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आओ जाति-जाति करते हैं

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कवन जाति  हमारे यहाँ जातीयों की भूमिका समझनी हो तो चुनाव प्रक्रिया और परिणामों पर गौर फरमाइए, जहाँ अधिकांश लोगों की जातीय निष्ठा ही उनकी कथित चेतना है, इस बात से आमतौर पर खुद को बौद्धिक मानने वाले सार्वजनिक रूप से सहमत नहीं होंगे और इस जातीय विभाजन को स्वाभिमान और सुरक्षा बोध का प्रतीक बनाए रखना ही राजनीतिक दलों की सफलता है, क्यों कि जब मुद्दे भावात्मक हो जाते हैं तब कोई सवाल जवाब नहीं होता और नेताओं का काम महज नारों से ही हो जाता है।        इस पूरी प्रक्रिया में एक प्रबुद्ध मतदाताओं का भी वर्ग होता है जो हर किसी से हर बात पर नाराज होता है और उसके पास हर समस्या के लिए एक सुझाव है। बस वह वोट नहीं डालता और वोट न डालने में जातीय चेतना वाले लोग तब शामिल हो जाते हैं जब वह अपनी जाति वाले दल से नाराज होते है क्योंकि वह किसी और को वोट नहीं दे सकते। फिर यही नकारात्मक voting ही समीकरणों के इतर मजेदार परिणाम लाता है। तो परिणाम का सारा खेल कौन किससे कितना नाराज है और उस समूह के कितने लोग मतदान नहीं करते इस बात पर निर्भर करता है। बाकी कई और कारण भी होते हैं पर ए व...

लोकतंत्र जिंदाबाद

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लोकतंत्र  हमारे पहाँ media के लोग जल्दबाजी में चंद बहुरूपियों को भारतीय समाज का सम्पूर्ण प्रतिनिधि घोषित कर देते हैं, जो कि बिलकुल भी सही नहीं है, आम लोगों के चुप होने का मतलब आप से सहमत होना नहीं है, बल्कि हमारे यहाँ जब लोग किसी से बहुत ज्यादा नाराज होते हैं तब वो सिर्फ बात करना बंद कर देते हैं, एकदम "मौन" फिर किसी दिन कोई अप्रत्याशित परिणाम सामने होता है। अगर इसे उ०प्र० के चुनावों के संदर्भ में देखा जाय तो विगत चुनाव परिणाम चाहे वह BSP, SP या फिर BJP के पक्ष में हो इस तरह के जनादेश की उम्मीद किसी ने नहीं की थी। जिसे जनता ने बिना किसी संकोच के दिया, फिर इस सत्ता और शक्ति का सही इस्तेमाल न करने पर इन  दलों के राजनीतिक अस्तित्व को चुनौती भी दिया है। जनता के सेवक जब खुद को मालिक समझने की भूल करने लग जाते हैं, तब यही कुछ न समझने वाले, जाति, धर्म के  दायरों में बंधे लोग, (जैसा कि आम लोगों के बारे में media के चिंतित, प्रबुद्ध वर्ग की धारणा होती है) कैसे एकदम सहजता से किसी को भी सत्ता से बेदखल कर देते हैं।      ऐसे में कथित बुद्धिजीवी, मीडिया और खुद को राजन...