रहा था मुझे इसका भी होश नहीं रहा। वह तो कहिए पुलिस आ गई नहीं तो आपको
यह कहानी कोई और ही बैठकर सुना रहा होता।
भीड़ का जवाब भीड़ ही होती है। वहाँ इलाहाबाद में इतनी भीड़ नहीं थी। भीड़ की तलाश में मैं मुम्बई चला गया। मुम्बई लोकल, जिसके बारे में मुम्बई का एक अखबार पहले ही पन्ने पर एक कोना छापता है, 'कातिल 'लोकल' के नाम से। जिसमें छपता है सात मरे, सत्रह घायल। उसी लोकल में मेरा कारोबार चल निकला पर जल्दी ही मेरे मौसेरे भाइयों ने मुझे पकड़ लिया और बहुत मारा।
मार खाना मेरे लिए कोई नई बात नहीं थी पर यह बात मुझे बहुत बुरी लगी कि वे मारते हुए मराठी में गालियाँ दे रहे थे। मुझे किसी ऐसी भाषा में गाली खाना बहुत बुरा लग रहा था जो मैं नहीं समझता था। मुझे पता होना चाहिए था कि मुझे कौन-कौन सी गालियाँ दी जा रही हैं जिससे कि कभी मौका मिलने पर मैं उन्हें सूद समेत वापस कर सकता।

