Sanatan Dharm | Hindu | सनातन धर्म
समस्त धर्म ग्रंथों में गायत्री की महिमा एक स्वर से कही गई। समस्त ऋषि-मुनि मुक्त कंठ से गायत्री का गुण-गान करते हैं। शास्त्रों में गायत्री की महिमा के पवित्र वर्णन मिलते हैं। गायत्री मंत्र तीनों देव, बृह्मा, विष्णु और महेश का सार है। गीता में भगवान् ने स्वयं कहा है ‘गायत्री छन्दसामहम्’ अर्थात् गायत्री मंत्र मैं स्वयं ही हूं।
गायत्री मंत्र :
ॐ भूर्भुवः स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
ॐ : परब्रह्मा का अभिवाच्य शब्द
भूः : भूलोक
भुवः : अंतरिक्ष लोक
स्वः : स्वर्गलोक
त : परमात्मा अथवा ब्रह्म
सवितुः : ईश्वर अथवा सृष्टि कर्ता
वरेण्यम : पूजनीय
भर्गः: अज्ञान तथा पाप निवारक
देवस्य : ज्ञान स्वरुप भगवान का
धीमहि : हम ध्यान करते है
धियो : बुद्धि प्रज्ञा
योः : जो
नः : हमें
प्रचोदयात् : प्रकाशित करें।
अर्थ: : हम ईश्वर की महिमा का ध्यान करते हैं, जिसने इस संसार को उत्पन्न किया है, जो पूजनीय है, जो ज्ञान का भंडार है, जो पापों तथा अज्ञान की दूर करने वाला हैं- वह हमें प्रकाश दिखाए और हमें सत्य पथ पर ले जाए।
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विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र (ऋषि मुनियों द्वारा किया गया अनुसंधान)
■ काष्ठा = सैकन्ड का 34000 वाँ भाग
■ 1 त्रुटि = सैकन्ड का 300 वाँ भाग
■ 2 त्रुटि = 1 लव ,
■ 1 लव = 1 क्षण
■ 30 क्षण = 1 विपल ,
■ 60 विपल = 1 पल
■ 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट ) ,
■ 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )
■3 होरा=1प्रहर व 8 प्रहर 1 दिवस (वार)
■ 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार) ,
■ 7 दिवस = 1 सप्ताह
■ 4 सप्ताह = 1 माह ,
■ 2 माह = 1 ऋतू
■ 6 ऋतू = 1 वर्ष ,
■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी
■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी ,
■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग
■ 2 युग = 1 द्वापर युग ,
■ 3 युग = 1 त्रैता युग ,
■ 4 युग = सतयुग
■ सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग
■ 72 महायुग = मनवन्तर ,
■ 1000 महायुग = 1 कल्प
■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )
■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )
■ महालय = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म )
सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यहीं है जो हमारे देश भारत में बना हुआ है । ये हमारा भारत जिस पर हमे गर्व होना चाहिये l
दो लिंग : नर और नारी ।
दो पक्ष : शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।
दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।
दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।
तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।
तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।
तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।
तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।
तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।
तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।
तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।
तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।
तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।
तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।
तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।
तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।
तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।
चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।
चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।
चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।
चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।
चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।
चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।
चार युग : सतयुग, त्रेतायुग, द्वापर युग, कलयुग।
चार समय : सुबह, शाम, दिन, रात।
चार अप्सरा : उर्वशी, रंभा, मेनका, तिलोत्तमा।
चार गुरु : माता, पिता, शिक्षक, आध्यात्मिक गुरु।
चार प्राणी : जलचर, थलचर, नभचर, उभयचर।
चार जीव : अण्डज, पिंडज, स्वेदज, उद्भिज।
चार वाणी : ओम्कार्, अकार्, उकार, मकार्।
चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।
चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।
चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।
पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।
पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।
पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।
पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।
पाँच उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।
पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।
पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।
पाँच प्रेत : भूत, पिशाच, वैताल, कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।
पाँच स्वाद : मीठा, चर्खा, खट्टा, खारा, कड़वा।
पाँच वायु : प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।
पाँच इन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा, मन।
पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन), अक्षयवट (Prayagraj), बोधिवट (बोधगया), वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।
पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।
पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।
छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।
छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।
छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।
छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच), मोह, आलस्य।
सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।
सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।
सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।
सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर, स्वाधिष्ठान, मुलाधार।
सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।
सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।
सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।
सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।
सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।
सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।
सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।
सात पाताल : अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, पाताल।
सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।
सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।
आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।
आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी, धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी, वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।
आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।
आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।
आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।
नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।
नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।
नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।
नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।
दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।
दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान, ऊपर, नीचे।
दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।
दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दस सति : सावित्री, अनुसुइया, मंदोदरी, तुलसी, द्रौपदी, गांधारी, सीता, दमयन्ती, सुलक्षणा, अरुंधती।
*उक्त जानकारी शास्त्रोक्त 📚 आधार पर... हे.....💐
जय श्री राम राधे कृष्णा राधे श्याम🙏🙏
ऐसी जानकारी बार-बार नहीं आती, और आगे भेजें, ताकि लोगों को सनातन धर्म की जानकारी हो सके आपका आभार धन्यवाद होगा
1-अष्टाध्यायी पाणिनी
2-रामायण वाल्मीकि
3-महाभारत वेदव्यास
4-अर्थशास्त्र चाणक्य
5-महाभाष्य पतंजलि
6-सत्सहसारिका सूत्र नागार्जुन
7-बुद्धचरित अश्वघोष
8-सौंदरानन्द अश्वघोष
9-महाविभाषाशास्त्र वसुमित्र
10- स्वप्नवासवदत्ता भास
11-कामसूत्र वात्स्यायन
12-कुमारसंभवम् कालिदास
13-अभिज्ञानशकुंतलम् कालिदास
14-विक्रमोउर्वशियां कालिदास
15-मेघदूत कालिदास
16-रघुवंशम् कालिदास
17-मालविकाग्निमित्रम् कालिदास
18-नाट्यशास्त्र भरतमुनि
19-देवीचंद्रगुप्तम विशाखदत्त
20-मृच्छकटिकम् शूद्रक
21-सूर्य सिद्धान्त आर्यभट्ट
22-वृहतसिंता बरामिहिर
23-पंचतंत्र। विष्णु शर्मा
24-कथासरित्सागर सोमदेव
25-अभिधम्मकोश वसुबन्धु
26-मुद्राराक्षस विशाखदत्त
27-रावणवध। भटिट
28-किरातार्जुनीयम् भारवि
29-दशकुमारचरितम् दंडी
30-हर्षचरित वाणभट्ट
31-कादंबरी वाणभट्ट
32-वासवदत्ता सुबंधु
33-नागानंद हर्षवधन
34-रत्नावली हर्षवर्धन
35-प्रियदर्शिका हर्षवर्धन
36-मालतीमाधव भवभूति
37-पृथ्वीराज विजय जयानक
38-कर्पूरमंजरी राजशेखर
39-काव्यमीमांसा राजशेखर
40-नवसहसांक चरित पदम् गुप्त
41-शब्दानुशासन राजभोज
42-वृहतकथामंजरी क्षेमेन्द्र
43-नैषधचरितम श्रीहर्ष
44-विक्रमांकदेवचरित बिल्हण
45-कुमारपालचरित हेमचन्द्र
46-गीतगोविन्द जयदेव
47-पृथ्वीराजरासो चंदरवरदाई
48-राजतरंगिणी कल्हण
49-रासमाला सोमेश्वर
50-शिशुपाल वध माघ
51-गौडवाहो वाकपति
52-रामचरित सन्धयाकरनंदी
53-द्वयाश्रय काव्य हेमचन्द्र
वेद-ज्ञान:-
प्र.1- वेद किसे कहते है ?
उत्तर- ईश्वरीय ज्ञान की पुस्तक को वेद कहते है।
प्र.2- वेद-ज्ञान किसने दिया ?
उत्तर- ईश्वर ने दिया।
प्र.3- ईश्वर ने वेद-ज्ञान कब दिया ?
उत्तर- ईश्वर ने सृष्टि के आरंभ में वेद-ज्ञान दिया।
प्र.4- ईश्वर ने वेद ज्ञान क्यों दिया ?
उत्तर- मनुष्य-मात्र के कल्याण के लिए।
प्र.5- वेद कितने है ?
उत्तर- चार ।
1-ऋग्वेद
2-यजुर्वेद
3-सामवेद
4-अथर्ववेद
प्र.6- वेदों के ब्राह्मण ।
वेद ब्राह्मण
1 - ऋग्वेद - ऐतरेय
2 - यजुर्वेद - शतपथ
3 - सामवेद - तांड्य
4 - अथर्ववेद - गोपथ
प्र.7- वेदों के उपवेद कितने है।
उत्तर - चार।
वेद उपवेद
1- ऋग्वेद - आयुर्वेद
2- यजुर्वेद - धनुर्वेद
3 -सामवेद - गंधर्ववेद
4- अथर्ववेद - अर्थवेद
प्र 8- वेदों के अंग हैं ।
उत्तर - छः ।
1 - शिक्षा
2 - कल्प
3 - निरूक्त
4 - व्याकरण
5 - छंद
6 - ज्योतिष
प्र.9- वेदों का ज्ञान ईश्वर ने किन किन ऋषियो को दिया ?
उत्तर- चार ऋषियों को।
वेद ऋषि
1- ऋग्वेद - अग्नि
2 - यजुर्वेद - वायु
3 - सामवेद - आदित्य
4 - अथर्ववेद - अंगिरा
प्र.10- वेदों का ज्ञान ईश्वर ने ऋषियों को कैसे दिया ?
उत्तर- समाधि की अवस्था में।
प्र.11- वेदों में कैसे ज्ञान है ?
उत्तर- सब सत्य विद्याओं का ज्ञान-विज्ञान।
प्र.12- वेदो के विषय कौन-कौन से हैं ?
उत्तर- चार ।
ऋषि विषय
1- ऋग्वेद - ज्ञान
2- यजुर्वेद - कर्म
3- सामवे - उपासना
4- अथर्ववेद - विज्ञान
प्र.13- वेदों में।
ऋग्वेद में।
1- मंडल - 10
2 - अष्टक - 08
3 - सूक्त - 1028
4 - अनुवाक - 85
5 - ऋचाएं - 10589
यजुर्वेद में।
1- अध्याय - 40
2- मंत्र - 1975
सामवेद में।
1- आरचिक - 06
2 - अध्याय - 06
3- ऋचाएं - 1875
अथर्ववेद में।
1- कांड - 20
2- सूक्त - 731
3 - मंत्र - 5977
प्र.14- वेद पढ़ने का अधिकार किसको है ? उत्तर- मनुष्य-मात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है।
प्र.15- क्या वेदों में मूर्तिपूजा का विधान है ?
उत्तर- बिलकुल भी नहीं।
प्र.16- क्या वेदों में अवतारवाद का प्रमाण है ?
उत्तर- नहीं।
प्र.17- सबसे बड़ा वेद कौन-सा है ?
उत्तर- ऋग्वेद।
प्र.18- वेदों की उत्पत्ति कब हुई ?
उत्तर- वेदो की उत्पत्ति सृष्टि के आदि से परमात्मा द्वारा हुई । अर्थात 1 अरब 96 करोड़ 8 लाख 43 हजार वर्ष पूर्व ।
प्र.19- वेद-ज्ञान के सहायक दर्शन-शास्त्र ( उपअंग ) कितने हैं और उनके लेखकों का क्या नाम है ?
उत्तर-
1- न्याय दर्शन - गौतम मुनि।
2- वैशेषिक दर्शन - कणाद मुनि।
3- योगदर्शन - पतंजलि मुनि।
4- मीमांसा दर्शन - जैमिनी मुनि।
5- सांख्य दर्शन - कपिल मुनि।
6- वेदांत दर्शन - व्यास मुनि।
प्र.20- शास्त्रों के विषय क्या है ?
उत्तर- आत्मा, परमात्मा, प्रकृति, जगत की उत्पत्ति, मुक्ति अर्थात सब प्रकार का भौतिक व आध्यात्मिक ज्ञान-विज्ञान आदि।
प्र.21- प्रामाणिक उपनिषदे कितनी है ?
उत्तर- केवल ग्यारह।
प्र.22- उपनिषदों के नाम बतावे ?
उत्तर-
01-ईश ( ईशावास्य )
02-केन
03-कठ
04-प्रश्न
05-मुंडक
06-मांडू
07-ऐतरेय
08-तैत्तिरीय
09-छांदोग्य
10-वृहदारण्यक
11-श्वेताश्वतर ।
प्र.23- उपनिषदों के विषय कहाँ से लिए गए है ?
