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भक्त

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हमारे एक परम मित्र नया-नया मोदी जी से प्रभावित होना शुरू हुए हैं वैसे वो बहुत दिनों से मौके की तलाश में थे कि कोई उचित अवसर मिले और वो भी सिंधिया ही जाऐं। हालांकि राज्य सभा तो नहीं परन्तु भक्त मंडली की अमृत वाणी से स्वयं को अभिसिंचित करने का सौभाग्य उन्होंने हासिल कर लिया है।           बस निरंतर भक्तों की आलोचना करते रहने के कारण थोड़ा बहुत संकोच होना स्वाभाविक है उसी को दूर करना है इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम स्वयं को आलोचकों से विरत होना होता है और भक्ति साहित्य का रसास्वादन करना होता है। ऐसे ही धीरे-धीरे व्यक्ति कब एक चरम भक्त बन जाता है उसे इस बात का ज्ञान ही नहीं होता।    आइए इस प्रक्रिया का थोड़ा मनोविश्लेषण करें कि यह भक्त बनने का प्रथम चरण किस प्रकार होता है। जिसमें व्यक्ति आसानी से यह बात स्वीकार नहीं करता और उसे निरंतर खास तरह के चैनलों से विचारपान करना पड़ता है इसके पश्चात कुछ और दिखाई देना धीरे-धीरे स्वयं ही बंद हो जाता है और वह पूरी तरह मोदी मय होकर, मोदी चालीसा का पठ करने लग जाता है। शुरुआत में किसी और से अपने बारे में यह सुनना, स्वयं के ज्ञान और समझ पर प्रश्न चि

To intellectuals

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आदरणीय बुद्धिजीवियों,        निश्चित रूप से आप एक बड़ी brand हैं (क्योंकि बुद्धिजीवी महिला है)  और आपको लगता है कि आप जितना कह रही हैं उतना ही सही है और बड़ा नाम होने का यही फायदा है कि आपकी किताब और लेख आसानी से बिकता रहता है और बकवास करने पर ज्यादा popular होता है। आपके ऐसे गुणों से सम्पन्न होने की वजह से मीडिया कवरेज की  guarantee तो हो ही जाती है। अभी इनका random साक्षात्कार किसी news channel पर देख रहा था। इसके बाद psephologist आदरणीय महानुभाव जी का भारतीय परंपरा वाला quote जो स्वामी विवेकानंद जी का का उद्धरण था। आपकी बेहतरीन बातें सच में सपनों के सच होने का यकीन पैदा करती हैं। पर आप लोगों की वैचारिक परम्परा से हमारे समाज में क्या वास्तव में कोई बदलाव आया, हम आज तक अपना समाजवाद क्यों नहीं ढूँढ़ पाए और सोचिये भारत जैसे जटिल सामाजिक ताने-बाने में उधार का विचार कब तक सांसे ले सकता है। उसका दम धीरे धीरे घुट रहा है, इस बात को स्वीकार कर लीजिए। हमारे यहाँ का वामपंथी समाजवाद हकीकत से न जाने कितना दूर है और वह किताबों, मीडिया और चंद लोगों के बीच सिमट कर रह गया है, जहाँ सर्वहारा के लिए