Mahakumbh Mela

 महाकुम्भ, प्रयागराज

महाकुम्भ प्रयागराज में आपका स्वागत है महाकुम्भ की तैयारी में हर तरह के लोग अपने-अपने लक्ष्य साधने में लग गए हैं जिसमें पाखंडी, ढोंगी, धूर्त व्यापारी सभी के लिए भरपूर अवसर है हमारे महाकुम्भ में भौतिकता के चरम के अनुभूति आप सहजता से कर सकते हैं और अध्यात्मिक चेतना को ढूंढने, समझने के लिए निकले, भटकते हुए लोगों को भी देख सकते हैं, वहीं दूसरी तरफ जनता जनार्दन का महासमुद्र है जो किसी सुविधा का बहुत आकांक्षी नहीं है वह तो महज गंगा, यमुना, संगम और प्रयागराज में अपनी उपस्थिति मात्र से खुद को धन्य मान लेता है उसकी ज़रूरतें और उम्मीद उतनी ही है जो बड़ी आसानी से पूरी हो जाती है और शहर का सब कुछ उसके लिए अद्भुत है।

अभी वह उस औघड़ के सम्मुख है, कुछ डरा डरा तो है पर उत्सुकता कहीं ज्यादा है और वह औघड़ भी नया-नया है कहीं ज्यादा ओवर ऐक्टिंग न हो जाए यह सावधानी भी बरत रहा है। पूरा मेला बहुरूपियों और विदूषकों से भर जाता है जिसमें साधु सन्यासी के भेष में सदा से भीख मांग कर जीवन जीने वाले खानदानी भिखारी से लेकर सीजनल भिखारी बने लोगों की बाढ़ आ जाती है। इधर कुछ सालों से अपने संगम किनारे स्थानीय औघड़ वाले बहरूपियाओं की संख्या भी ठीक-ठाक दिखने लगी है आसपास गांव के नशेड़ियों को नशा के लिए आसानी से पैसा इस रूप में मिल जाता है और औघड़ बनना और कुछ बनने से उन्हें ज्यादा आसान लगता है वैसे भी ए लोग साफ सफाई और नहाने धोने से पहले भी काफी दूर थे और सुबह होते ही कच्ची का भरपूर नशा करते हैं और नंग धड़ंग या फिर न के बराबर कपड़े धारण करते ही धंधा शुरू हो जाता है और ए लोग दो-चार शब्द रट रखे होते हैं बस उसे ही दुहराते रहते हैं और लोगों ने जो औघड़ का शॉर्ट वीडियो देख, सुन रखा है उन्हें लगता है कि प्रयाग में आते ही साक्षात औघड़ के दर्शन हो गए, जबकि यह नशेड़ी की जमात होती हैं, जो वास्तव में भीख मांग रहे हैं, यह सिर्फ बहुरूपिए हैं कोई औघड़ नहीं है।


मेले में सबसे पहले और सबसे बेहतर तैयारी शायद इन्हीं भिखारियों की होती है इनकी कमाई का थोड़ा सा आकलन अगर आप करना चाहें तो सामने जो भिखारी है अगर उसको यह अंदाजा लग जाए आप कम से कम दस रुपए तो दे ही देंगे और आप यह जाहिर करिए कि आपके पास चेंज नहीं है थोड़ी देर कुछ बातचीत करिए आपको थोड़ी देर में ही अपनी पोटली से दस रुपए काटकर, आपको बाकी पैसे लौटा देगा, आपके पास चाहे जितनी बड़ी नोट हो, अब समझने की बात यह है कि ज्यादातर लोग इन भिखारियों को हमारे धर्म के जो साधु संत होते हैं वह समझ समझ लेते हैं और ऐसा समझ लेने में उनकी गलती भी नहीं है क्योंकि यह लोग भगवा वस्त्र धारण किए रहते हैं, जटाजूट भी वैसे ही होता है और बेहतरीन तरीके से तिलक भी लगाए रहते हैं।
अब हमारे सनातन में जो परंपराएं हैं, पंथ हैं उसमें सभी को पर्याप्त जगह मिल जाता है, जिसमें सबको अपनी परंपराएं गढ़ने , मानने और न मानने की भी स्वतंत्रता है और कोई भी सनातन में ही रहकर एक पूरी तरह से नया रास्ता भी ढूंढ सकता है और अपनी सामर्थ्य का, ज्ञान का और बेहतर ढंग से इस्तेमाल कर सकता है।जिसकी स्वतंत्रता यहीं मिलती है और शायद इसी वजह से लोग नए-नए तर्क और कुतर्क बिना ठीक से कुछ जाने बस किसी तोते की तरह दुहराते रहते हैं अर्थात बिना किसी बुद्धि के रोज-रोज सुनते और उसी का अभ्यास करते रहने से ऐसा आभास होने लगता है कि वह स्वयं अपनी समझ और चेतना से कुछ कह रहा है जबकि वह सिर्फ मेमोरी कार्ड बनकर रह गया है।