उत्तर- वेदों से।
प्र.24- चार वर्ण।
उत्तर-
1- ब्राह्मण
2- क्षत्रिय
3- वैश्य
4- शूद्र
प्र.25- चार युग।
1- सतयुग - 17,28000 वर्षों का नाम ( सतयुग ) रखा है।
2- त्रेतायुग- 12,96000 वर्षों का नाम ( त्रेतायुग ) रखा है।
3- द्वापरयुग- 8,64000 वर्षों का नाम है।
4- कलयुग- 4,32000 वर्षों का नाम है।
कलयुग के 5122 वर्षों का भोग हो चुका है अभी तक।
4,27024 वर्षों का भोग होना है।
पंच महायज्ञ
1- ब्रह्मयज्ञ
2- देवयज्ञ
3- पितृयज्ञ
4- बलिवैश्वदेवयज्ञ
5- अतिथियज्ञ
स्वर्ग - जहाँ सुख है।
नरक - जहाँ दुःख है।.
*#भगवान_शिव के "35" रहस्य!!!!!!!!
भगवान शिव अर्थात पार्वती के पति शंकर जिन्हें महादेव, भोलेनाथ, आदिनाथ आदि कहा जाता है।
*🔱1. आदिनाथ शिव : -* सर्वप्रथम शिव ने ही धरती पर जीवन के प्रचार-प्रसार का प्रयास किया इसलिए उन्हें 'आदिदेव' भी कहा जाता है। 'आदि' का अर्थ प्रारंभ। आदिनाथ होने के कारण उनका एक नाम 'आदिश' भी है।
*🔱2. शिव के अस्त्र-शस्त्र : -* शिव का धनुष पिनाक, चक्र भवरेंदु और सुदर्शन, अस्त्र पाशुपतास्त्र और शस्त्र त्रिशूल है। उक्त सभी का उन्होंने ही निर्माण किया था।
*🔱3. भगवान शिव का नाग : -* शिव के गले में जो नाग लिपटा रहता है उसका नाम वासुकि है। वासुकि के बड़े भाई का नाम शेषनाग है।
*🔱4. शिव की अर्द्धांगिनी : -* शिव की पहली पत्नी सती ने ही अगले जन्म में पार्वती के रूप में जन्म लिया और वही उमा, उर्मि, काली कही गई हैं।
*🔱5. शिव के पुत्र : -* शिव के प्रमुख 6 पुत्र हैं- गणेश, कार्तिकेय, सुकेश, जलंधर, अयप्पा और भूमा। सभी के जन्म की कथा रोचक है।
*🔱6. शिव के शिष्य : -* शिव के 7 शिष्य हैं जिन्हें प्रारंभिक सप्तऋषि माना गया है। इन ऋषियों ने ही शिव के ज्ञान को संपूर्ण धरती पर प्रचारित किया जिसके चलते भिन्न-भिन्न धर्म और संस्कृतियों की उत्पत्ति हुई। शिव ने ही गुरु और शिष्य परंपरा की शुरुआत की थी। शिव के शिष्य हैं- बृहस्पति, विशालाक्ष, शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज इसके अलावा 8वें गौरशिरस मुनि भी थे।
*🔱7. शिव के गण : -* शिव के गणों में भैरव, वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, जय और विजय प्रमुख हैं। इसके अलावा, पिशाच, दैत्य और नाग-नागिन, पशुओं को भी शिव का गण माना जाता है।
*🔱8. शिव पंचायत : -* भगवान सूर्य, गणपति, देवी, रुद्र और विष्णु ये शिव पंचायत कहलाते हैं।
*🔱9. शिव के द्वारपाल : -* नंदी, स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल।
*🔱10. शिव पार्षद : -* जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि शिव के पार्षद हैं।
*🔱11. सभी धर्मों का केंद्र शिव : -* शिव की वेशभूषा ऐसी है कि प्रत्येक धर्म के लोग उनमें अपने प्रतीक ढूंढ सकते हैं। मुशरिक, यजीदी, साबिईन, सुबी, इब्राहीमी धर्मों में शिव के होने की छाप स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। शिव के शिष्यों से एक ऐसी परंपरा की शुरुआत हुई, जो आगे चलकर शैव, सिद्ध, नाथ, दिगंबर और सूफी संप्रदाय में विभक्त हो गई।
*🔱12. बौद्ध साहित्य के मर्मज्ञ अंतरराष्ट्रीय : -* ख्यातिप्राप्त विद्वान प्रोफेसर उपासक का मानना है कि शंकर ने ही बुद्ध के रूप में जन्म लिया था। उन्होंने पालि ग्रंथों में वर्णित 27 बुद्धों का उल्लेख करते हुए बताया कि इनमें बुद्ध के 3 नाम अतिप्राचीन हैं- तणंकर, शणंकर और मेघंकर।
*🔱13. देवता और असुर दोनों के प्रिय शिव : -* भगवान शिव को देवों के साथ असुर, दानव, राक्षस, पिशाच, गंधर्व, यक्ष आदि सभी पूजते हैं। वे रावण को भी वरदान देते हैं और राम को भी। उन्होंने भस्मासुर, शुक्राचार्य आदि कई असुरों को वरदान दिया था। शिव, सभी आदिवासी, वनवासी जाति, वर्ण, धर्म और समाज के सर्वोच्च देवता हैं।
*🔱14. शिव चिह्न : -* वनवासी से लेकर सभी साधारण व्यक्ति जिस चिह्न की पूजा कर सकें, उस पत्थर के ढेले, बटिया को शिव का चिह्न माना जाता है। इसके अलावा रुद्राक्ष और त्रिशूल को भी शिव का चिह्न माना गया है। कुछ लोग डमरू और अर्द्ध चन्द्र को भी शिव का चिह्न मानते हैं, हालांकि ज्यादातर लोग शिवलिंग अर्थात शिव की ज्योति का पूजन करते हैं।
*🔱15. शिव की गुफा : -* शिव ने भस्मासुर से बचने के लिए एक पहाड़ी में अपने त्रिशूल से एक गुफा बनाई और वे फिर उसी गुफा में छिप गए। वह गुफा जम्मू से 150 किलोमीटर दूर त्रिकूटा की पहाड़ियों पर है। दूसरी ओर भगवान शिव ने जहां पार्वती को अमृत ज्ञान दिया था वह गुफा 'अमरनाथ गुफा' के नाम से प्रसिद्ध है।
*🔱16. शिव के पैरों के निशान : -* श्रीपद- श्रीलंका में रतन द्वीप पहाड़ की चोटी पर स्थित श्रीपद नामक मंदिर में शिव के पैरों के निशान हैं। ये पदचिह्न 5 फुट 7 इंच लंबे और 2 फुट 6 इंच चौड़े हैं। इस स्थान को सिवानोलीपदम कहते हैं। कुछ लोग इसे आदम पीक कहते हैं।
रुद्र पद- तमिलनाडु के नागपट्टीनम जिले के थिरुवेंगडू क्षेत्र में श्रीस्वेदारण्येश्वर का मंदिर में शिव के पदचिह्न हैं जिसे 'रुद्र पदम' कहा जाता है। इसके अलावा थिरुवन्नामलाई में भी एक स्थान पर शिव के पदचिह्न हैं।
तेजपुर- असम के तेजपुर में ब्रह्मपुत्र नदी के पास स्थित रुद्रपद मंदिर में शिव के दाएं पैर का निशान है।
जागेश्वर- उत्तराखंड के अल्मोड़ा से 36 किलोमीटर दूर जागेश्वर मंदिर की पहाड़ी से लगभग साढ़े 4 किलोमीटर दूर जंगल में भीम के पास शिव के पदचिह्न हैं। पांडवों को दर्शन देने से बचने के लिए उन्होंने अपना एक पैर यहां और दूसरा कैलाश में रखा था।
रांची- झारखंड के रांची रेलवे स्टेशन से 7 किलोमीटर की दूरी पर 'रांची हिल' पर शिवजी के पैरों के निशान हैं। इस स्थान को 'पहाड़ी बाबा मंदिर' कहा जाता है।
*🔱17. शिव के अवतार : -* वीरभद्र, पिप्पलाद, नंदी, भैरव, महेश, अश्वत्थामा, शरभावतार, गृहपति, दुर्वासा, हनुमान, वृषभ, यतिनाथ, कृष्णदर्शन, अवधूत, भिक्षुवर्य, सुरेश्वर, किरात, सुनटनर्तक, ब्रह्मचारी, यक्ष, वैश्यानाथ, द्विजेश्वर, हंसरूप, द्विज, नतेश्वर आदि हुए हैं। वेदों में रुद्रों का जिक्र है। रुद्र 11 बताए जाते हैं- कपाली, पिंगल, भीम, विरुपाक्ष, विलोहित, शास्ता, अजपाद, आपिर्बुध्य, शंभू, चण्ड तथा भव।
*🔱18. शिव का विरोधाभासिक परिवार : -* शिवपुत्र कार्तिकेय का वाहन मयूर है, जबकि शिव के गले में वासुकि नाग है। स्वभाव से मयूर और नाग आपस में दुश्मन हैं। इधर गणपति का वाहन चूहा है, जबकि सांप मूषकभक्षी जीव है। पार्वती का वाहन शेर है, लेकिन शिवजी का वाहन तो नंदी बैल है। इस विरोधाभास या वैचारिक भिन्नता के बावजूद परिवार में एकता है।
*🔱19.* तिब्बत स्थित कैलाश पर्वत पर उनका निवास है। जहां पर शिव विराजमान हैं उस पर्वत के ठीक नीचे पाताल लोक है जो भगवान विष्णु का स्थान है। शिव के आसन के ऊपर वायुमंडल के पार क्रमश: स्वर्ग लोक और फिर ब्रह्माजी का स्थान है।
*🔱20.शिव भक्त : -* ब्रह्मा, विष्णु और सभी देवी-देवताओं सहित भगवान राम और कृष्ण भी शिव भक्त है। हरिवंश पुराण के अनुसार, कैलास पर्वत पर कृष्ण ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की थी। भगवान राम ने रामेश्वरम में शिवलिंग स्थापित कर उनकी पूजा-अर्चना की थी।
*🔱21.शिव ध्यान : -* शिव की भक्ति हेतु शिव का ध्यान-पूजन किया जाता है। शिवलिंग को बिल्वपत्र चढ़ाकर शिवलिंग के समीप मंत्र जाप या ध्यान करने से मोक्ष का मार्ग पुष्ट होता है।
*🔱22.शिव मंत्र : -* दो ही शिव के मंत्र हैं पहला- ॐ नम: शिवाय। दूसरा महामृत्युंजय मंत्र- ॐ ह्रौं जू सः। ॐ भूः भुवः स्वः। ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात्। स्वः भुवः भूः ॐ। सः जू ह्रौं ॐ ॥ है।
*🔱23.शिव व्रत और त्योहार : -* सोमवार, प्रदोष और श्रावण मास में शिव व्रत रखे जाते हैं। शिवरात्रि और महाशिवरात्रि शिव का प्रमुख पर्व त्योहार है।
*🔱24.शिव प्रचारक : -* भगवान शंकर की परंपरा को उनके शिष्यों बृहस्पति, विशालाक्ष (शिव), शुक्र, सहस्राक्ष, महेन्द्र, प्राचेतस मनु, भरद्वाज, अगस्त्य मुनि, गौरशिरस मुनि, नंदी, कार्तिकेय, भैरवनाथ आदि ने आगे बढ़ाया। इसके अलावा वीरभद्र, मणिभद्र, चंदिस, नंदी, श्रृंगी, भृगिरिटी, शैल, गोकर्ण, घंटाकर्ण, बाण, रावण, जय और विजय ने भी शैवपंथ का प्रचार किया। इस परंपरा में सबसे बड़ा नाम आदिगुरु भगवान दत्तात्रेय का आता है। दत्तात्रेय के बाद आदि शंकराचार्य, मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गुरुगोरखनाथ का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।
*🔱25.शिव महिमा : -* शिव ने कालकूट नामक विष पिया था जो अमृत मंथन के दौरान निकला था। शिव ने भस्मासुर जैसे कई असुरों को वरदान दिया था। शिव ने कामदेव को भस्म कर दिया था। शिव ने गणेश और राजा दक्ष के सिर को जोड़ दिया था। ब्रह्मा द्वारा छल किए जाने पर शिव ने ब्रह्मा का पांचवां सिर काट दिया था।
