Reservation politics | आरक्षण नामा

aarakshan nama

आरक्षण की राजनीति एक बार फिर शुरू हो गई है. जहाँ सही गलत का कोई अर्थ नहीं है. यहाँ सिर्फ राजनैतिक नफा-नुकसान का खेल चल रहा है.हमारे राजनैतिक दलों ने अपना आधार जातीय और धार्मिक समीकरणों पर खड़ा कर रखा है. ऐसे में इनसे किसी नेक नियति की उम्मीद करना बेमानी होगी. अंग्रेजों की बांटों और राज करो की नीति आज भी उतनी कारगर है और हमारे राजनैतिक दल इसका पूरा अनुसरण कर रहें हैं. इनका मकसद सिर्फ सत्ता पाना है और अपने वोट बैंक को बनाए रखना है. हम राजनैतिक दलों और व्यक्तियों की गुंडागर्दी भी इसी अर्थ देख और समझ सकते हैं. जहाँ राजनीति एक व्यवसाय बन गयी है और व्यवसाय चलाने के सारे हथकंडे अपनाए जा रहे हैं.
       आज भी अनुसूचित जातियों और जनजातियों की जो सामाजिक,आर्थिक स्थिति है, वह किसी भी प्रगतिशील समाज के लिए शर्मनाक है. अब भी किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति को शहरों में भी  आसानी से कमरा नहीं मिल पाता और जिस तरह के जातीय पूर्वाग्रह से पढ़ा-लिखा वर्ग भी ग्रसित है, वह वास्तव में शिक्षित होने का अर्थ ही खो देता है. गावों की तो बात ही छोडिए. अभी हमारे एक मित्र जो कि अनुसूचित जाति से सम्बन्ध रखते हैं कि नियुक्ति गाँव के प्राथमिक पाठशाला में हुई. वहां उनके पहुंचते ही वरिष्ठ अध्यापक महोदय ने नए बर्तन खरीदने का पूण्य कार्य किया. अब तो उन्हें पूरे समय अपनी पवित्रता बचाए रखने कि चिंता खाए जा रही है. खैर हमें ऐसे तमाम लोगों पर गुस्सा नहीं होना चाहिए बल्कि उनकी सोच-समझ पर दया आनी चाहिए कि इन बेचारों की पवित्रता कितनी कमज़ोर है जो किसी के स्पर्श से ही नष्ट हो जाएगी और यह भी सोचने कि बात है कि आखिर अछूत कौन है? फिर इस कमजोर पवित्रता की रक्षा इस ढंग से कितने दिनों तक की जा सकेगी?
माननीय सर्वोच्च न्यायलय अपने निर्णय में जिन तथ्यों कि बात की है, उससे असहमत नहीं हुआ जा सकता और सही आंकड़ों का इकट्ठा और विश्लेषण किया जाना आवश्यक है जिससे  वंचित तबके को अधिक से अधिक लाभ पहुचाया जा सके. आज अनुसूचित जाति के लोगों के भी पक्के मकान बनने लगे हैं. यह मजदूर से मालिक बनाने कि शुरुआत है. एक तबका जो शादियों से पीड़ित और दमित रहा है अब अपने पैरों पर खड़ा होना शुरू किया है तो इसमे आरक्षण एक महत्वपूर्ण कारण है. जो इनमे उम्मीद जगाता है कि कुछ है जो इनका है, इन्हें मिल सकता है लेकिन सरकारी नौकरी और पदोन्नति देकर तुरंत कोई क्रन्तिकारी बदलाव आ जाएगा यह सोचना व्यर्थ है. आरक्षण जागरूकता और आत्मविश्वाश पैदा करने का माध्यम बन सकता है. जिससे शिक्षा कि तरफ ज्यादा से ज्यादा लोग आकर्षित हो सकें और अपने लिए ज़रूरी संसाधनों का निर्माण कर सके वैसे भी सरकार के पास इतनी नौकरियां नहीं है कि केवल सरकारी नौकरियों में आरक्षण दे देने से पूरे समाज का विकास हो जाए.
