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Happy New Year | फिर नया वर्ष?

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लोकपाल पर संसद में ज़ोरदार, हंगामेदार या हम कहें मनोरंजक बहस हुई. जिसमे विपक्ष ने सरकार कि शानदार घेराबंदी की और लम्बी कवायद के बाद भी देश को कुछ नहीं हासिल हुआ. सरकार और विपक्ष आरोप-प्रत्यारोप के नए तरीके खोज़ते रहे, लोकपाल के इंतजार में एक साल और बीत गया. मेरी गलती नहीं है का दर्शन फिर से मंडित किया जाता रहा. संसद में लोकपाल सत्र, सूत्रधार के हिसाब से ही चला, न कम, न ज्यादा. लालूजी की आरजेडी ने कामेडी सर्कस को पूरी तरह चरितार्थ किया वह भी अपने विशेषाअधिकारों का पूरा उपयोग करते हुए संसद में खूब तालियाँ बटोरी....                                                                       हमारी जानता को हर वक़्त मनोरंजन चाहिए, लोगों को अब भी यही लगता है कि पानी अभी सर से ऊपर नहीं हुआ और उनकी साँस तो अभी ठीक-ठाक चल ही रही है तो ऐसे में उन्हें अन्ना जैसों के साथ परेशानी उठानी कि क्या ज़रुरत है.   ...

festival and noise | त्यौहारों में शोर और बाज़ार

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हमारे सभी त्योहारों का आधार और परम्परा किसानों के फसली मौसम है, जो बदलते ऋतु के हिसाब से अपने खान- पान या फिर कहें आने वाली चुनौतोयों का सामना करने कि तैयारी है, जहाँ सब मंगलमय हो इसी भाव से उत्सव मनाया जाता है. चाहे वह दशहरा, दीपावली, होली या फिर नवरात्र हो इन सभी का मकसद खुद को प्रकृति से जाने-अनजाने में जोड़ने कि कोशिश है. खासतौर पर ग्रामीण  जीवन और संस्कृति के लिए इनकी आवश्यकता और भूमिका अति महत्वपूर्ण है. जहाँ ए आपसी मेल मिलाप का माध्यम बन,रिश्तों में नयी ताज़गी भरा करते हैं. आज बढ़ते शहरीकरण और बाज़ार ने इन त्योहारों पर कब्ज़ा कर लिया है. जहाँ दिखने-दिखाने कि होड़ मची है और बाज़ार ने मुनाफा कमाने के नए-नए तरीके इजाद कर लिए हैं. यहाँ भी सबसे ज्यादा परेशान मध्यवर्ग है जो अपनी धन, समझ, शिक्षा सब में मध्यम ही बना हुआ है. न तो वह आधुनिक बन पाया और न ही परम्परा छोड़ पा रहा है. बाज़ार, शहर, गांव हर जगह वह संतुलन बनाने कि नाकाम कोशिश कर रहा है, एक ओर वह सब कुछ होना और पाना चाहता है पर छोड़ना कुछ भी तैयार नहीं है. ऐसे में हर चीज़ का अजीब घाल-मेल हो गया है और हमारे...