*🔱26.शैव परम्परा : -* दसनामी, शाक्त, सिद्ध, दिगंबर, नाथ, लिंगायत, तमिल शैव, कालमुख शैव, कश्मीरी शैव, वीरशैव, नाग, लकुलीश, पाशुपत, कापालिक, कालदमन और महेश्वर सभी शैव परंपरा से हैं। चंद्रवंशी, सूर्यवंशी, अग्निवंशी और नागवंशी भी शिव की परंपरा से ही माने जाते हैं। भारत की असुर, रक्ष और आदिवासी जाति के आराध्य देव शिव ही हैं। शैव धर्म भारत के आदिवासियों का धर्म है।
*🔱27.शिव के प्रमुख नाम : -* शिव के वैसे तो अनेक नाम हैं जिनमें 108 नामों का उल्लेख पुराणों में मिलता है लेकिन यहां प्रचलित नाम जानें- महेश, नीलकंठ, महादेव, महाकाल, शंकर, पशुपतिनाथ, गंगाधर, नटराज, त्रिनेत्र, भोलेनाथ, आदिदेव, आदिनाथ, त्रियंबक, त्रिलोकेश, जटाशंकर, जगदीश, प्रलयंकर, विश्वनाथ, विश्वेश्वर, हर, शिवशंभु, भूतनाथ और रुद्र।
*🔱28.अमरनाथ के अमृत वचन : -* शिव ने अपनी अर्धांगिनी पार्वती को मोक्ष हेतु अमरनाथ की गुफा में जो ज्ञान दिया उस ज्ञान की आज अनेकानेक शाखाएं हो चली हैं। वह ज्ञानयोग और तंत्र के मूल सूत्रों में शामिल है। 'विज्ञान भैरव तंत्र' एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें भगवान शिव द्वारा पार्वती को बताए गए 112 ध्यान सूत्रों का संकलन है।
*🔱29.शिव ग्रंथ : -* वेद और उपनिषद सहित विज्ञान भैरव तंत्र, शिव पुराण और शिव संहिता में शिव की संपूर्ण शिक्षा और दीक्षा समाई हुई है। तंत्र के अनेक ग्रंथों में उनकी शिक्षा का विस्तार हुआ है।
*🔱30.शिवलिंग : -* वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है, उसे लिंग कहते हैं। इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है। वस्तुत: यह संपूर्ण सृष्टि बिंदु-नाद स्वरूप है। बिंदु शक्ति है और नाद शिव। बिंदु अर्थात ऊर्जा और नाद अर्थात ध्वनि। यही दो संपूर्ण ब्रह्मांड का आधार है। इसी कारण प्रतीक स्वरूप शिवलिंग की पूजा-अर्चना है।
*🔱31.बारह ज्योतिर्लिंग : -* सोमनाथ, मल्लिकार्जुन, महाकालेश्वर, ॐकारेश्वर, वैद्यनाथ, भीमशंकर, रामेश्वर, नागेश्वर, विश्वनाथजी, त्र्यम्बकेश्वर, केदारनाथ, घृष्णेश्वर। ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति के संबंध में अनेकों मान्यताएं प्रचलित है। ज्योतिर्लिंग यानी 'व्यापक ब्रह्मात्मलिंग' जिसका अर्थ है 'व्यापक प्रकाश'। जो शिवलिंग के बारह खंड हैं। शिवपुराण के अनुसार ब्रह्म, माया, जीव, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी को ज्योतिर्लिंग या ज्योति पिंड कहा गया है।
दूसरी मान्यता अनुसार शिव पुराण के अनुसार प्राचीनकाल में आकाश से ज्योति पिंड पृथ्वी पर गिरे और उनसे थोड़ी देर के लिए प्रकाश फैल गया। इस तरह के अनेकों उल्का पिंड आकाश से धरती पर गिरे थे। भारत में गिरे अनेकों पिंडों में से प्रमुख बारह पिंड को ही ज्योतिर्लिंग में शामिल किया गया।
*🔱32.शिव का दर्शन : -* शिव के जीवन और दर्शन को जो लोग यथार्थ दृष्टि से देखते हैं वे सही बुद्धि वाले और यथार्थ को पकड़ने वाले शिवभक्त हैं, क्योंकि शिव का दर्शन कहता है कि यथार्थ में जियो, वर्तमान में जियो, अपनी चित्तवृत्तियों से लड़ो मत, उन्हें अजनबी बनकर देखो और कल्पना का भी यथार्थ के लिए उपयोग करो। आइंस्टीन से पूर्व शिव ने ही कहा था कि कल्पना ज्ञान से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
*🔱33.शिव और शंकर : -* शिव का नाम शंकर के साथ जोड़ा जाता है। लोग कहते हैं- शिव, शंकर, भोलेनाथ। इस तरह अनजाने ही कई लोग शिव और शंकर को एक ही सत्ता के दो नाम बताते हैं। असल में, दोनों की प्रतिमाएं अलग-अलग आकृति की हैं। शंकर को हमेशा तपस्वी रूप में दिखाया जाता है। कई जगह तो शंकर को शिवलिंग का ध्यान करते हुए दिखाया गया है। अत: शिव और शंकर दो अलग अलग सत्ताएं है। हालांकि शंकर को भी शिवरूप माना गया है। माना जाता है कि महेष (नंदी) और महाकाल भगवान शंकर के द्वारपाल हैं। रुद्र देवता शंकर की पंचायत के सदस्य हैं।
*🔱34. देवों के देव महादेव :* देवताओं की दैत्यों से प्रतिस्पर्धा चलती रहती थी। ऐसे में जब भी देवताओं पर घोर संकट आता था तो वे सभी देवाधिदेव महादेव के पास जाते थे। दैत्यों, राक्षसों सहित देवताओं ने भी शिव को कई बार चुनौती दी, लेकिन वे सभी परास्त होकर शिव के समक्ष झुक गए इसीलिए शिव हैं देवों के देव महादेव। वे दैत्यों, दानवों और भूतों के भी प्रिय भगवान हैं। वे राम को भी वरदान देते हैं और रावण को भी।
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Shabari
*शबरी को आश्रम सौंपकर महर्षि मतंग जब देवलोक जाने लगे, तब शबरी भी साथ जाने की जिद करने लगी।*
शबरी की उम्र *दस वर्ष* थी। वो महर्षि मतंग का हाथ पकड़ रोने लगी।
महर्षि शबरी को रोते देख व्याकुल हो उठे। शबरी को समझाया *"पुत्री इस आश्रम में भगवान आएंगे, तुम यहीं प्रतीक्षा करो।"*
अबोध शबरी इतना अवश्य जानती थी कि गुरु का वाक्य सत्य होकर रहेगा, उसने फिर पूछा- *कब आएंगे..?*
महर्षि मतंग त्रिकालदर्शी थे। वे भूत भविष्य सब जानते थे, वे ब्रह्मर्षि थे। *महर्षि शबरी के आगे घुटनों के बल बैठ गए और शबरी को नमन किया।*
*आसपास उपस्थित सभी ऋषिगण असमंजस में डूब गए।* ये उलट कैसे हुआ। *गुरु यहां शिष्य को नमन करे, ये कैसे हुआ???*
महर्षि के तेज के आगे कोई बोल न सका।
महर्षि मतंग बोले-
*पुत्री अभी उनका जन्म नहीं हुआ।*
*अभी दशरथ जी का लग्न भी नहीं हुआ।*
*उनका कौशल्या से विवाह होगा।* फिर भगवान की लम्बी प्रतीक्षा होगी।
*फिर दशरथ जी का विवाह सुमित्रा से होगा।* फिर प्रतीक्षा..
*फिर उनका विवाह कैकई से होगा।* फिर प्रतीक्षा..
फिर वो *जन्म* लेंगे, फिर उनका *विवाह माता जानकी से होगा।* फिर उन्हें 14 वर्ष वनवास होगा और फिर वनवास के आखिरी वर्ष माता जानकी का हरण होगा। *तब उनकी खोज में वे यहां आएंगे।* तुम उन्हें कहना *आप सुग्रीव से मित्रता कीजिये। उसे आतताई बाली के संताप से मुक्त कीजिये, आपका अभीष्ट सिद्ध होगा। और आप रावण पर अवश्य विजय प्राप्त करेंगे।*
शबरी एक क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई। *अबोध शबरी* इतनी लंबी प्रतीक्षा के समय को माप भी नहीं पाई।
*वह फिर अधीर होकर* पूछने लगी- *"इतनी लम्बी प्रतीक्षा कैसे पूरी होगी गुरुदेव???"*
महर्षि मतंग बोले- *"वे ईश्वर है, अवश्य ही आएंगे।* यह भावी निश्चित है। *लेकिन यदि उनकी इच्छा हुई तो काल दर्शन के इस विज्ञान को परे रखकर वे कभी भी आ सकते है। लेकिन आएंगे "अवश्य"...!*
जन्म मरण से परे उन्हें जब जरूरत हुई तो प्रह्लाद के लिए खम्बे से भी निकल आये थे। *इसलिए प्रतीक्षा करना।* वे कभी भी आ सकते है। *तीनों काल तुम्हारे गुरु के रूप में मुझे याद रखेंगे। शायद यही मेरे तप का फल है।"*
शबरी गुरु के आदेश को मान वहीं आश्रम में रुक गई। *उसे हर दिन प्रभु श्रीराम की प्रतीक्षा रहती थी।* वह जानती थी समय का चक्र उनकी उंगली पर नाचता है, वे कभी भी आ सकतें है।
*हर रोज रास्ते में फूल बिछाती है और हर क्षण प्रतीक्षा करती।*
*कभी भी आ सकतें हैं।*
हर तरफ फूल बिछाकर हर क्षण प्रतीक्षा। *शबरी बूढ़ी हो गई।* लेकिन प्रतीक्षा *उसी अबोध चित्त से करती रही।*
और एक दिन उसके बिछाए फूलों पर प्रभु श्रीराम के चरण पड़े। *शबरी का कंठ अवरुद्ध हो गया। आंखों से अश्रुओं की धारा फूट पड़ी।*
*गुरु का कथन सत्य हुआ।* भगवान उसके घर आ गए। *शबरी की प्रतीक्षा का फल ये रहा कि जिन राम को कभी तीनों माताओं ने जूठा नहीं खिलाया, उन्हीं राम ने शबरी का जूठा खाया।*
*ऐसे पतित पावन मर्यादा, पुरुषोत्तम, दीन हितकारी श्री राम जी की जय हो। जय हो। जय हो। एकटक देर तक उस सुपुरुष को निहारते रहने के बाद वृद्धा भीलनी के मुंह से स्वर/बोल फूटे-*
*"कहो राम ! शबरी की कुटिया को ढूंढ़ने में अधिक कष्ट तो नहीं हुआ..?"*
राम मुस्कुराए- *"यहां तो आना ही था मां, कष्ट का क्या मोल/मूल्य..?"*
*"जानते हो राम! तुम्हारी प्रतीक्षा तब से कर रही हूँ, जब तुम जन्मे भी नहीं थे, यह भी नहीं जानती थी कि तुम कौन हो ? कैसे दिखते हो ? क्यों आओगे मेरे पास ? बस इतना ज्ञात था कि कोई पुरुषोत्तम आएगा, जो मेरी प्रतीक्षा का अंत करेगा।*
राम ने कहा- *"तभी तो मेरे जन्म के पूर्व ही तय हो चुका था कि राम को शबरी के आश्रम में जाना है।”*
*"एक बात बताऊँ प्रभु ! भक्ति में दो प्रकार की शरणागति होती है। पहली ‘वानरी भाव’ और दूसरी ‘मार्जारी भाव’।*
*”बन्दर का बच्चा अपनी पूरी शक्ति लगाकर अपनी माँ का पेट पकड़े रहता है, ताकि गिरे न... उसे सबसे अधिक भरोसा माँ पर ही होता है और वह उसे पूरी शक्ति से पकड़े रहता है। यही भक्ति का भी एक भाव है, जिसमें भक्त अपने ईश्वर को पूरी शक्ति से पकड़े रहता है। दिन रात उसकी आराधना करता है...!” (वानरी भाव)*
पर मैंने यह भाव नहीं अपनाया। *”मैं तो उस बिल्ली के बच्चे की भाँति थी, जो अपनी माँ को पकड़ता ही नहीं, बल्कि निश्चिन्त बैठा रहता है कि माँ है न, वह स्वयं ही मेरी रक्षा करेगी, और माँ सचमुच उसे अपने मुँह में टांग कर घूमती है। मैं भी निश्चिन्त थी कि तुम आओगे ही, तुम्हें क्या पकड़ना...।" (मार्जारी भाव)*
राम मुस्कुराकर रह गए!!
