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आओ जाति-जाति करते हैं

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हमारे यहाँ जातीयों की भूमिका समझनी हो तो चुनाव प्रक्रिया और परिणामों पर गौर फरमाइए, जहाँ अधिकांश लोगों की जातीय निष्ठा ही उनकी कथित चेतना है, इस बात से आमतौर पर खुद को बौद्धिक मानने वाले सार्वजनिक रूप से सहमत नहीं होंगे और इस जातीय विभाजन को स्वाभिमान और सुरक्षा बोध का प्रतीक बनाए रखना ही राजनीतिक दलों की सफलता है, क्यों कि जब मुद्दे भावात्मक हो जाते हैं तब कोई सवाल जवाब नहीं होता और नेताओं का काम महज नारों से ही हो जाता है।        इस पूरी प्रक्रिया में एक प्रबुद्ध मतदाताओं का भी वर्ग होता है जो हर किसी से हर बात पर नाराज होता है और उसके पास हर समस्या के लिए एक सुझाव है। बस वह वोट नहीं डालता और वोट न डालने में जातीय चेतना वाले लोग तब शामिल हो जाते हैं जब वह अपनी जाति वाले दल से नाराज होते है क्योंकि वह किसी और को वोट नहीं दे सकते। फिर यही नकारात्मक voting ही समीकरणों के इतर मजेदार परिणाम लाता है। तो परिणाम का सारा खेल कौन किससे कितना नाराज है और उस समूह के कितने लोग मतदान नहीं करते इस बात पर निर्भर करता है। बाकी कई और कारण भी होते हैं पर ए वाला काफी मजेदार है.. इस समीकरण को बनाए रखने