जब आप मेरे धन्धे में होते हैं तो आपको हमेशा मौके की तलाश में रहना पड़ता है। और तब पता चलता है कि मौकों की कोई कमी नहीं है। हर कोई आपको मौका देना चाहता है। लोग बहुत दयालु हैं। वे नहीं चाहते कि आप भूखे रहें या कि दिन भर में आपको बीयर की एक बोतल तक नसीब न हो।
जैसे अभी एक दिन सुबह से खाली हाथ भटक रहा था कि राजीव चौक में विज्ञापन के लिए लगाई गई एक स्क्रीन पर ब्ल्यू फिल्म चलने लगी। अब बताइए भला, ब्ल्यू फिल्म भी आजकल कोई ऐसी चीज है जिसे यूँ देखा जाय! पर लोग इस तरह से डूब कर देखने लगे कि जैसे जीवन में पहली बार देख रहे हों। कई तो वीडियो बना रहे थे। मैंने डेढ़ मिनट के अन्दर दो लोगों का पर्स उड़ा लिया।
इस धन्धे में धैर्य सबसे जरूरी चीज है। जरा सी भी जल्दबाजी जानलेवा हो सकती है। मुझे भी यह बात धीरे-धीरे ही समझ में आई। जब मैं इलाहाबाद से मुम्बई के रास्ते दिल्ली आया तो दूसरी जो चीज मुझे साधनी पड़ी वह
धैर्य ही थी।
पहली चीज थी दिल्ली की मैट्रो। शुरुआत में मैट्रो मुझे किसी दूसरी ही दुनिया की चीज लगती थी। मैट्रो स्टेशन पर ऊँची-ऊँची बिजली से चलने वाली सीढ़ियाँ मुझे डरा देतीं। बहुत पहले मैंने किसी अखबार में पढ़ रखा था कि दिल्ली एयरपोर्ट पर एक छोटी सी लड़की इन सीढ़ियों में फँसकर चटनी बन गई थी। मैं इन सीढ़ियों में अक्सर खुद को फँसा हुआ देखता और मेरे शरीर में एक सिहरन सी दौड़ जाती। कँपकँपी होती।
ऊपर से मुम्बई और दिल्ली की भीड़ में भी बड़ा अन्तर था। मुम्बई में लोग जब भाग रहे होते तो लगता कि वह किसी का पीछा कर रहे हैं जबकि दिल्ली की भीड़ इस तरह भागती दिखाई देती जैसे उसका कोई पीछा कर रहा हो। शुरू में मैं इस अन्तर का मतलब समझने की कोशिश करता रहा जबकि यह कसरत ही पूरी तरह से गैरजरूरी थी। मेरे लिए दोनों ही स्थितियाँ शानदार थीं। दोनों ही स्थितियों में मेरे जैसों पर कोई नजर भी नहीं डालता था ।
मैं आपकी बात नहीं कर रहा हूँ । पर सच यही है कि मेरे जैसों पर कभी कोई ध्यान नहीं देता। आपको पता है, मैंने पीएचडी कर रखी है! कई प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल होते-होते रह गया। फिर करीब पन्द्रह लाख रुपये उधार लेकर दरोगा बनने के लिए रिश्वत दी। रिजल्ट आता उसके पहले ही मामला कोर्ट चला गया। बीच में दो सरकारें आईं और गईं। अभी पता चला है कि फिर से परीक्षा ली जाएगी।
मेरे पास इतना समय नहीं था। मैं उन लोगों से मुँह छुपाते हुए भाग रहा था जिनसे मैंने उधार लिया हुआ था। भागते-भागते पहले मुम्बई पहुँचा और फिर एक दिन दिल्ली आ गया। दिल्ली में मेरा एक दोस्त था जो एक राष्ट्रीय अखबार में मुख्य संवाददाता था और ऑफिस में बैठकर प्लास्टिक पीटा करता था। अभी थोड़ी देर में वह भी आ रहा होगा। बीयर पीने और मिलने-बैठने के लिए यह जगह हम दोनों की फेवरेट है।
वह न होता तो मैट्रो मुझे और हराती। जब स्वचालित सीढ़ियों पर पाँव रखने में मैं हकबका रहा होता हाथ पकड़कर ऊपर खींच लेता। मुझे भी मजा आने लगा। बिना मेहनत किए, ऊपर पहुँच जाना भला किसे नहीं
अच्छा लगता।
फिर तो लाइफ इन ए पैट्री शुरू हो गई। भीतर तरह-तरह के लोग थे। पूरी दुनिया को ठेंगे पर रखते हुए एक-दूसरे में डूबे लड़के-लड़कियों, मैं उनमें अक्सर अपनी इच्छाओं को जी रहा होता। बुरे से बुरे समय में भी मैंन उन पर हाथ साफ करने की कोशिश कभी नहीं की। बल्कि कई बार तो मैं उन्हें छुप-छुपकर इतने लाड़ से देख रहा होता कि अपने असली काम पर से मेरा ध्यान ही हट जाता।
धीरे-धीरे मैंने खुद पर काबू पा लिया, शो मस्ट गो आन। तब जो दुनिया मेरे सामने खुली वह मुझे कई बार अभी भी अचम्भित करती है। मैट्रो में ज्यादातर लोगों को एक-दूसरे से कोई मतलब नहीं था। हालाँकि वे एक-दूसरे को देखकर मुस्कराते, आँखों में पहचान का एक हल्का सा इशारा उभरता और गुम हो जाता। इसके बाद तो कानों में इँसा हुआ स्पीकर था। तरह तरह का गीत-संगीत था, डांस था, शार्ट फिल्में थीं, कामेडी वीडियो थे, बाबाओं के प्रवचन थे, यूट्यूब पर चलने वाले धारावाहिक थे और भी न जाने क्या-क्या था।