भीलनी ने पुनः कहा- *"सोच रही हूँ बुराई में भी तनिक अच्छाई छिपी होती है न... “कहाँ सुदूर उत्तर के तुम, कहाँ घोर दक्षिण में मैं!" तुम प्रतिष्ठित रघुकुल के भविष्य, मैं वन की भीलनी। यदि रावण का अंत नहीं करना होता तो तुम कहाँ से आते..?”*
राम गम्भीर हुए और कहा-
*भ्रम में न पड़ो मां! “राम क्या रावण का वध करने आया है..?”*
*रावण का वध तो लक्ष्मण अपने पैर से बाण चलाकर भी कर सकता है।*
*राम हजारों कोस चलकर इस गहन वन में आया है, तो केवल तुमसे मिलने आया है मां, ताकि “सहस्त्रों वर्षों के बाद भी, जब कोई भारत के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा करे तो इतिहास चिल्ला कर उत्तर दे, कि इस राष्ट्र को क्षत्रिय राम और उसकी भीलनी माँ ने मिलकर गढ़ा था।”*
*"जब कोई भारत की परम्पराओं पर उँगली उठाये तो काल उसका गला पकड़कर कहे कि नहीं! यह एकमात्र ऐसी सभ्यता है जहाँ, एक राजपुत्र वन में प्रतीक्षा करती एक वनवासिनी से भेंट करने के लिए चौदह वर्ष का वनवास स्वीकार करता है।"*
*राम वन में बस इसलिए आया है, ताकि “जब युगों का इतिहास लिखा जाए, तो उसमें अंकित हो कि "शासन/प्रशासन और सत्ता" जब पैदल चलकर वन में रहने वाले समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचे, तभी वह रामराज्य है।”*
(अंत्योदय)
*राम वन में इसलिए आया है, ताकि भविष्य स्मरण रखे कि प्रतीक्षाएँ अवश्य पूरी होती हैं। राम रावण को मारने भर के लिए नहीं आया है माँ!*
माता शबरी एकटक राम को निहारती रहीं।
राम ने फिर कहा-
*राम की वन यात्रा रावण युद्ध के लिए नहीं है माता! “राम की यात्रा प्रारंभ हुई है, भविष्य के आदर्श की स्थापना के लिए।”*
*"राम राजमहल से निकला है, ताकि “विश्व को संदेश दे सके कि एक माँ की अवांछनीय इच्छओं को भी पूरा करना ही 'राम' होना है।”*
*"राम निकला है, ताकि “भारत विश्व को सीख दे सके कि किसी सीता के अपमान का दण्ड असभ्य रावण के पूरे साम्राज्य के विध्वंस से पूरा होता है।”*
*"राम आया है, ताकि “भारत विश्व को बता सके कि अन्याय और आतंक का अंत करना ही धर्म है।”*
*"राम आया है, ताकि “भारत विश्व को सदैव के लिए सीख दे सके कि विदेश में बैठे शत्रु की समाप्ति के लिए आवश्यक है कि पहले देश में बैठी उसकी समर्थक सूर्पणखाओं की नाक काटी जाए और खर-दूषणों का घमंड तोड़ा जाए।”*
और
*"राम आया है, ताकि “युगों को बता सके कि रावणों से युद्ध केवल राम की शक्ति से नहीं बल्कि वन में बैठी शबरी के आशीर्वाद से जीते जाते है।”*
शबरी की आँखों में जल भर आया था।
उसने बात बदलकर कहा- *"बेर खाओगे राम..?”*
राम मुस्कुराए, *"बिना खाये जाऊंगा भी नहीं मां!"*
शबरी अपनी कुटिया से झपोली में बेर लेकर आई और राम के समक्ष रख दिये।
राम और लक्ष्मण खाने लगे तो कहा-
"बेर मीठे हैं न प्रभु..?”
*"यहाँ आकर मीठे और खट्टे का भेद भूल गया हूँ मां! बस इतना समझ रहा हूँ कि यही अमृत है।”*
सबरी मुस्कुराईं, बोली- *"सचमुच तुम मर्यादा पुरुषोत्तम हो, राम!"*
*मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान श्री राम को बारंबार सादर वन्दन*
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"एकलव्य"
मगध नरेश जरासंध के प्रधान सेनापति हिरण्यधनु का पुत्र था। कोई आदिवासी SC-ST नहीं था। तो एकलव्य दलित कैसे हुआ।
*🙏🙏🙏🙏🙏🙏 🙏*
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Kedarnath Mandir
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#केदारनाथ_मंदिर :
#एक_अनसुलझी_पहेली
केदारनाथ मंदिर का निर्माण किसने करवाया था इसके बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। पांडवों से लेकर आदि शंकराचार्य तक।
आज का विज्ञान बताता है कि केदारनाथ मंदिर शायद 8वीं शताब्दी में बना था। यदि आप ना भी कहते हैं, तो भी यह मंदिर कम से कम 1200 वर्षों से अस्तित्व में है।
केदारनाथ की भूमि 21वीं सदी में भी बहुत प्रतिकूल है। एक तरफ 22,000 फीट ऊँची केदारनाथ पहाड़ी, दूसरी तरफ 21,600 फीट ऊँची कराचकुंड और तीसरी तरफ 22,700 फीट ऊँचा भरतकुंड है। इन तीन पर्वतों से होकर बहने वाली पाँच नदियाँ हैं मंदाकिनी, मधुगंगा, चिरगंगा, सरस्वती और स्वरंदरी। इनमें से कुछ इस पुराण में लिखे गए हैं।
यह क्षेत्र "मंदाकिनी नदी" का एकमात्र जलसंग्रहण क्षेत्र है। यह मंदिर एक कलाकृति हैI कितना बड़ा असम्भव कार्य रहा होगा ऐसी जगह पर कलाकृति जैसा मन्दिर बनाना जहाँ ठंड के दिन भारी मात्रा में बर्फ हो और बरसात के मौसम में बहुत तेज गति से पानी बहता हो। आज भी आप गाड़ी से उस स्थान तक नही जा सकते।
फिर इस मन्दिर को ऐसी जगह क्यों बनाया गया?
ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में 1200 साल से भी पहले ऐसा अप्रतिम मंदिर कैसे बन सकता है?
1200 साल बाद भी जहाँ उस क्षेत्र में सब कुछ हेलिकॉप्टर से ले जाया जाता है। JCB के बिना आज भी वहाँ एक भी ढाँचा खड़ा नहीं होता है। यह मंदिर वहीं खड़ा है और न सिर्फ खड़ा है, बल्कि बहुत मजबूत है।
हम सभी को कम से कम एक बार यह सोचना चाहिए।
वैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि यदि मंदिर 10वीं शताब्दी में पृथ्वी पर होता, तो यह "हिम युग" की एक छोटी अवधि में होता।
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलॉजी, देहरादून ने केदारनाथ मंदिर की चट्टानों पर लिग्नोमैटिक डेटिंग का परीक्षण किया। यह "पत्थरों के जीवन" की पहचान करने के लिए किया जाता है। परीक्षण से पता चला कि मंदिर 14वीं सदी से लेकर 17वीं सदी के मध्य तक पूरी तरह से बर्फ में दब गया था। हालाँकि, मंदिर के निर्माण में कोई नुकसान नहीं हुआ।
2013 में केदारनाथ में आई विनाशकारी बाढ़ को सभी ने देखा होगा। इस दौरान औसत से 375% अधिक बारिश हुई थी। आगामी बाढ़ में "5748 लोग" (सरकारी आँकड़े) मारे गए और 4200 गाँवों को नुकसान पहुँचा। भारतीय वायुसेना ने 1 लाख 10 हजार से ज्यादा लोगों को एयरलिफ्ट किया। सब कुछ ले जाया गया। लेकिन इतनी भीषण बाढ़ में भी केदारनाथ मंदिर का पूरा ढाँचा जरा भी प्रभावित नहीं हुआ।
भारतीय पुरातत्व सोसायटी के मुताबिक, बाढ़ के बाद भी मंदिर के पूरे ढाँचे के ऑडिट में 99 फीसदी मंदिर पूरी तरह सुरक्षित है I 2013 की बाढ़ और इसकी वर्तमान स्थिति के दौरान निर्माण को कितना नुकसान हुआ था, इसका अध्ययन करने के लिए "आईआईटी मद्रास" ने मंदिर पर "एनडीटी परीक्षण" किया। साथ ही कहा कि मंदिर पूरी तरह से सुरक्षित और मजबूत है।
यदि मंदिर दो अलग-अलग संस्थानों द्वारा आयोजित एक बहुत ही "वैज्ञानिक और वैज्ञानिक परीक्षण" में उत्तीर्ण नहीं होता है, तो आज के समीक्षक आपको सबसे अच्छा क्या कहता?
मंदिर के अक्षुण खड़े रहने के पीछे जिस दिशा में इस मंदिर का निर्माण किया गया है व जिस स्थान का चयन किया गया है, ये ही प्रमुख कारण हैं।
दूसरी बात यह है कि इसमें इस्तेमाल किया गया पत्थर बहुत सख्त और टिकाऊ होता है। खास बात यह है कि इस मंदिर के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया गया पत्थर वहाँ उपलब्ध नहीं है, तो जरा सोचिए कि उस पत्थर को वहाँ कैसे ले जाया जा सकता था। उस समय इतने बड़े पत्थर को ढोने के लिए इतने उपकरण भी उपलब्ध नहीं थे। इस पत्थर की विशेषता यह है कि 400 साल तक बर्फ के नीचे रहने के बाद भी इसके "गुणों" में कोई अंतर नहीं है।
आज विज्ञान कहता है कि मंदिर के निर्माण में जिस पत्थर और संरचना का इस्तेमाल किया गया है, तथा जिस दिशा में बना है उसी की वजह से यह मंदिर इस बाढ़ में बच पाया।
केदारनाथ मंदिर "उत्तर-दक्षिण" के रूप में बनाया गया है। जबकि भारत में लगभग सभी मंदिर "पूर्व-पश्चिम" हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, यदि मंदिर "पूर्व-पश्चिम" होता तो पहले ही नष्ट हो चुका होता। या कम से कम 2013 की बाढ़ में तबाह हो जाता। लेकिन इस दिशा की वजह से केदारनाथ मंदिर बच गया है।
इसलिए, मंदिर ने प्रकृति के चक्र में ही अपनी ताकत बनाए रखी है। मंदिर के इन मजबूत पत्थरों को बिना किसी सीमेंट के "एशलर" तरीके से एक साथ चिपका दिया गया है। इसलिए पत्थर के जोड़ पर तापमान परिवर्तन के किसी भी प्रभाव के बिना मंदिर की ताकत अभेद्य है।
टाइटैनिक के डूबने के बाद, पश्चिमी लोगों ने महसूस किया कि कैसे "एनडीटी परीक्षण" और "तापमान" ज्वार को मोड़ सकते हैं।
लेकिन भारतीय लोगों ने यह सोचा और यह 1200 साल पहले परीक्षण किया। क्या केदारनाथ उन्नत भारतीय वास्तु कला का ज्वलंत उदाहरण नहीं है?2013 में, मंदिर के पिछले हिस्से में एक बड़ी चट्टान फँस गई और पानी की धार विभाजित हो गई। मंदिर के दोनों किनारों का तेज पानी अपने साथ सब कुछ ले गया लेकिन मंदिर और मंदिर में शरण लेने वाले लोग सुरक्षित रहे। जिन्हें अगले दिन भारतीय वायुसेना ने एयरलिफ्ट किया था।
सवाल यह नहीं है कि आस्था पर विश्वास किया जाए या नहीं। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि मंदिर के निर्माण के लिए स्थल, उसकी दिशा, वही निर्माण सामग्री और यहाँ तक कि प्रकृति को भी ध्यान से विचार किया गया था जो 1200 वर्षों तक अपनी संस्कृति और ताकत को बनाए रखेगा।
हम पुरातन भारतीय विज्ञान की भारी यत्न के बारे में सोचकर दंग रह गए हैं I शिला जिसका उपयोग 6 फुट ऊँचे मंच के निर्माण के लिए किया गया है कैसे मन्दिर स्थल तक लायी गयी।
आज तमाम बाढ़ों के बाद हम एक बार फिर केदारनाथ के उन वैज्ञानिकों के निर्माण के आगे नतमस्तक हैं, जिन्हें उसी भव्यता के साथ 12 ज्योतिर्लिंगों में सबसे ऊँचा होने का सम्मान मिलेगा।
यह एक उदाहरण है कि वैदिक हिंदू धर्म और संस्कृति कितनी उन्नत थी। उस समय हमारे ऋषि-मुनियों यानी वैज्ञानिकों ने वास्तुकला, मौसम विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, आयुर्वेद में काफी तरक्की की थी ।
इसलिए मुझे गर्व है कि मैं भारतीय हूँ।
हर हर महादेव !!!🚩
ऊँ जामदग्नाय विद्महे महावीराय् ,
धीमहि तन्नौ परशुरामः प्रचोदयात्॥
ब्राह्मण में ऐसा क्या है कि सारी दुनिया ब्राह्मणों के पीछे पड़ी है। इसका उत्तर इस प्रकार है।
रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि भगवान श्री राम जी ने श्री परशुराम जी से कहा कि →
"देव एक गुन धनुष हमारे।
नौ गुन परम पुनीत तुम्हारे।।"
हे प्रभु हम क्षत्रिय हैं, हमारे पास एक ही गुण अर्थात धनुष ही है। आप ब्राह्मण हैं आप में परम पवित्र 9 गुण हैं-
ब्राह्मण के नौ गुण :-
रिजुः तपस्वी सन्तोषी क्षमाशीलो जितेन्द्रियः।
दाता शूरो दयालुश्च ब्राह्मणो नवभिर्गुणैः।।
● रिजुः = सरल हो
● तपस्वी = तप करने वाले हो
