Freedom : आजादी के मायने
आजादी के 70 वर्ष: युवा पीढ़ी के लिए देश की तरक्की की कल्पना करना काफी मुश्किल
Tue, 15 Aug 2017 12:48 PM (IST)
नई दिल्ली (स्पेशल डेस्क)। आज के हिंदुस्तान की नौजवान पीढ़ी के लिए यह कल्पना करना कठिन है कि आजादी के बाद सत्तर साल में देश ने कितनी तरक्की की है। जिन लोगों को ‘आधी रात की संतान’ कहा जाता है वह भी बुढ़ा चुके हैं और उनकी यादें भी धुंधलाने लगी हैं। जब हम स्वाधीनता की सालगिरह मनाने की तैयारी करते हैं तो कुछ युवा यह पूछने लगे हैं कि आखिर इतना जोश-ओ-खरोश किस लिए? रोजमर्रा की जिंदगी की मुसीबतों से परेशान तबका शिकायतों से ही फुर्सत नहीं पाता। उसे तिरंगा फहराना और लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री का राष्ट्र को संबोधित करना एक रस्म अदायगी भर महसूस होता है। हमारी समझ में यह सोच ठीक नहीं। पीछे पलट कर देखें तो इस बात को नकार नहीं सकते कि हमने एक लंबा कठिन सफर तय किया है और
बहुत कुछ हासिल किया है जिसका जश्न मनाना चाहिए।
1947 में औसत भारतीय सिर्फ सत्ताईस साल जिंदा रहने की अपेक्षा कर सकता था। आज वह 67-68 वर्ष की दहलीज छूने लगा है। प्लेग, चेचक, पोलियो जैसी महामारियों का उन्मूलन हो चुका है और साक्षरता की दर तेजी से बढ़ी है। अल्प शिक्षितों में भी अपने अधिकारों के प्रति चेतना जाग्रत हुई है। असंतोष और आक्रोश की जो अभिव्यक्ति समय समय पर होती है वह इसे ही प्रतिबिंबित करती है। जिस समय भारत ने अंग्रेजों की गुलामी से छुटकारा पाया था उस वक्त भारत में साढे पांच सौ से अधिक रियासतें थीं। इन रजवाड़ों में सामंती शासन था और सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन उन हिस्सों की तुलना में पिछड़ा था जहां अंग्रेजों का प्रत्यक्ष शासन था। इनका भारतीय संघ में विलय कानून के राज और समता पूर्ण समाज की स्थापना की दिशा में बड़ा कदम था।
पंचवर्षीय योजनाओं के दौरान नये भारत के नये मंदिरों-मस्जिदों- गुरुद्वारों- गिरिजाघरों का निर्माण हुआ। भाखड़ाहीराकुंड, सिंदरी, भिलाई-राउरकेला जैसे बांध और कारखाने सभी भारत वालों के लिए नये तीर्थ बन गये। राह में बाधाएं आती रहीं, कभी सैनिक संघर्ष तो कभी दुर्भिक्ष का सामना हमें करना पडा। परंतु अपने स्वाभिमान को अक्षत रखते हुए आत्मनिर्भर बनने का संकल्प हमने कभी छोड़ा नहीं। इसी का नतीजा है कि आज हम संसार के उन गिने चुने देशों में हैं जो परमाणु शक्ति संपन्न हैं और अंतरिक्ष का अन्वेषण करने के लिए अपने बनाए रॉकेटों का प्रयोग करते हैं। कंप्यूटर टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में भारतीयों की प्रतिभा-क्षमता का लोहा दुनिया मानती है। प्राण रक्षक औषधियों और वैक्सीनों का निर्माण करने की भारतीय सामथ्र्य से अनेक बड़ी शक्तियां आशंकित होने लगी हैं। इस क्षेत्र में मुनाफाखोरी की उनकी मनमानी को भारतीय कंपनियां चुनौती देती नजर आती है।
अकसर हम उन निरर्थक विवादों में उलझ जाते हैं जो हमें प्रगति पथ से भटका सकते हैं। हमें इस उपलब्धि पर गर्व होना चाहिए कि हमने देश की एकता और अखंडता की रक्षा करते हुए उस बहुलताविविधता को संकट ग्रस्त नहीं होने दिया है जो हमारी सहिष्णु- समन्वयात्मक संस्कृति की अनूठी पहचान है। करोडों की संख्या में जो भारतवंशी प्रवासी विदेशों में बसते हैं उनके दर्पण में जो बिंब देखने को मिलता है वह यही रेखांकित करता है कि आंतरिक चुनावी राजनीति की गरमागरमी में जो ‘विभाजन’ मतदाता वर्ग में दिखलाई देता है वह सच्चाई नहीं। हमारी अस्मिता राजनीति तक सीमित नहीं। हमारी साझे की विरासत बहुआयामी है- कला, साहित्य, संगीत आदि के क्षेत्र में। इसे धर्म या जाति के आधार पर कोई बांट नहीं सकता।
भारतीय भोजन हो या परिधान, लोक या शास्त्रीय संगीत हो इनका चुंबकीय आकर्षण भारत के राजनय को गतिशील बना रहा है। भारतीय फिल्में (हिंदी की ही नहीं) आज अपनी गुणवत्ता और शिल्प कौशल के लिए प्रसिद्ध हैं सिर्फ मनोरंजक नाच-गानों और मारधाड के लिए नहीं! हर वर्ष ऑस्कर, बुकर पुरस्कारों के संदर्भ में भारतीय प्रविष्टियों की बहुतायत सूची में होती है। सबसे बड़ी बात यह है कि औसत युवा बीस से पचीस वर्ष के आत्म विश्वास से भरे हैं। वह किसी भी तरह की मानसिक गुलामी की पीढ़ियों से जकड़े नहीं। उन्हें लगता है वह कुछ भी कर सकते हैं। यह अपने आप में कम संतोष का विषय नहीं। वह अपने पुरखों से अच्छा खाते और पहनते हैं। उनसे कहीं ज्यादा आजादी से (व्यक्तिगत जीवन में) जीते हैं। यदि उनमें धीरज का अभाव है तो उत्साह की कमी भी नहीं। न ही वह असफलता की संभावना से नयी पहल करने से हिचकिचाते हैं। जाहिर है कि प्रगति पथ में कोई ऐसी मंजिल नहीं होती जहां यह यात्रा समाप्त होती हो। आजादी की रक्षा के लिए सतत सतर्कता परमावश्यक है पर यह काम हंसी खुशी हर्षोल्लास के साथ ही होना चाहिए। जय हिंद!
(प्रो पुष्पेश पंत- स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज, जेएनयू)
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