मैट्रो में घुसते ही लोग मैट्रो को भूल जाते और स्मार्टफोन में घुस जाते। मुझे बहुत दिनों तक इस बात पर भी अचरज होता रहा कि इसके बावजूद लोग उसी स्टेशन पर उतर पाते हैं जिन पर उन्हें उतरना होता है। जो लोग स्मार्ट फोन से बचे थे, वे अमूमन अंग्रेजी की सस्ती किस्म की किताबें पढ़ते दिखाई देते। यह एक साथ अपने अंग्रेजी जानने का प्रदर्शन और सुधारने की कोशिश थी। चेतन भगत ऐसे लोगों का शेक्सपीयर था पर यह तो कमउम्र या कि युवाओं की बात थी।
अधेड़ कई बार राजनीतिक चर्चाएँ कर रहे होते। एक राजनीतिक दल के सदस्य यात्रियों के रूप मैं मैट्रो में चढ़ते और जल्दी ही पूरे कोच को राजनीतिक अखाड़े में बदल देना चाहते। डिब्बे का तापमान बढ़ जाता। मेरे लिए ऐसी स्थिति हमेशा काम की होती जब लोगों के सिर गर्म होते। वे भी शिकारी थे, मैं भी। वे अनजाने ही मेरे संभावित शिकारों का ध्यान राजनीतिक और धार्मिक स्थितियों पर ले जाते और लोग जूझने लगते।
जब मैं अपना शिकार चुन रहा होता तो पाता कि कई और दूसरे भी शिकार में लगे होते। कई अधेड़ इस तरह से मोबाइल में आँखें गड़ाए होते जैसे वह किसी बहुत गम्भीर चीज में मुब्तिला हैं और उनकी स्क्रीन पर सामनेवाली लड़की की छातियाँ या टाँगें दिख रही होतीं। कई हाथों में माला फेर रहे होते और उनकी लोलुप निगाहें उन किशोर-किशोरियों पर फिसल रही होतीं जो पूरी दुनिया को भूलकर एक-दूसरे में डूबे होते। इस सब के बीच कभी-कभी दिखने वाले वे लोग बहुत ही पवित्र लगते जो प्रेमचंद, शरत या दोस्तोएव्स्की पढ़ रहे होते। मैं मौका पाकर भी उन्हें छोड़ देता।
दिल्ली मैट्रो का पूरा भूगोल समझ लेने के बाद मैंने राजीव चौक, कश्मीरी गेट, मंडी हाउस या इन्द्रलोक जैसे एक्सचेंज स्टेशनों पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। इसके बाद इफ्को चौक, नोएडा सिटी सेंटर जैसी जगहें थीं।
सारी जगहें मेरे काम की थीं जहाँ भीड़ थी और लोगों का ध्यान अपने से ज्यादा गाड़ी पकड़ने पर था। इसके बाद इसमें कोई अचरज की बात नहीं थी कि उनमें से किसी का पर्स मेरी जेब में पहुँच जाता।
लोगों को तुरन्त पता ही न चलता। कई बार पता चल भी जाता तो लोग इस तरह से ठसाठस भरे होते कि उनकी समझ में ही न आता कि वह किस पर शक करें। सबसे बुरी बात यह होती कि वे शक भी करते तो उन पर जो गरीब और बिखरे हुए दिखते। मैं तो आप देख ही रहे हैं कि किस तरह से टिपटॉप रहता हूँ। लोग धोखा खा जाते हैं। असल बात यह है कि वे धोखा खाते रहना चाहते हैं। वे खुद को बदलना नहीं चाहते।
इसके बावजूद कभी लगे कि शक मुझ पर भी जा सकता है तो सामने वाला अपना शक जाहिर करे उसके पहले ही मैं भी खुद को शिकार घोषित कर देता हूँ। सामने वाले ने जैसे ही कहा कि अरे मेरा पर्स कि पाँच सेकेंड बाद मैं भी चिल्ला पड़ता हूँ अरे मेरी घड़ी...। जबकि मैं घड़ी कभी पहनता ही नहीं। टाइम देखने का काम मोबाइल से चल जाता है। वैसे भी मेरे धन्धे में टाइम का कोई वान्दा नहीं। असली बात है धैर्य। बार-बार टाइम देखने वाला तो शर्तिया पकड़ा ही जाएगा। पर कई बार मेरे जैसे लोग भी पकड़ ही लिए जाते हैं। आखिर आज आपने पकड़ ही लिया। यह अलग बात है कि आप बहुत ही शरीफ व्यक्ति हैं और मुझे बैठाकर बीयर पिला
रहे हैं।
जानते हैं, जैसे लोग तरह-तरह के होते हैं वैसे ही उनका पर्स भी। कामयाबी से हाथ साफ करने के बाद अगला काम पर्स को ठिकाने लगाना होता है। रुपये के अलावा उनमें तरह-तरह के कार्ड्स, परिचय पत्र, तसवीरें, पते, फोन नम्बर, कंडोम या अनवांटेड-72 जैसी गोलियाँ, शाम को घर ले जानेवाले सामानों की लिस्ट और कई बार चिट्ठियाँ भी होती हैं।