● संतोषी= मेहनत की कमाई पर सन्तुष्ट रहने वाले हो
● क्षमाशीलो = क्षमा करने वाल हो
● जितेन्द्रियः = इन्द्रियों को वश में रखने वाले हो
● दाता= दान करने वाले हो
● शूर = बहादुर हो
● दयालुश्च= सब पर दया करने वाले हो
● ब्रह्मज्ञानी हो
श्रीमद् भगवत गीता के 18वें अध्याय के 42वें श्लोक में भी ब्राह्मण के 9 गुण इस प्रकार बताए गये हैं-
"शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च।
ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्म कर्म स्वभावजम् ।।"
अर्थात-मन का निग्रह करना, इंद्रियों को वश में करना, तप(धर्म पालन के लिए कष्ट सहना), शौच(बाहर भीतर से शुद्ध रहना), क्षमा (दूसरों के अपराध को क्षमा करना), आर्जवम् (शरीर, मन आदि में सरलता रखना, वेद शास्त्र आदि का ज्ञान होना, यज्ञ विधि को अनुभव में लाना और परमात्मा वेद आदि में आस्तिक भाव रखना, यह सब ब्राह्मणों के स्वभाविक कर्म हैं।
पूर्व श्लोक में "स्वभावप्रभवैर्गुणै:" कहा इसलिए स्वभावत कर्म बताया है। स्वभाव बनने में जन्म मुख्य है। फिर जन्म के बाद संग मुख्य है। संग स्वाध्याय, अभ्यास आदि के कारण स्वभाव में कर्म गुण बन जाता है।
दैवाधीनं जगत सर्वं, मन्त्रा धीनाश्च देवता:।
ते मंत्रा: ब्राह्मणा धीना:, तस्माद् ब्राह्मण देवता:।।
धिग्बलं क्षत्रिय बलं, ब्रह्म तेजो बलम बलम् ।
एकेन ब्रह्म दण्डेन, सर्व शस्त्राणि हतानि च ।।
विप्रो वृक्षस्तस्य मूलं च सन्ध्या।
वेदा: शाखा धर्मकर्माणि पत्रम् l।
तस्मान्मूलं यत्नतो रक्षणीयं।
छिन्ने मूले नैव शाखा न पत्रम् ll
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी।
धन्य पुन्य रत मति सोइ पाकी॥
धन्य घरी सोइ जब सतसंगा।
धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा॥
भावार्थ:- वह धन धन्य है, जिसकी पहली गति दान होती है (जो दान देने में व्यय होता है) वही बुद्धि धन्य और परिपक्व है जो पुण्य में लगी हुई है। वही घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें ब्राह्मण की अखण्ड भक्ति हो ॥
हिन्दू धर्म के यह प्रसिद्ध बारह संवाद–
"मौन"
गायत्री मंत्र
ॐ भूर् भुवः स्वः।
तत् सवितुर्वरेण्यं।
भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात् ॥
हिन्दी में भावार्थ
उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अपनी अन्तरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।
यह मंत्र सर्वप्रथम ऋग्वेद में उद्धृत हुआ है। इसके ऋषि विश्वामित्र हैं और देवता सविता हैं। वैसे तो यह मंत्र विश्वामित्र के इस सूक्त के १८ मंत्रों में केवल एक है, किंतु अर्थ की दृष्टि से इसकी महिमा का अनुभव आरंभ में ही ऋषियों ने कर लिया था और संपूर्ण ऋग्वेद के १० सहस्र मंत्रों में इस मंत्र के अर्थ की गंभीर व्यंजना सबसे अधिक की गई। इस मंत्र में २४ अक्षर हैं। उनमें आठ आठ अक्षरों के तीन चरण हैं। किंतु ब्राह्मण ग्रंथों में और कालांतर के समस्त साहित्य में इन अक्षरों से पहले तीन व्याहृतियाँ और उनसे पूर्व प्रणव या ओंकार को जोड़कर मंत्र का पूरा स्वरूप इस प्रकार स्थिर हुआ:
(१) ॐ(२) भूर्भव: स्व:(३) तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो न: प्रचोदयात्।
मंत्र के इस रूप को मनु ने सप्रणवा, सव्याहृतिका गायत्री कहा है और जप में इसी का विधान किया है।
गायत्री तत्व क्या है और क्यों इस मंत्र की इतनी महिमा है, इस प्रश्न का समाधान आवश्यक है। आर्ष मान्यता के अनुसार गायत्री एक ओर विराट् विश्व और दूसरी ओर मानव जीवन, एक ओर देवतत्व और दूसरी ओर भूततत्त्व, एक ओर मन और दूसरी ओर प्राण, एक ओर ज्ञान और दूसरी ओर कर्म के पारस्परिक संबंधों की पूरी व्याख्या कर देती है। इस मंत्र के देवता सविता हैं, सविता सूर्य की संज्ञा है, सूर्य के नाना रूप हैं, उनमें सविता वह रूप है जो समस्त देवों को प्रेरित करता है। जाग्रत् में सवितारूपी मन ही मानव की महती शक्ति है। जैसे सविता देव है वैसे मन भी देव है (देवं मन: ऋग्वेद, १,१६४,१८)। मन ही प्राण का प्रेरक है। मन और प्राण के इस संबंध की व्याख्या गायत्री मंत्र को इष्ट है। सविता मन प्राणों के रूप में सब कर्मों का अधिष्ठाता है, यह सत्य प्रत्यक्षसिद्ध है। इसे ही गायत्री के तीसरे चरण में कहा गया है। ब्राह्मण ग्रंथों की व्याख्या है-कर्माणि धिय:, अर्थातृ जिसे हम धी या बुद्धि तत्त्व कहते हैं वह केवल मन के द्वारा होनेवाले विचार या कल्पना सविता नहीं किंतु उन विचारों का कर्मरूप में मूर्त होना है। यही उसकी चरितार्थता है। किंतु मन की इस कर्मक्षमशक्ति के लिए मन का सशक्त या बलिष्ठ होना आवश्यक है। उस मन का जो तेज कर्म की प्रेरण के लिए आवश्यक है वही वरेण्य भर्ग है। मन की शक्तियों का तो पारवार नहीं है। उनमें से जितना अंश मनुष्य अपने लिए सक्षम बना पाता है, वहीं उसके लिए उस तेज का वरणीय अंश है। अतएव सविता के भर्ग की प्रार्थना में विशेष ध्वनि यह भी है कि सविता या मन का जो दिव्य अंश है वह पार्थिव या भूतों के धरातल पर अवतीर्ण होकर पार्थिव शरीर में प्रकाशित हो। इस गायत्री मंत्र में अन्य किसी प्रकार की कामना नहीं पाई जाती। यहाँ एक मात्र अभिलाषा यही है कि मानव को ईश्वर की ओर से मन के रूप में जो दिव्य शक्ति प्राप्त हुई है उसके द्वारा वह उसी सविता का ज्ञान करे और कर्मों के द्वारा उसे इस जीवन में सार्थक करे।
गायत्री के पूर्व में जो तीन व्याहृतियाँ हैं, वे भी सहेतुक हैं। भू पृथ्वीलोक, ऋग्वेद, अग्नि, पार्थिव जगत् और जाग्रत् अवस्था का सूचक है। भुव: अंतरिक्षलोक, यजुर्वेद, वायु देवता, प्राणात्मक जगत् और स्वप्नावस्था का सूचक है। स्व: द्युलोक, सामवेद, आदित्यदेवता, मनोमय जगत् और सुषुप्ति अवस्था का सूचक है। इस त्रिक के अन्य अनेक प्रतीक ब्राह्मण, उपनिषद् और पुराणों में कहे गए हैं, किंतु यदि त्रिक के विस्तार में व्याप्त निखिल विश्व को वाक के अक्षरों के संक्षिप्त संकेत में समझना चाहें तो उसके लिए ही यह ॐ संक्षिप्त संकेत गायत्री के आरंभ में रखा गया है। अ, उ, म इन तीनों मात्राओं से ॐ का स्वरूप बना है। अ अग्नि, उ वायु और म आदित्य का प्रतीक है। यह विश्व प्रजापति की वाक है। वाक का अनंत विस्तार है किंतु यदि उसका एक संक्षिप्त नमूना लेकर सारे विश्व का स्वरूप बताना चाहें तो अ, उ, म या ॐ कहने से उस त्रिक का परिचय प्राप्त होगा जिसका स्फुट प्रतीक त्रिपदा गायत्री है।
सम्राट शांतनु ने विवाह किया एक मछवारे की पुत्री सत्यवती से।उनका बेटा ही राजा बने इसलिए भीष्म ने विवाह न करके,आजीवन संतानहीन रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की।
सत्यवती के बेटे बाद में क्षत्रिय बन गए, जिनके लिए भीष्म आजीवन अविवाहित रहे, क्या उनका शोषण होता होगा?
महाभारत लिखने वाले वेद व्यास भी मछवारे थे, पर महर्षि बन गए, गुरुकुल चलाते थे वो।
विदुर, जिन्हें महा पंडित कहा जाता है वो एक दासी के पुत्र थे, हस्तिनापुर के महामंत्री बने, उनकी लिखी हुई विदुर नीति, राजनीति का एक महाग्रन्थ है।
भीम ने वनवासी हिडिम्बा से विवाह किया।
श्री कृष्ण दूध का व्यवसाय करने वालों के परिवार से थे,
उनके भाई बलराम खेती करते थे, हमेशा हल साथ रखते थे।
यादव क्षत्रिय रहे हैं, कई प्रान्तों पर शासन किया और श्री कृष्ण सबके पूजनीय हैं, गीता जैसा ग्रन्थ विश्व को दिया।
राम के साथ वनवासी निषादराज गुरुकुल में पढ़ते थे।
उनके पुत्र लव कुश महर्षि वाल्मीकि के गुरुकुल में पढ़े जो वनवासी थे
तो ये हो गयी वैदिक काल की बात, स्पष्ट है कोई किसी का शोषण नहीं करता था,सबको शिक्षा का अधिकार था, कोई भी पद तक पहुंच सकता था अपनी योग्यता के अनुसार।
वर्ण सिर्फ काम के आधार पर थे वो बदले जा सकते थे, जिसको आज इकोनॉमिक्स में डिवीज़न ऑफ़ लेबर कहते हैं वो ही।
प्राचीन भारत की बात करें, तो भारत के सबसे बड़े जनपद मगध पर जिस नन्द वंश का राज रहा वो जाति से नाई थे ।
नन्द वंश की शुरुवात महापद्मनंद ने की थी जो की राजा नाई थे। बाद में वो राजा बन गए फिर उनके बेटे भी, बाद में सभी क्षत्रिय ही कहलाये।
उसके बाद मौर्य वंश का पूरे देश पर राज हुआ, जिसकी शुरुआत चन्द्रगुप्त से हुई,जो कि एक मोर पालने वाले परिवार से थे और एक ब्राह्मण चाणक्य ने उन्हें पूरे देश का सम्राट बनाया । 506 साल देश पर मौर्यों का राज रहा।
फिर गुप्त वंश का राज हुआ, जो कि घोड़े का अस्तबल चलाते थे और घोड़ों का व्यापार करते थे।140 साल देश पर गुप्ताओं का राज रहा।
केवल पुष्यमित्र शुंग के 36 साल के राज को छोड़ कर 92% समय प्राचीन काल में देश में शासन उन्ही का रहा, जिन्हें आज दलित पिछड़ा कहते हैं तो शोषण कहां से हो गया? यहां भी कोई शोषण वाली बात नहीं है।
फिर शुरू होता है मध्यकालीन भारत का समय जो सन 1100- 1750 तक है, इस दौरान अधिकतर समय, अधिकतर जगह मुस्लिम आक्रमणकारियो का समय रहा और कुछ स्थानों पर उनका शासन भी चला।
अंत में मराठों का उदय हुआ, बाजी राव पेशवा जो कि ब्राह्मण थे, ने गाय चराने वाले गायकवाड़ को गुजरात का राजा बनाया, चरवाहा जाति के होलकर को मालवा का राजा बनाया।
अहिल्या बाई होलकर खुद बहुत बड़ी शिवभक्त थी। ढेरों मंदिर गुरुकुल उन्होंने बनवाये।
मीरा बाई जो कि राजपूत थी, उनके गुरु एक चर्मकार रविदास थे और रविदास के गुरु ब्राह्मण रामानंद थे|।
यहां भी शोषण वाली बात कहीं नहीं है।
मुग़ल काल से देश में गंदगी शुरू हो गई और यहां से पर्दा प्रथा, गुलाम प्रथा, बाल विवाह जैसी चीजें शुरू होती हैं।
1800 -1947 तक अंग्रेजो के शासन रहा और यहीं से जातिवाद शुरू हुआ । जो उन्होंने फूट डालो और राज करो की नीति के तहत किया।
अंग्रेज अधिकारी निकोलस डार्क की किताब "कास्ट ऑफ़ माइंड" में मिल जाएगा कि कैसे अंग्रेजों ने जातिवाद, छुआछूत को बढ़ाया और कैसे स्वार्थी भारतीय नेताओं ने अपने स्वार्थ में इसका राजनीतिकरण किया।
इन हजारों सालों के इतिहास में देश में कई विदेशी आये जिन्होंने भारत की सामाजिक स्थिति पर किताबें लिखी हैं, जैसे कि मेगास्थनीज ने इंडिका लिखी, फाहियान, ह्यू सांग और अलबरूनी जैसे कई। किसी ने भी नहीं लिखा की यहां किसी का शोषण होता था।
योगी आदित्यनाथ जो ब्राह्मण नहीं हैं, गोरखपुर मंदिर के महंत हैं, पिछड़ी जाति की उमा भारती महा मंडलेश्वर रही हैं। जन्म आधारित जाति को छुआछुत व्यवस्था हिन्दुओ को कमजोर करने के लिए लाई गई थी।
इसलिए भारतीय होने पर गर्व करें और घृणा, द्वेष और भेदभाव के षड्यंत्रों से खुद भी बचें और औरों को भी बचाएं।
साभार
मठ परंपरा
श्रीराम के समय भौतिकवाद
अजूबा ही नहीं, एक तिलिस्म है मानवी शरीर...
