festival and noise | त्यौहारों में शोर और बाज़ार


हमारे सभी त्योहारों का आधार और परम्परा किसानों के फसली मौसम है, जो बदलते ऋतु के हिसाब से अपने खान- पान या फिर कहें आने वाली चुनौतोयों का सामना करने कि तैयारी है, जहाँ सब मंगलमय हो इसी भाव से उत्सव मनाया जाता है. चाहे वह दशहरा, दीपावली, होली या फिर नवरात्र हो इन सभी का मकसद खुद को प्रकृति से जाने-अनजाने में जोड़ने कि कोशिश है. खासतौर पर ग्रामीण  जीवन और संस्कृति के लिए इनकी आवश्यकता और भूमिका अति महत्वपूर्ण है. जहाँ ए आपसी मेल मिलाप का माध्यम बन,रिश्तों में नयी ताज़गी भरा करते हैं.
आज बढ़ते शहरीकरण और बाज़ार ने इन त्योहारों पर कब्ज़ा कर लिया है. जहाँ दिखने-दिखाने कि होड़ मची है और बाज़ार ने मुनाफा कमाने के नए-नए तरीके इजाद कर लिए हैं. यहाँ भी सबसे ज्यादा परेशान मध्यवर्ग है जो अपनी धन, समझ, शिक्षा सब में मध्यम ही बना हुआ है. न तो वह आधुनिक बन पाया और न ही परम्परा छोड़ पा रहा है. बाज़ार, शहर, गांव हर जगह वह संतुलन बनाने कि नाकाम कोशिश कर रहा है, एक ओर वह सब कुछ होना और पाना चाहता है पर छोड़ना कुछ भी तैयार नहीं है. ऐसे में हर चीज़ का अजीब घाल-मेल हो गया है और हमारे त्योहार शोर में तब्दील होते जा रहें हैं और हम समय के साथ बदलने और नई परम्पराओं को शुरू करने कि कोई पहल नहीं कर रहें हैं.  जबकि बाज़ार इस शोर और दिखावे को निरंतर बढ़ा रहा है, जहाँ सही गलत जैसी कोई चीज़ नहीं है और मुनाफा भगवान बन गया है जिसके लिए किसी की कोई परवाह नहीं है चाहे वह आम आदमी हो या पर्यावरण.
जबकि आज हमें शहरी जीवन के अनुकूल अपने त्योहारों को ढालने कि जरूरत है, जहाँ पर्यावरण और लोगों कि सहूलियत का पूरा ध्यान रखा जाय. वैसे भी हमारे त्योहारों का मकसद कई दिनों तक शोर मचाना, सडकों को जाम करना या फिर धूल, धुंए और गन्दगी का अम्बार लगाना नहीं है. इनका मकसद आपसी सौहार्द बढ़ाना है, जिससे हम अपने स्तर पर देश और समाज के लिए कुछ कर सकें. चाहे वह अपने ही घर, मोहल्ले या फिर गांव कि सफाई ही हो. 
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