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I'm fool | मैं मूर्ख हूँ

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मूर्ख कहीं के  यह बात स्वीकार कर लेने में कोई हर्ज नहीं है कि हम मूर्ख हैं और इस मूर्खतापूर्ण व्यवहार का राष्ट्रीयकरण हो चुका है, जहाँ आगे निकलने की मूर्खतापूर्ण होड़ लगी है।      किसी व्यक्ति के विचार को ही आज तमाम राजनीतिक कारणों से अंतिम सत्य की तरह व्याख्या की जाती है जबकि सभी लोग किसी खास वाद से ग्रसित होकर किसी दूसरे वाद का विरोध सिर्फ़ राजनीतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए ही करते हैं। हमारे कथित बुद्धि जीवियों की समस्या यह है कि वह कुछ नया गढ़ने में सक्षम नहीं हैं। वह सिर्फ़ अतीत के महिमामंडन या गाली गलौज करने को अपनी विद्वता मान बैठे हैं।              कृपा करके आज के समाज और समस्याओं को देखिए.. उनका समाधान सुझाइए। वैसे इस बात पर विचार करिए कि आज भी शिक्षा कोई मुद्दा क्यों नहीं है.. कैसे भी संगठन और व्यक्ति हों, वो क्या कभी इस पर बात करते हैं कि आपको अपने समाज में भी यदि कोई अधिकार मिलेगा तो वह शिक्षा से ही मिलेगा इसके लिए आपको अपने बच्चों को स्कूल भेजना होगा और शिक्षा कैसे भी करके हासिल...

कुछ नया करते हैं

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New India  इस बात पर ज़रा गौर किया जाय कि वास्तव में जातीय-धार्मिक संकट सबसे ज्यादा कब होता है? तो हमारे देश में जब चुनाव होने वाला हो तब होता है और उस वक्त किसी खास तरह की घटनाओं में भरपूर इजाफा हो जाता है। जिसको मीडिया लगातार सनसनी खेज बनाए रखता है। फिर घरों में बैठकर गरमा गरम लाइव डिबेट देखने का अपना ही मजा है।     खैर! इस वक्त दलितों और अल्पसंख्यकों पर जिस खतरे का लगातार जिक्र हो रहा है, वह वास्तव में खुद को इनका नेता मानने वाले लोगों के सामने अपना राजनीतिक भविष्य बचाने का संकट है। जिसे असुरक्षा बोध को और मजबूत करके हासिल किया जा सकता है। यह असुरक्षा बोध जितना मजबूत होता है, राजनीति का काम उतना ही आसान हो जाता है क्योंकि अब लोग अपने नेता पर न तो शक़ करते हैं और न कोई सवाल। इस तरह जब भी जातीय, धार्मिक पहचान सर्वाधिक महत्वपूर्ण बना दिए जाते हैं, तब वास्तविक समस्याओं से बेहाल जनता यह भूल जाती है कि उसे समस्या किस बात की है?     जब भी जातीय, धार्मिक पहचान का कथित संकट आता है। तब-तब लोग खुद को उसी पहचान के दायरे में समेटने लग जाते हैं और इसका प...