अपनी अंगुलियों से नापने पर 96 अंगुल लम्बे इस मनुष्य शरीर में जो कुछ है, वह एक बढ़कर एक आश्चर्यजनक एवं रहस्यमय है।
हमारी शरीर यात्रा जिस रथ पर सवार होकर चल रही है उसके प्रत्येक अंग-अवयव या कलपुर्जे कितनी विशिष्टतायें अपने अन्दर धारण किये हुए है, इस पर हमने कभी विचार ही नहीं किया। यद्यपि हम बाहर की छोटी-मोटी चीजों को देखकर चकित हो जाते हैं और उनका बढ़ा-चढ़ा मूल्याँकन करते हैं, पर अपनी ओर, अपने छोटे-छोटे कलपुर्जों की महत्ता की ओर कभी ध्यान तक नहीं देते। यदि उस ओर भी कभी दृष्टिपात किया होता तो पता चलता कि अपने छोटे से छोटे अंग अवयव कितनी जादू जैसी विशेषता और क्रियाशीलता अपने में धारण किये हुए हैं। उन्हीं के सहयोग से हम अपना सुरदुर्लभ मनुष्य जीवन जी रहे हैं।
विशिष्टता हमारी काया के रोम-रोम में संव्याप्त है। आत्मिक गरिमा तथा शरीर की सूक्ष्म एवं कारण सत्ता को जिसमें पंचकोश, पाँच प्राण, कुण्डलिनी महाशक्ति, षट्चक्र, उपत्यिकाएँ आदि सम्मिलित हैं, की गरिमा पर विचार करना पीछे के लिए छोड़कर मात्र स्थूलकाय संरचना और उसकी क्षमता पर विचार करें तो इस क्षेत्र में भी सब कुछ अद्भुत दीखता है। वनस्पति तो क्या-मनुष्येत्तर प्राणि शरीरों में भी वे विशेषताएं नहीं मिलतीं जो मनुष्य के छोटे और बड़े अवयवों में सन्निहित हैं। कलाकार ने अपनी सारी कला को इसके निर्माण में झोंक दिया है।
शरीर रचना से लेकर मनःसंस्थान और अन्तःकरण की संवेदनाओं तक सर्वत्र असाधारण ही असाधारण दृष्टिगोचर होता है। यदि हम कल्पना करें और वैज्ञानिक दृष्टि से आँखें उघाड़ कर देखें तो पता चलेगा कि मनुष्य शरीर के निर्माण में स्रष्टा ने जो बुद्धि, कौशल खर्च किया तथा परिश्रम जुटाया, वह अन्य किया तथा परिश्रम जुटाया, वह अन्य किसी भी शरीर के लिए नहीं किया। मनुष्य सृष्टि का सबसे विलक्षण उत्पादन है। ऐसा आश्चर्य और कोई दूसरा नहीं है। यह सर्व क्षमता संपन्न जीवात्मा का अभेद्य दुर्ग, यंत्र एवं वाहन है। यह जिन कोषों से बनता है, उसमें चेतन परमाणु ही नहीं होते, वरन् दृश्य जगत में दिखाई देने वाली प्रकृति का भी उसमें योगदान है।
इससे मनुष्य शरीर की क्षमता और मूल्य और भी बढ़ जाता है। ठोस द्रव और गैस जल, आक्सीजन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, कार्बन सिल्वर, सोना, लोहा, फास्फोरस आदि जो कुछ भी तत्व पृथ्वी में हैं और जो कुछ पृथ्वी में नहीं हैं, अन्य ग्रह नक्षत्रों में हैं, वह सब भी स्थूल और सूक्ष्म रूप में शरीर में है।
जिस तरह वृक्ष में कहीं तने, कहीं पत्ते, कहीं फल एक व्यापक विस्तार में होते हैं,शरीर के विभिन्न क्षेत्रों में उसी प्रकार विभिन्न लोक और लोकों की शक्तियां विद्यमान देखकर ही शास्त्रकार ने कहा था, ‘यत्ब्रह्माण्डेतत्पिंडे’ ब्रह्माण्ड की संपूर्ण शक्तियां मनुष्य शरीर में विद्यमान हैं।
सूर्य चन्द्रमा, बुद्ध, बृहस्पति, उत्तरायण, दक्षिणायन मार्ग, पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु, विद्युत, चुम्बकत्व, गुरुत्वाकर्षण आदि सब शरीर में हैं। यह समूचा विराट् जगत अपनी इसी काया के भीतर समाया हुआ है। आज के वैज्ञानिक भी इस बात को मानते हैं कि जो विशेषताएं और सामर्थ्य प्रकृति ने मनुष्य को प्रदान की हैं, वह सृष्टि के किसी भी प्राणी-शरीर को उपलब्ध नहीं।
गर्भोपनिषद् के अनुसार मानवी काया में 180 संधियाँ, 107 मर्मस्थान, 109 स्नायु, और 700 शिरायें हैं। 500 मज्जायें, 306 हड्डियाँ, साढ़े चार करोड़ रोएं, 8 पल हृदय, 12 पल जिह्वा, एक प्रस्थ पित्त, एक आढ़क कफ, एक कुड़वशुक्र, दो प्रस्थ मेद हैं। इसके अतिरिक्त आहार ग्रहण करने व मल मूत्र निष्कासन के जो अच्छे से अच्छे यंत्र इस शरीर में लगे हैं, वह अन्य किसी भी शरीर में नहीं है।
स्थूलशरीर पर दृष्टि डालने से सबसे पहले त्वचा नजर आती है। शरीरशास्त्रियों के अनुसार प्रत्येक वयस्क व्यक्ति के त्वचा का भार लगभग 9 पौण्ड होता है जो कि प्रायः मस्तिष्क से तीन गुना अधिक है। यह त्वचा 18 वर्ग फुट से भी अधिक जगह घेरे रहती है। मोटे तौर से देखने पर वह ऐसी लगती है मानों शरीर पर कोई मोमी कागज चिपका जो, परन्तु बारीकी से देखने पर पता चलता है कि उसमें भी एक पूरा सुविस्तृत कारखाना चल रहा है।
शरीर पर इसका क्षेत्रफल लगभग 250 फुट होता है। सबसे पतली वह पलकों पर होती है, .5 मिलीमीटर। पैर के तलुवों में सबसे मोटी है, 6 मिलीमीटर। साधारणतया उसकी मोटाई 0.3 से लेकर 300 मिलीमीटर तक होती है। एक वर्ग इंच त्वचा में प्रायः 72 फुट लम्बी तंत्रिकाओं का जाल बिछा रहता है। इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लम्बाई नापी जाय तो वे भी 12 फुट लम्बी तंत्रिकाओं का जाल बिछा होता है। इतनी ही जगह में रक्त नलिकाओं की लम्बाई नापी जाय तो वे भी 12 फुट से कम न बैठेगी। यह रक्तवाहनियां सर्दी में सिकुड़ती और गर्मियों में फैलती रहती है ताकि शारीरिक तापमान का संतुलन ठीक बना रहे। चमड़ी की सतह पर प्रायः 3 लाख स्वेद ग्रंथियाँ और अगणित छोटे-छोटे बारीक छिद्र होते हैं। इन रोमकूपों से लगभग एक पौण्ड पसीना प्रति दिन बाहर निकलता रहता है। त्वचा के भीतर बिखरे ज्ञान तन्तुओं को यदि एक लाइन में रख दिया जाय तो वे 45 मील लम्बे होंगे।
त्वचा से ‘सीवम’ नामक एक विशेष प्रकार का तेल निकलता रहता है। यह सुरक्षा और सौंदर्य वृद्धि के दोनों ही कार्य करता है। उसकी रंजक कोशिकायें ‘मिलेनिन’ नामक रसायन उत्पन्न करती है। यही चमड़ी को गोरे, काले भूरे आदि रंगों से रंगता रहता है। त्वचा देखने में एक प्रतीत होती है, पर उसके तीन मोटे विभाग किये जा सकते हैं, ऊपरी त्वचा, भीतरी त्वचा तथा सब क्युटेनियम टिष्यू। नीचे वाली परत में रक्त वाहिनियाँ, तंत्रिकाएँ एवं वसा के कण होते हैं। इन्हीं के द्वारा चमड़ी हड्डियों से चिपकी रहती है। आयु बढ़ने के साथ-साथ जब यह वसा कण सूखने लगते हैं तो त्वचा पर झुर्रियाँ लटकने लगती हैं।
भीतरी त्वचा पर में तंत्रिकाएँ, रक्तवाहनियां रोमकूप, स्वेद ग्रंथियाँ तथा तेल ग्रंथियाँ होती हैं। इन तंत्रिकाओं को एक प्रकार से संवेदना वाहक टेलीफोन के तार कह सकते हैं। वे त्वचा स्पर्श की अनुभूतियों को मस्तिष्क तक पहुँचाते हैं और वहाँ के निर्देश संदेशों को अवयवों तक पहुँचाते हैं। त्वचा कभी भी झूठ नहीं बोलती। झूठ पकड़ने की मशीन, ‘लाय डिटेक्टर या पोली ग्राफ मशीन’ इस सिद्धान्त पर कार्य करती है कि दुराव-छिपाव से उत्पन्न हार्मोनिक परिवर्तनों के फलस्वरूप त्वचा के वैद्युतीय स्पंदन एवं रग में जो परिवर्तन या तनाव उत्पन्न होता है, वह सारे रहस्यों को उजागर कर देता है।
साँप की केंचुली सबने देखी है। जिस प्रकार सांप अपनी केंचुली बदलता है, उसी प्रकार हम भी अपनी त्वचा हर-चौथे पाँचवें दिन बदल देते हैं। होता यह है कि हमारी शारीरिक कोशिकायें करोड़ों की संख्या में प्रति मिनट के हिसाब से मरती रहती हैं और नयी कोशिकायें पैदा होती रहती हैं और इस प्रकार केंचुली बदलने का क्रम चलता रहता है। यह क्रम बहुत हलका और धीमा होने से हमें दिखाई नहीं पड़ता। इस तरह जिन्दगी भर में हमें हजारों बार अपनी चमड़ी की केंचुली बदलनी पड़ती है। यही हाल आँतरिक अवयवों का भी है। किसी अवयव का कायाकल्प जल्दी-जल्दी होता है तो किसी का देर में धीमे-धीमे। यह परिवर्तन अपनी पूर्वज कोशिकाओं के अनुरूप ही होता है, अतः अंतर न पड़ने से यह प्रतीत नहीं होता कि पुरानी के चले जाने और नयी स्थानापन्न होने जैसा कुछ परिवर्तन हुआ है।
त्वचा के भीतर प्रवेश करें तो मांसपेशियों का सुदृढ़ ढांचा खड़ा मिलता है। उन्हीं के आधार पर शरीर का हिलना डुलना, मुड़ना, चलना, फिरना संभव हो रहा है।शरीर की सुन्दरता, सुदृढ़ता और सुडौलता बहुत करके मांसपेशियों की संतुलित स्थिति पर ही निर्भर रहती है। मांसपेशियों की बनावट एवं वजन के हिसाब से ही मोटे और पतले आदमियों की पहचान होती है। प्रत्येक व्यक्ति के शरीर में 600 से अधिक मांसपेशियां होती हैं और उनमें से प्रत्येक के अपने विशिष्ट कार्य होते हैं। इनमें से कितनी ही अविराम गति से जीवन पर्यंत तक अपने कार्य में जुटी रहती हैं, यहाँ तक कि सोते समय भी, जैसे कि हृदय का धड़कना, फेफड़ों का सिकुड़ना- फैलना, रक्त संचार, आहार का पचना आदि की क्रियायें अनवरत रूप से चलती रहती हैं।
30 माँस पेशियां ऐसी होती हैं जो खोपड़ी की हड्डियों से जुड़ी होती है और चेहरे भाव परिवर्तन में सहायता करती हैं। शैशव अवस्था में प्रथम तीन वर्ष तक मांसपेशियों का विकास हड्डियों से भी अधिक दो गुनी तीव्र गति से होता है इसके बाद विकास की गति कुछ धीमी पड़ जाती है जब शरीर में अचानक परिवर्तन उभरते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। संरचना में प्रत्येक मांसपेशी अनेकों तन्तुओं से मिलकर बनी होती है। वे बाल से भी पतले होते हैं, पर मजबूत इतने कि अपने वजन की तुलना में एक लाख अधिक भारी वजन उठा सके।
