कौन जीता? कौन हारा?


अभी हाल में जो घटनाएँ घटी या घट रही हैं, उनके पीछे की सोच-समझ, प्रतिक्रिया को शायद मै समझ नहीं पा रहा हूँ ? इसी  वजह से एक अज़ीब सी उधेड़ बुन चलती रही है कि मै गुस्से में हूँ या फिर दुःखी हूँ , यह समझ पाना मुश्किल हो रहा है। यहाँ रिश्तों, सम्बन्धों का ताना-बाना टूट रहा है या फिर और जटिल होता जा रहा है। जहाँ हमारे सामाजिक, पारिवारिक मूल्यों का खोखलापन अब हमें चिढ़ाने लगा है और कथित शिक्षित वर्ग न तो किसी प्रकार के नए नैतिक मूल्यों का सृजन कर पा रहा है और न ही पुराने मानकों से बाहर निकल पा रहा है। वह एक साथ सब कुछ होना चाहता है।  जिसके लिए वह सभ्यता-संस्कृति कि चासनी में रंगे तमाम आयोजनों में अपनी औकात से अधिक पैसा खर्च कर रहा है तो दूसरी तरफ आधुनिक दिखने के लिए तमाम गैर ज़रूरी दूसरे कामों को भी करने को उतना ही बेचैन है। 
यह एक अज़ीब विडम्बना है कि किसी भी व्यक्ति के आधुनिक होने का अंत उसी वक़्त हो जाता है जब वह खुद के बच्चों के बारे में सोचना शुरू करता है। सभी माँ-बाप सीधा, सरल और आज्ञाकारी संतान चाहते हैं और उनको लगता है कि ढेर सारा पैसा कमाने और फिर उसे महँगे से स्कूल में  ड़ाल देने से उनका काम हो जाएगा। हमारा नव धनाड्य वर्ग, सबकुछ जल्दी से खरीद लेना चाहता है। अब उसके पास इतना पैसा आ गया है कि मोल-भाव करने में उसे बेइज्ज़ती महसूस होती है। उसे सब कुछ ब्राण्डेड चाहिए, बच्चों कि परवरिश भी कुछ ऐसे ही होने लगी है जहाँ भावना शून्य श्रेष्ठ मशीनो को बनाने कि कोशिश हो रही है, जो किसी से न हारे। 
आज हमारे पास सिर्फ अपनों के लिए वक़्त नहीं है बाकी हर काम के लिए हम खाली हैं। ऐसे में घर का कोई सदस्य क्या कर रहा या कैसा है यह दूसरे सदस्य को पता नहीं है। फिर जब कोई बड़ा हादसा होता है तो यही लगता है कि जैसे हमें अचानक नींद से जगा दिया गया हो, यह नींद से जागना भी आजकल ज्यादा वक़्त के लिए नहीं होता है, हम फिर उन्हीं आदत पढ़ चुकी, लकीरों पर वैसे ही चलने लग जाते हैं। 
हमारे चारों तरफ, चाहे वह हमारा घर, आफिस, सड़क कोई भी जगह हो, जो कुछ भी हो रहा है, उसके लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है, बल्कि यह हमारे सोचने, समझने और व्यवहार करने का ढंग ही है कि हम अपने दुराग्रहों से बहार नहीं निकल पा रहें हैं। मेरे घर में कुछ भी होता है तो उसकी जिम्मेदारी मेरी है, चाहे वह मेरे माँ-बाप, भाई-बहन, पत्नी, बच्चे कोई भी हो, मै खुद को उनसे अलग नहीं कर सकता। इसी तरह जब मै खुद के परिवार का थोडा सा विस्तार करता हूँ तो इसमे मेरा पास पड़ोस, मोहल्ला........न चाहते हुए भी ए और बहुत सारी चीज़े  मुझसे जुड़ जाते हैं और यह मै ही तो पूरे देश-समाज कि महत्वपूर्ण कड़ी हूँ और ऐसे में जब भी किसी कड़ी को नुकसान पहुंचता है तो तकलीफ होनी स्वाभाविक है। 
निश्चय ही मेरे दुःख का कारण मेरी व्यक्तिगत क्षति है, मै किसी पर आरोप भी नहीं लगा सकता क्योकि इसका जिम्मेदार भी मै ही हूँ। वैसे भी इस कड़ी का हिस्सा होने के कारण हर हाल में मेरी हार निश्चित है। अगर मै माता-पिता हुआ तो मेरी खैर नहीं....इस ताने-बाने में जीतने के लिए कुछ नहीं है क्योकि हर सिरा न जाने कैसे घूम फिरके मुझे से आ मिलता है और मै जवाबो कि तलाश नहीं कर पाता हूँ ....      
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Comments

  1. इतना समझने के लिए बहुत फुरसत चाहिए

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  2. दुनिया के रंग देखो भइया
    कितनी रंग बिरंगी है
    शातिर है यह खेल उसी का
    और वही खिलाड़ी है

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