तमाम लोग अपनी-अपनी आस्था के हिसाब से देवी-देवताओं की तसवीरें, तांत्रिक त्रिभुज या तरह-तरह के फूल, अभिमंत्रित धागे, कचनार या कि समी की पत्तियाँ रखते। यह अलग बात है कि इसके बावजूद उनका पर्स मेरे हाथ में होता और मैं इन सबको निकाल बाहर करता । पर एक ऐसी चीज है जिसे मैं कभी नहीं फेंक पाता। तसवीरें फेंकते हुए मेरे हाथ काँपने लगते हैं।
आपको भरोसा नहीं होगा पर मेरे कमरे में कई फाइलें उड़ाई गई पस से प्राप्त तसवीरों से भरी पड़ी हैं। मुझे अपने कारनामों का हिसाब रखने का कोई शौक नहीं पर तसवीरें पता नहीं क्यों मैं नहीं फेंक पाता। नहीं मैं ईश्वर या देवी-देवताओं वाली तसवीरों की बात नहीं कर रहा हूँ।
मैं तो उन तसवीरों की बात कर रहा हूँ जो मेरे द्वारा शिकार किए गए व्यक्तियों के प्रिय व्यक्तियों की होती है। बच्चे, पत्नी, प्रेमिका, किसी दोस्त या फिर माँ या बाप की तसवीर। मैं उन तसवीरों पर वह तारीख और जगह लिखता हूँ जहाँ से वे मेरे पास आईं। खाली समय में मैं अक्सर उन तसवीरों को निहारते हुए पूरा-पूरा दिन बिता देता हूँ। काश कि वे तसवीरें मैं कभी उन्हें वापस कर पाता जिन्होंने उन्हें सँजोकर रखा हुआ था। मैं भी उन्हें उतने ही प्यार से अपने पास रखना चाहता हूँ।
कई बार मैं उन तसवीरों में गुम होकर उदास हो जाता हूँ। कौन हैं वे लोग? उनका उस व्यक्ति से क्या रिश्ता रहा होगा जिनका मैंने शिकार किया? तब मेरे भीतर एक बहुत ही बेसब्र इच्छा जोर मारती है कि मैं कभी उन लोगों से मिल पाऊँ। उनसे अपने किए की माफी माँगूँ कि मैंने उन्हें उस व्यक्ति से दूर कर दिया जो उन्हें इस तरह से अपने कलेजे से लगाकर रखता था।
यह सब सोचते हुए कई बार मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं। कमाल की बात यह है कि शुरुआती दिनों के अलावा मैंने अपने शिकारों के बारे में कभी नहीं सोचा। यह साधने में थोड़ा वक्त जरूर लगा मुझे पर यह मैंने कर लिया। आप पढ़े-लिखे व्यक्ति लग रहे हैं। आपको देखकर ही पता चल जाता है कि आपके भीतर एक कलाकार छुपा हुआ है। आप बताएँगे कि वह तसवीरें आज तक मैं फेंक क्यों नहीं पाया?
अरे नहीं, उन लोगों का उधार मैंने अभी तक नहीं चुकाया है। आप सोचेंगे कि अब तो मेरे पास बहुत सारे पैसे होंगे, चुका क्यों नहीं देता पर यह सच नहीं है। मेरे पास कई बार अगले दिन की चाय का भी पैसा नहीं होता। जो कमाता हूँ सब खर्च हो जाता है। आजकल वैसे भी लोग पर्स में भला कितने पैसे रखते हैं? और कभी हो भी गए तो भला क्यों चुकाने जाऊँगा ।
आप उन लोगों को नहीं जानते। वे मेरे ऊपर इतना ब्याज लाद देंगे कि उसे चुकाने के लिए मुझे डकैती ही डालनी पड़ेगी। यहाँ सब कुछ शान्ति से चल रहा है। मैं चाहता हूँ कि सब कुछ इसी तरह से चलता रहे। आज तो आप भी मिल गए और इतने इत्मीनान से बैठकर मेरे साथ बात भी कर रहे हैं। मैं बता नहीं सकता कि मैं अपने धन्धे से कितना खुश हूँ। यह न होता तो भला आप आज कैसे मिलते।
देखिए मैंने आपको अपनी पूरी आपबीती सुनाई। आप पुलिस नहीं है अच्छे आदमी हैं। कलाकार हैं। आप पुलिस होते तो मैं दूसरी कहानी सुनाता। एक बार तो मैंने पुलिस वालों को ऐसी कहानी सुनाई थी कि दो पुलिसवाले थे और दोनों ही इमोशनल हो गए। कहानियाँ अभी भी असर करती हैं बय उन्हें नई और अनोखी और अविश्वसनीय होना चाहिए। लोग अविश्वसनीय कहानियों पर ही सबसे ज्यादा भरोसा करते हैं।
खैर छोड़िए, आज का पूरा समय तो आप को अपनी रामकहानी सुनाने में बीत गया। यह पहली बार है कि मैंने किसी पर्स को हाथ लगाया और वह अब भी वहीं मौजूद है जहाँ उसे नहीं होना चाहिए था। कम कम एक बोतल बीयर तो और पिलाते जाइए। शरीफ कहे जाने वाले लोग ती हर मोड़ पर चार टकराएँगे। आज के पहले आपने कभी किसी जेबकतरे के साथ बैठकर बीयर पी है?
आप पैसे खर्च करें तो मैं थोड़ी और देर तक आपको यह मौका देने के लिए तैयार हूँ।