             शिक्षा के अभाव के कारण ही ए जातियां आरक्षण का पूरा लाभ नहीं उठा पा रहीं है और पर्याप्त शैक्षिक योग्यता न होने के कारण इनकी सीटें खाली रह जाती हैं और यह फायदा इन जातियों के उसी वर्ग को मिल पाता है जिनकी शैक्षिक और आर्थिक पृष्ठभूमि उतनी बुरी नहीं है ऐसे में एक बड़ा वर्ग इसके लाभ से वंचित रह जाता है और यह लाभ घूम फिरकर कुछ परिवारों तक ही सीमित रह जाता है. जहाँ एक ही परिवार के सारे सदस्य इस सुविधा का लाभ उठाते हैं वहीं अधिकांश परिवारों के बच्चे सामान्य शिक्षा भी नहीं प्राप्त कर पाते. ऐसे में शिक्षा को तमाम कानूनी अधिकार बनाने और घोषणा  करने के बावजूद, शिक्षा का जिस तरह से व्यवसायीकरण हुआ है, क्या एक दलित परिवार अपने बच्चों के लिए शिक्षा बाज़ार में किसी तरह कि खरीदारी कर पाएगा? जहाँ दो वक़्त कि रोटी जुटाना ही जीवन का मकसद हो.
        वैसे जहाँ तक आरक्षण का कि बात है तो इसका मकसद निर्बलों को संसाधनों तक पहुँचाना है और उनकी सामाजिक, आर्थिक भागीदारी को सुनिश्चित करना है कि अब आपको और दिनों तक दबा, कुचला नहीं रहने दिया जाएगा न कि दूसरे लोगों को पीछे ढकेलने का साधन बनाया जाएगा. फिर जिसे कुछ हासिल हो गया है, उसे ही सब कुछ देने के बजाय, निर्बल वर्ग के और लोगों को सशक्त बनाए जाने कि आवश्यकता है न कि इस राजनैतिक उठा पटक में सरकारी कार्यालयों को जातीय समूहों में बांटने का काम किया जाय. 
                  आज तमाम ऊंचे पदों पर अगड़ी जात के लोग हैं तो इसमे आश्चर्य करने वाली कोई बात नहीं है. इसी वर्ग कि सदैव से संसाधनों तक पहुँच थी और उसी का यह परिणाम है कि सरकारी और निजी क्षेत्र के अधिकांश पदों पर यही लोग विराजमान हैं और जाति व्यवस्था से पीड़ित भारतीय समाज में दलित जातियों कि शैक्षिक स्थिति बेहद ख़राब है ऐसे में उच्च पदों पर महज़ आरक्षण दे देने के बाद भी ए पद खली ही रह जाते हैं. आज इस वर्ग के बहुसंख्यक लोगों को सामान्य रोज़गार कि जरूरत है जिससे वह अपने बच्चों का सही पालन पोषण कर सकें और जीवन कि मौलिक जरूरतों जैसे शिक्षा, सुरक्षा, स्वास्थ्य को प्राप्त कर सकें, और यह काम आरक्षण राग गाने से तो कदापि नहीं हो सकता, इसके लिए बड़े पैमाने पर भर्ती प्रक्रिया शुरू करनी चाहिए जिसमे मानव श्रम कि अधिक आवश्यकता होती है जैसे सेना, पुलिस, रेलवे आदि में कम वेतन कि ही स्थायी नौकरियां देकर अधिसंख्य लोगों को मुख्य धारा से जोड़ा जा सकता है, इन्हें बड़े वेतन पॅकेज कि जरूरत नहीं है यहाँ तो सिर्फ मौलिक जरूरतों तक पहुँच बनाना ही अभी मकसद है फिर देखिए कैसे ए लोग अपना रास्ता भी खुद ही बना लेंगे और मंजिल तक भी पहुँच जाएँगे और बराबरी में खड़े नज़र आयेंगे. 
rajhansraju  (2012)
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