अब तो वह कुछ खास तरह के कपड़े भी पहनने लगा है,। जबकि उसका पूरा अभिनय किसी और जैसा होने और दिखने की कोशिश भर है और मेकअप भी वैसा ही है। उसका अनुमान है कि इस बार चढ़ावा और चंदा पहले से ज्यादा आएगा इसके लिए प्रचार भी जरूरी है और इसी काम में वह समर्पित हो गया है। उसका सनातन की जागृति और चेतना से कुछ लेना-देना नहीं है बस वह किसी तरह अपनी रोजी-रोटी चला रहा है
अरे भाई हम लोग आदि गुरु शंकराचार्य के शिष्य हैं अगर हम खुद को सनातनी मानते हैं तो, जिन्होंने धर्म ध्वजा बिना किसी हथियार और हिंसा के पुनर्स्थापित कर दिया था तो उसके पीछे मात्र उनकी बुद्धि और ज्ञान की परंपरा थी जहां वास्तव में उन्होंने ज्ञान को स्थापित किया और वही शास्त्रार्थ परंपरा कि आइए बात करते हैं और अपनी बात को आगे बढ़ाते हैं से उन्होंने सब कुछ आगे बढ़ाया और पूरे भारत को एक डोर में बांध दिया पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण का भेद मिटा दिया और भारत को एक कर दिया।


तो सोचने की बात यह है कि सनातन के लिए अगर हम कुछ सोच रहे हैं कि वास्तव में हमें क्या करना है तो सबसे पहले अपने अंदर सनातन को स्थापित करना है उसकी ज्ञान परंपरा को सीखना, समझना, जानना है और इसकी शुरुआत खुद को ढूंढने से होती है खुद को समझने से होती है और यह जो हमारा धार्मिक मनोरंजन वाला आर्केस्ट्रा चलता रहता है, इससे हमें आगे जाना पड़ेगा, जिसके लिए अध्ययन, चिंतन, मनन की आवश्यकता है। हमारे बीच धन, बल और प्रचार से दूर रहकर अपना काम करने वाले कितने लोग हैं जो सच्चे, अच्छे और ईमानदार हैं जो अपने को साध रहे हैं, खुद को ढूंढ रहे हैं, वास्तव में सच्चे साधक और संन्यासी तो वही है और हम लोगों की दृष्टि उन तक पहुंच नहीं पाती है क्योंकि वह चमक-दमक और प्रचार से दूर होते हैं तो ऐसे संन्यासियों को पहचान करने के लिए हमें भी अपनी दृष्टि सही करनी होगी और उसकी भी शुरुआत खुद को समझने और खोजने से होगी हमारे बीच ही संन्यासी हैं और हम उसे पहचान नहीं पा रहे हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा? तो इसके पीछे भी तो मूल कारण यही है कि हममें उतनी समझ ही नहीं है हम चीजों को इतनी गहराई से नहीं देख पाएं और हम सिर्फ शोर में खुद को विलीन कर देते हैं या यूंँ कहें कि हमारे लिए क्या महत्वपूर्ण है हम समझ ही नहीं पा रहे हैं। यदि हम सच में खुद को अध्यात्मिक चेतना के स्तर पर जागृत करना चाहते है तो खुद को ही पहले यह समझना-समझाना होगा कि हम क्या हैं ? पहले हम यह जानें और शोर बनने से बचना होगा..
©️ Rajhansraju

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सामाजिक परिवर्तन 

समाज में वास्तविक बदलाव के पीछे मशीनों का हाथ है जहां गरीबी, मजबूरी और हुनर की वजह से कुछ खास काम, कुछ खास लोगों को करना पड़ता था या करते थे वह सारे काम अब मशीनें कहीं बेहतर और आसानी से कर रही हैं और बेचारा श्रमिक की जगह कुशल मशीन ऑपरेटर या टेक्नीशियन ने ले लिया है वह चाहे खेती, सफाई, खुदाई हो।
हम अपने आसपास मशीनों और उनके संचालक मतलब मजदूर की जगह ऑपरेटर बड़ी आसानी से देख सकते हैं, पैडल रिक्शा विदा हो गया है, ई-रिक्शा महिलाएं, बुजुर्ग सब चला रहे हैं। सामाजिक बदलाव एक निरंतर प्रक्रिया है और अंतिम स्थिति जैसी कोई चीज नहीं होती बस उसकी दिशा सही होनी चाहिए जिसे वर्तमान के साथ तारतम्य बनाकर चलना है और इसे दिशा दिखाने का काम प्रबुद्ध लोगों को करना पड़ता है जिसमें हर उस व्यक्ति की भूमिका है, जिसकी बात सुनी जा रही है वह चाहे नेता, अभिनेता, शिक्षक पुरोहित,पुजारी, प्रबंधक कोई भी हो उसे निजी हित में लोगों की दिग्भ्रमित नहीं करना चाहिए जैसा कि होता आया है और इस भीड़ में कुछ ही लोग ऐसे होते हैं जो समाज और व्यक्ति की आवश्यकताओं को सही ढंग से देख समझ पाते हैं और सामाधान की तरफ लोगों को ले जाते हैं
©️ Rajhansraju

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Comments

  1. खुद को समझना ही जीवन का सबसे बड़ा उद्देश्य है

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  2. नए-नए तर्क और कुतर्क बिना ठीक से कुछ जाने बस किसी तोते की तरह दुहराते रहते हैं अर्थात बिना किसी बुद्धि के रोज-रोज सुनते और उसी का अभ्यास करते रहने से ऐसा आभास होने लगता है कि वह स्वयं अपनी समझ और चेतना से कुछ कह रहा है जबकि वह सिर्फ मेमोरी कार्ड बनकर रह गया है।

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  3. प्रयागराज की महिमा अपरम्पार

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