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पूरी रात करवटें बदलते बीत गई थीं। जिस काम के लिए गांव आया था, वह पूरा नहीं हो पाया था। भइया से पैसे मांगने की कोशिश कई बार की, लेकिन हर बार भाभी ने बात को बड़ी सफाई से टाल दिया। मन बार-बार यही सोच रहा था कि क्या भइया जान-बूझकर भाभी को आगे कर देते हैं? या भाभी ही उनकी बातों को अपना बना कर मुझसे कहती हैं?

“तुमसे क्या छुपा है, कैसे घर चलाते हैं, हम ही जानते हैं,” भाभी का यह जवाब बार-बार कानों में गूंजता था। लेकिन यह आवाज़, शब्द भाभी के नहीं, भइया के ही लगते थे। घर की हालत देखकर मेरा दिल भर आता था—बच्चों के महंगे कपड़े और खिलौने, जबकि मेरे बेटे के पास वही पुराने, रंग उड़े कपड़े। मन में एक खिन्नता थी, और पत्नी ऊषा के ताने भी कानों में गूंज रहे थे, “आपके हिस्से की खेती का हिसाब भी नहीं मांगते!”

इसी बेचैनी में सुबह हो गई। मां की आवाज़ खिड़की से आई, “जाग गया? आकर मेरे पेड़-पौधे देख।” चाहकर भी मना नहीं कर पाया और बाहर निकला। गुस्से में मां पर बरस पड़ा, “घर में इतने लोग हैं, लेकिन पौधों में पानी आप ही डालती हैं! पाइप क्यों रखी है, जब बाल्टी से ही पानी डालना है?”

बिना किसी प्रतिक्रिया के, मां ने अचानक मेरी जैकेट की जेब में रुपयों का बंडल डाल दिया। “तुझे बिट्टू के एडमिशन के लिए चाहिए होंगे ना? चुपचाप अटैची में रख दे।” मेरा मन विचलित था—पहला सवाल यह था कि मां को कैसे पता चला मुझे पैसे चाहिए, और दूसरा कि क्या ये पैसे भइया से लिए गए हैं?

मां ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “नहीं रे, दो पुरानी अंगूठियां थीं, बेच दीं। ये देखो, सबसे अच्छे फूल इसी पौधे में आते हैं, जो तुम बीकानेर से लाए थे।” मां के इस अचानक विषय परिवर्तन से मन थोड़ा हल्का हुआ, लेकिन तभी भाभी पास आती दिखीं।

“क्या हुआ? इतनी सुबह उठ गए?” भाभी की नजरें हमारी बातचीत का सिरा पकड़ने की कोशिश कर रही थीं। मैंने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “मां से पूछ रहा था कि पाइप होते हुए भी मग से पानी क्यों डालती हैं।” जेब में पड़े नोटों को छूते हुए आंखें भीग गईं।

मां ने धीरे से अपनी आंखें पोंछी और कहा, “वह पौधा सबसे दूर है, वहां तक पाइप नहीं पहुंचती... इसलिए।”
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Comments

  1. TATA श्रद्धएय हैं और आदर्श हैं

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  2. भारत को आत्मनिर्भर बनानेमें जिसने लगातार कोशिशें की और भारत को एक बेहतरीन समाज में परिवर्तित करने कि कोशिशों में टाटा का भी अपना योगदान है।

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