इन अवयवों में से जिस पर भी तनिक गहराई से विचार करें तो उसी में विशेषताओं का भण्डार भरा दीखता है। यहाँ तक कि बाल जैसी निर्जीव और बार-बार खर-पतवार की तरह उखाड़-काट कर फेंक दी जाने वाली वस्तु भी अपने आप में अद्भुत हैं।
प्रत्येक मनुष्य का शरीर असंख्य बालों से (लगभग साढ़े चार करोड़) ढका होता है, यद्यपि वे सिर के बालों की अपेक्षा बहुत छोटे होते हैं। सिर में औसतन 120000 बाल होते हैं। प्रत्येक बाल त्वचा से एक नन्हें गढ्ढे से निकला है जिसे रोमकूप कहते हैं। यहीं से बालों को पोषण होता है। बालों की वृद्धि प्रतिमास तीन चौथाई इंच होती है, इसके बाद वह घटती जाती है। जब बाल दो वर्ष के हो जाते हैं तो उनकी गति प्रायः रुक जाती है। किसी के बाल तेजी से और किसी के धीमी गति से बढ़ते हैं। प्रत्येक सामान्य बाल की जीवन-अवधि लगभग 3 वर्ष होती है, जब कि आँख की बरोनियों की प्रायः 150 दिन ही होती है। आयु पूरी करके बाल अपनी जड़ से टूट जाते हैं और उसके स्थान पर नया बाल उगता है।
शरीर के आन्तरिक अवयवों की रचना तो और भी विलक्षण होती है। उसकी सबसे बड़ी एक विशेषता तो यही है कि वे दिन-रात अनवरत रूप से क्रियाशील रहते हैं, गति करते रहते हैं। उनकी क्रियायें एक क्षण के लिए भी रुक जायँ तो जीवन संकट तक उपस्थित हो जाता है। उदाहरण के लिए रक्त परिवहन संस्थान को ही लें। हृदय की धड़कन के फलस्वरूप रक्त संचार होता है और जीवन के समस्त क्रिया-कलाप चलते हैं। यह रक्त प्रवाह नदी-नाले की तरह नहीं चलता वरन् पंपिंग स्टेशन जैसी विशेषता उसमें रहती है। हृदय के आकुँचन-प्रकुँचन प्रक्रिया के स्वरूप ही ऊपर-नीचे-समस्त अंग अवयवों में रक्तप्रवाह होता रहता है। सारे शरीर में रक्त की एक परिक्रमा प्रायः 90 सेकेंड में पूरी हो जाती है।
हृदय और फेफड़े की दूरी पार करने उसे मात्र 6 सेकेंड में पूरी हो जाती है। हृदय और फेफड़े की दूरी पार करने में उसे मात्र 6 सेकेंड लगते हैं, जबकि मस्तिष्क तक रक्त पहुँचने में 8 सेकेंड लग जाते हैं। रक्त प्रवाह रुक जाने पर भी हृदय 5 मिनट और और अधिक जी लेता है, पर मस्तिष्क 3 मिनट में ही बुझ जाता है। हार्ट अटैक हृदयाघात की मृत्युओं में प्रधान कारण धमनियों से रक्त की सप्लाई रुक जाना होता है। रक्त प्रवाह संस्थान का निर्माण करने वाली रक्तवाही नलिकाओं की कुल लम्बाई 60 हजार मील है जो कि पृथ्वी के धरातल की दूरी है। औसत दर्जे के मानवी काया में प्रायः 5 से 6 लीटर तक रक्त रहता है। इसमें से 5 लीटर तो निरंतर गतिशील रहता है और एक लीटर आपत्ति-कालीन आवश्यकता के लिए सुरक्षित रहता है। 24 घंटे में हृदय को 13 हजार लीटर रक्त का आयात-निर्यात करना पड़ता है। 10 वर्ष में इतना खून फेंका-समेटा जाता है जिसे एक बारगी यदि इकट्ठा कर लिया है जिसे एक बारगी यदि इकट्ठा कर लिया जाय तो उसे 400 फुट घेरे की 80 मंजिली टंकी में ही भरा जा सकेगा।
इतना श्रम यदि एक बार ही करना पड़े तो उसमें इतनी शक्ति लगानी पड़ेगी जितनी 10 टन बोझ जमीन से 50 हजार फुट तक ऊपर उठा ले जाने में लगानी पड़ेगी। शरीर में जो तापमान रहता है, उसका कारण रक्त प्रवाह से उत्पन्न होने वाली ऊष्मा ही है। रक्त संचार की दुनिया इतनी सुव्यवस्थित और महत्वपूर्ण है कि यदि उसे ठीक तरह से समझा जा सके और उसके उपयुक्त रीति-नीति अपनायी जा सके तो सुदृढ़ और सुविकसित दीर्घ जीवन प्राप्त किया जा सकता है।
त्वचा, मांसपेशियां रक्त परिसंचरण प्रणाली ही नहीं शरीर संस्थान का एक-एक घटक अद्भुत और विलक्षण है। 5 फीट 6 इंच की इस मानवी काया में परमात्मा ने इतने अधिक आश्चर्य भर दिये हैं कि उसे देव मंदिर कहने और मानने में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
#साभार
समुद्र मंथन से प्राप्त चौदह रत्नों का रहस्य, जानिए
यह वह समय था जबकि देवता लोग धरती पर रहते थे। धरती पर वे हिमालय के उत्तर में रहते थे। काम था धरती का निर्माण करना। धरती को रहने लायक बनाना और धरती पर मानव सहित अन्य आबादी का विस्तार करना।
देवताओं के साथ उनके ही भाई बंधु दैत्य भी रहते थे। तब यह धरती एक द्वीप की ही थी अर्थात धरती का एक ही हिस्सा जल से बाहर निकला हुआ था। यह भी बहुत छोटा-सा हिस्सा था। इसके बीचोबीच था मेरू पर्वत।
धरती के विस्तार और इस पर विविध प्रकार के जीवन निर्माण के लिए देवताओं के भी देवता ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने लीला रची और उन्होंने देव तथा उनके भाई असुरों की शक्ति का उपयोग कर समुद्र मंथन कराया। समुद्र मंथन कराने के लिए पहले कारण निर्मित किया गया।
दुर्वासा ऋषि ने अपना अपमान होने के कारण देवराज इन्द्र को ‘श्री’ (लक्ष्मी) से हीन हो जाने का शाप दे दिया। भगवान विष्णु ने इंद्र को शाप मुक्ति के लिए असुरों के साथ 'समुद्र मंथन' के लिए कहा और दैत्यों को अमृत का लालच दिया। इस तरह हुआ समुद्र मंथन। यह समुद्र था क्षीर सागर जिसे आज हिन्द महासागर कहते हैं। जब देवताओं तथा असुरों ने समुद्र मंथन आरंभ किया, तब भगवान विष्णु ने कच्छप बनकर मंथन में भाग लिया। वे समुद्र के बीचोबीच में वे स्थिर रहे और उनके ऊपर रखा गया मदरांचल पर्वत। फिर वासुकी नाग को रस्सी बानाकर एक ओर से देवता और दूसरी ओर से दैत्यों ने समुद्र का मंथन करना शुरू कर दिया।
1. हलाहल (विष) : समुद्र का मंथन करने पर सबसे पहले पहले जल का हलाहल (कालकूट) विष निकला जिसकी ज्वाला बहुत तीव्र थी। हलाहल विष की ज्वाला से सभी देवता तथा दैत्य जलने लगे। इस पर सभी ने मिलकर भगवान शंकर की प्रार्थना की।
शंकर ने उस विष को हथेली पर रखकर पी लिया, किंतु उसे कंठ से नीचे नहीं उतरने दिया तथा उस विष के प्रभाव से शिव का कंठ नीला पड़ गया इसीलिए महादेवजी को 'नीलकंठ' कहा जाने लगा। हथेली से पीते समय कुछ विष धरती पर गिर गया था जिसका अंश आज भी हम सांप, बिच्छू और जहरीले कीड़ों में देखते हैं।
2. कामधेनु : विष के बाद मथे जाते हुए समुद्र के चारों ओर बड़े जोर की आवाज उत्पन्न हुई। देव और असुरों ने जब सिर उठाकर देखा तो पता चला कि यह साक्षात सुरभि कामधेनु गाय थी। इस गाय को काले, श्वेत, पीले, हरे तथा लाल रंग की सैकड़ों गौएं घेरे हुई थीं।
गाय को हिन्दू धर्म में पवित्र पशु माना जाता है। गाय मनुष्य जाति के जीवन को चलाने के लिए महत्वपूर्ण पशु है। गाय को कामधेनु कहा गया है। कामधेनु सबका पालन करने वाली है। उस काल में गाय को धेनु कहा जाता था।
3. उच्चैःश्रवा घोड़ा : घोड़े तो कई हुए लेकिन श्वेत रंग का उच्चैःश्रवा घोड़ा सबसे तेज और उड़ने वाला घोड़ा माना जाता था। अब इसकी कोई भी प्रजाति धरती पर नहीं बची। यह इंद्र के पास था। उच्चै:श्रवा का पोषण अमृत से होता है। यह अश्वों का राजा है। उच्चै:श्रवा के कई अर्थ हैं, जैसे जिसका यश ऊंचा हो, जिसके कान ऊंचे हों अथवा जो ऊंचा सुनता हो।
4. ऐरावत हाथी : हाथी तो सभी अच्छे और सुंदर नजर आते हैं लेकिन सफेद हाथी को देखना अद्भुत है। ऐरावत सफेद हाथियों का राजा था। 'इरा' का अर्थ जल है, अत: 'इरावत' (समुद्र) से उत्पन्न हाथी को 'ऐरावत' नाम दिया गया है।
यह हाथी देवताओं और असुरों द्वारा किए गए समुद्र मंथन के दौरान निकली 14 मूल्यवान वस्तुओं में से एक था। मंथन से प्राप्त रत्नों के बंटवारे के समय ऐरावत को इन्द्र को दे दिया गया था। चार दांतों वाला सफेद हाथी मिलना अब मुश्किल है।
महाभारत, भीष्म पर्व के अष्टम अध्याय में भारतवर्ष से उत्तर के भू-भाग को उत्तर कुरु के बदले 'ऐरावत' कहा गया है। जैन साहित्य में भी यही नाम आया है। उत्तर का भू-भाग अर्थात तिब्बत, मंगोलिया और रूस के साइबेरिया तक का हिस्सा। हालांकि उत्तर कुरु भू-भाग उत्तरी ध्रुव के पास था संभवत: इसी क्षेत्र में यह हाथी पाया जाता रहा होगा।
5. कौस्तुभ मणि : मंथन के दौरान पांचवां रत्न था कौस्तुभ मणि। कौस्तुभ मणि को भगवान विष्णु धारण करते हैं। महाभारत में उल्लेख है कि कालिय नाग को श्रीकृष्ण ने गरूड़ के त्रास से मुक्त किया था। उस समय कालिय नाग ने अपने मस्तक से उतारकर श्रीकृष्ण को कौस्तुभ मणि दे दी थी।
यह एक चमत्कारिक मणि है। माना जाता है कि इच्छाधारी नागों के पास ही अब यह मणि बची है या फिर समुद्र की किसी अतल गहराइयों में कहीं दबी पड़ी होगी। हो सकता है कि धरती की किसी गुफा में दफन हो यह मणि।
