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kisan-politics

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आम लोगों के वाजिब हक के लिए हमारे राजनेता कितने संवेदनशील हैं इसका अंदाजा हम भोपाल गैस कांड से लेकर, हाल में हो रहे किसान आन्दोलनों से लगा सकते हैं | जहाँ हर राजनैतिक दल अपनी चुनावी जरूरतों को पूरा करने में लगा है, चुनाव नजदीक आते ही किसी भी मुद्दे का अर्थ पूरी तरह से बदल जाता है. कहीं हिंदी भाषियों पर हमले होने लगते हैं, तो दूसरी तरफ भाषा और संस्कृति कि याद आने लग जाती है या फिर अचानक धर्म और सम्प्रदाय के लिए खतरा उत्पन्न हो जाता है | सारे मुद्दे और जरूरतें नेताओं के हाथ में आते ही राजनीतिक अखाड़े कि मुहरे बन जाती हैं और सत्ता हो या विपक्ष बारी-बारी अपनी रोटियां सकने में लग जाते हैं | आज तक कोई भी बड़ा नेता किसी विरोध प्रदर्शन के दौरान  पुलिस कि लाठी या गोली का शिकार नहीं हुआ | वह हमेशा आम आदमी ही होता है,    जो किसी न किसी तरीके से व्यवस्था का शिकार होता रहता है |                                                                               आज भी देश के सम्मुख सबसी बड़ी समस्या किसानों कि ही है और अब तक किसानों के लिए कोई स्पष्ट नीति बनाने और लागू करने में सभी  सरकारे नाकाम रही हैं |

सलाम-जापान

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नियागी,फुकुशिमा में सिर्फ तबाही ही नज़र आती है, सब कुछ कूड़े के ढेर में तब्दील हो गया है. सुनामी की चपेट में आए ए वो जगह हैं जो मनुष्य और प्रकृति के बीच हो रहे टकराव का क्रूर परिणाम हैं या हम कहें कि प्रकृति कैसे मनुष्य कि सारी तैयारियों को कुछ पलों में नेस्तनाबूत कर देती है कि सारे  सिद्धांत और खोज नाकाफी लगने लग जाते हैं | आदमी प्रकृति के आगे हर बार बौना साबित हो जाता है. जब भी ए घटनाएँ घटती है, हमारे सीखने और समझाने के लिए ढेर सारी चीजें छोड़ जाती हैं. अब यह हमारे ऊपर है कि हम अपने जीने और रहने के तरीके कैसे बनाते और अपनाते हैं. इन घटनाओं के बाद घटने वाली दुर्घटनाओं में एक बड़ी सीख हर बार यह तो मिलती ही है कि प्रकृति से हम जीत नहीं सकते. इसलिए टकराव का रास्ता छोड़ना होगा. अपने विकास, उपलब्धियों और खोजों को प्रकृति से जोड़ना आवश्वक होता जा रहा है, विकास में संघर्ष और असंतुलन को दूर करना सभी सरकारों और संगठनों कि पहली प्राथमिकता होनी चाहिए क्योकि बाज़ार और उसका मुनाफा तभी हासिल होगा जब लोग बचे होंगे. नहीं तो इस आत्मघाती विकास को प्राकृतिक घटनाएँ महाविनाश में बदल देंगी.