6. कल्पद्रुम : यह दुनिया का पहला धर्मग्रंथ माना जा सकता है, जो समुद्र मंथन के दौरान प्रकट हुआ। कुछ लोग इसे संस्कृत भाषा की उत्पत्ति से जोड़ते हैं और कुछ लोग मानते हैं कि इसे ही कल्पवृक्ष कहते हैं। जबकि कुछ का कहना है कि पारिजात को कल्पवृक्ष कहा जाता है।
यह स्पष्ट नहीं है कि कल्पद्रुम आखिर क्या है? ज्योतिषियों के अनुसार कल्पद्रुप एक प्रकार का योग होता है।
7. रंभा : समुद्र मंथन के दौरान एक सुंदर अप्सरा प्रकट हुई जिसे रंभा कहा गया। पुराणों में रंभा का चित्रण एक प्रसिद्ध अप्सरा के रूप में माना जाता है, जो कि कुबेर की सभा में थी। रंभा कुबेर के पुत्र नलकुबर के साथ पत्नी की तरह रहती थी। ऋषि कश्यप और प्राधा की पुत्री का नाम भी रंभा था। महाभारत में इसे तुरुंब नाम के गंधर्व की पत्नी बताया गया है।
समुद्र मंथन के दौरान इन्द्र ने देवताओं से रंभा को अपनी राजसभा के लिए प्राप्त किया था। विश्वामित्र की घोर तपस्या से विचलित होकर इंद्र ने रंभा को बुलाकर विश्वामित्र का तप भंग करने के लिए भेजा था। अप्सरा को गंधर्वलोक का वासी माना जाता है। कुछ लोग इन्हें परी कहते हैं।
8. लक्ष्मी : समुद्र मंथन के दौरान लक्ष्मी की उत्पत्ति भी हुई। लक्ष्मी अर्थात श्री और समृद्धि की उत्पत्ति। कुछ लोग इसे सोने (गोल्ड) से जोड़ते हैं। माना जाता है कि जिस भी घर में स्त्री का सम्मान होता है, वहां समृद्धि कायम रहती है।
दूसरी लक्ष्मी : महर्षि भृगु की पत्नी ख्याति के गर्भ से एक त्रिलोक सुन्दरी कन्या उत्पन्न हुई जिसका नाम लक्ष्मी था और जिसने भगवान विष्णु से विवाह किया।
9. वारुणी (मदिरा) : वारुणी नाम से एक शराब होती थी। वारुणी नाम से एक पर्व भी होता है और वारुणी नाम से एक खगोलीय योग भी। समुद्र मंथन के दौरान जिस मदिरा की उत्पत्ति हुई उसका नाम वारुणी रखा गया। वरुण का अर्थ जल। जल से उत्पन्न होने के कारण उसे वारुणी कहा गया। वरुण नाम के एक देवता हैं, जो असुरों की तरफ थे। असुरों ने वारुणी को लिया।
वरुण की पत्नी को भी वरुणी कहते हैं। कदंब के फलों से बनाई जाने वाली मदिरा को भी वारुणी कहते हैं।
10. चन्द्रमा : ब्राह्मणों-क्षत्रियों के कई गोत्र होते हैं उनमें चंद्र से जुड़े कुछ गोत्र नाम हैं, जैसे चंद्रवंशी। पौराणिक संदर्भों के अनुसार चंद्रमा को तपस्वी अत्रि और अनुसूया की संतान बताया गया है जिसका नाम 'सोम' है। दक्ष प्रजापति की 27 पुत्रियां थीं जिनके नाम पर 27 नक्षत्रों के नाम पड़े हैं। ये सब चन्द्रमा को ब्याही गईं।
आज आसमान में हम जो चंद्रमा देखते हैं वह समुद्र मंथन के दौरान उत्पन्न हुआ था। इस चंद्रमा का चंद्रवंशियों के चंद्रमा से क्या संबंध है, यह शोध का विषय हो सकता है। पुराणों अनुसार चंद्रमा की उत्पत्ति धरती से हुई है।
11. पारिजात वृक्ष : समुद्र मंथन के दौरान कल्पवृक्ष के अलावा पारिजात वृक्ष की उत्पत्ति भी हुई थी। 'पारिजात' या 'हरसिंगार' उन प्रमुख वृक्षों में से एक है जिसके फूल ईश्वर की आराधना में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। धन की देवी लक्ष्मी को पारिजात के पुष्प प्रिय हैं। यह माना जाता है कि पारिजात के वृक्ष को छूने मात्र से ही व्यक्ति की थकान मिट जाती है।
पारिजात वृक्ष में कई औषधीय गुण होते हैं। हिन्दू धर्म में कल्पवृक्ष के बाद पारिजात को महत्व दिया गया है। इसके बाद बरगद, पीपल और नीम का महत्व है।
12. शंख : शंख तो कई पाए जाते हैं लेकिन पांचजञ्य शंख मिलना मुश्किल है। समुद्र मंथन के दौरान इस शंख की उत्पत्ति हुई थी। 14 रत्नों में से एक पांचजञ्य शंख को माना गया है। शंख को विजय, समृद्धि, सुख, शांति, यश, कीर्ति और लक्ष्मी का प्रतीक माना गया है। सबसे महत्वपूर्ण यह कि शंख नाद का प्रतीक है। शंख ध्वनि शुभ मानी गई है।
1928 में बर्लिन यूनिवर्सिटी ने शंख ध्वनि का अनुसंधान करके यह सिद्ध किया कि इसकी ध्वनि कीटाणुओं को नष्ट करने की उत्तम औषधि है।
शंख 3 प्रकार के होते हैं- दक्षिणावृत्ति शंख, मध्यावृत्ति शंख तथा वामावृत्ति शंख। इनके अलावा लक्ष्मी शंख, गोमुखी शंख, कामधेनु शंख, विष्णु शंख, देव शंख, चक्र शंख, पौंड्र शंख, सुघोष शंख, गरूड़ शंख, मणिपुष्पक शंख, राक्षस शंख, शनि शंख, राहु शंख, केतु शंख, शेषनाग शंख, कच्छप शंख आदि प्रकार के होते हैं।
13. धन्वंतरि वैद्य : देवता एवं दैत्यों के सम्मिलित प्रयास के शांत हो जाने पर समुद्र में स्वयं ही मंथन चल रहा था जिसके चलते भगवान धन्वंतरि हाथ में अमृत का स्वर्ण कलश लेकर प्रकट हुए। विद्वान कहते हैं कि इस दौरान दरअसल कई प्रकार की औषधियां उत्पन्न हुईं और उसके बाद अमृत निकला।
हालांकि धन्वंतरि वैद्य को आयुर्वेद का जन्मदाता माना जाता है। उन्होंने विश्वभर की वनस्पतियों पर अध्ययन कर उसके अच्छे और बुरे प्रभाव-गुण को प्रकट किया। धन्वंतरि के हजारों ग्रंथों में से अब केवल धन्वंतरि संहिता ही पाई जाती है, जो आयुर्वेद का मूल ग्रंथ है। आयुर्वेद के आदि आचार्य सुश्रुत मुनि ने धन्वंतरिजी से ही इस शास्त्र का उपदेश प्राप्त किया था। बाद में चरक आदि ने इस परंपरा को आगे बढ़ाया।
धन्वंतरि 10 हजार ईसापूर्व हुए थे। वे काशी के राजा महाराज धन्व के पुत्र थे। उन्होंने शल्य शास्त्र पर महत्वपूर्ण गवेषणाएं की थीं। उनके प्रपौत्र दिवोदास ने उन्हें परिमार्जित कर सुश्रुत आदि शिष्यों को उपदेश दिए। धन्वंतरि के जीवन का सबसे बड़ा वैज्ञानिक प्रयोग अमृत का है। उनके जीवन के साथ अमृत का स्वर्ण कलश जुड़ा है। अमृत निर्माण करने का प्रयोग धन्वंतरि ने स्वर्ण पात्र में ही बताया था।
उन्होंने कहा कि जरा-मृत्यु के विनाश के लिए ब्रह्मा आदि देवताओं ने सोम नामक अमृत का आविष्कार किया था। धन्वंतरि आदि आयुर्वेदाचार्यों अनुसार 100 प्रकार की मृत्यु है। उनमें एक ही काल मृत्यु है, शेष अकाल मृत्यु रोकने के प्रयास ही आयुर्वेद निदान और चिकित्सा हैं। आयु के न्यूनाधिक्य की एक-एक माप धन्वंतरि ने बताई है।
' धनतेरस' के दिन उनका जन्म हुआ था। धन्वंतरि आरोग्य, सेहत, आयु और तेज के आराध्य देवता हैं। रामायण, महाभारत, सुश्रुत संहिता, चरक संहिता, काश्यप संहिता तथा अष्टांग हृदय, भाव प्रकाश, शार्गधर, श्रीमद्भावत पुराण आदि में उनका उल्लेख मिलता है। धन्वंतरि नाम से और भी कई आयुर्वेदाचार्य हुए हैं। आयु के पुत्र का नाम धन्वंतरि था।
अंत में 14वां रत्न 'अमृत', जानिए महत्वपूर्ण रत्न...
14. अमृत : 'अमृत' का शाब्दिक अर्थ 'अमरता' है। निश्चित ही एक ऐसे पेय पदार्थ या रसायन रहा होगा जिसको पीने से व्यक्ति हजारों वर्ष तक जीने की क्षमता हासिल कर लेता होगा। यही कारण है कि बहुत से ऋषि रामायण काल में भी पाए जाते हैं और महाभारत काल में भी। समुद्र मंथन के अंत में अमृत का कलश निकला था। अमृत के नाम पर ही चरणामृत और पंचामृत का प्रचलन हुआ।
देवताओं और दैत्यों के बीच अमृत बंटवारे को लेकर जब झगड़ा हो रहा था तथा देवराज इंद्र के संकेत पर उनका पुत्र जयंत जब अमृत कुंभ लेकर भागने की चेष्टा कर रहा था, तब कुछ दानवों ने उसका पीछा किया। अमृत-कुंभ के लिए स्वर्ग में 12 दिन तक संघर्ष चलता रहा और उस कुंभ से 4 स्थानों पर अमृत की कुछ बूंदें गिर गईं। यह स्थान पृथ्वी पर हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक थे। यहीं पर प्रत्येक 12 वर्ष में कुंभ का आयोजन होता है। बाद में भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण करके अमृत बांटा था।
' अमृत' शब्द सबसे पहले ऋग्वेद में आया है, जहां यह सोम के विभिन्न पर्यायों में से एक है। संभवत: 'सोमरस' को ही 'अमृत' माना गया हो। सोम एक रस है या द्रव्य, यह कोई नहीं जानता। कुछ विद्वान सोम को औषधि मानते है। उनके अनुसार सुश्रुत के चिकित्सास्थान में लिखा है कि इसका सेवन करने से कायाकल्प हो जाता है, वृद्ध पुनः युवा हो जाता है। किंतु वेद में एक और सोम की भी चर्चा है जिसके संबंध में लिखा है कि ब्राह्मणों को जिस सोम का ज्ञान है उसे कोई नहीं पीता। ब्राह्मण के सोम की महिमा इन शब्दों में है। देखो हमने सोमपान किया और हम अमृत हो गए या जी उठे।
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सत्यम, शिवम और सुंदरम के बारे में सभी ने सुना और पढ़ा होगा लेकिन अधिकतर लोग इसका अर्थ या इसका भावार्थ नहीं जानते होंगे। वे सत्य का अर्थ ईश्वर, शिवम का अर्थ भगवान शिव से और सुंदरम का अर्थ कला आदि सुंदरता से लगाते होंगे, लेकिन अब हम आपको बताएंगे कि आखिर में हिन्दू धर्म और दर्शन का इस बारे में मत क्या है।
हालांकि वेद, उपनिषद और पुराणों में इस संबंध में अलग अलग मत मिलते हैं, लेकिन सभी उसके एक मूल अर्थ पर एकमत हैं। धर्म और दर्शन की धारणा इस संबंध में क्या हो सकती है यह भी बहुत गहन गंभीर मामला है। दर्शन में भी विचारधाएं भिन्न-भिन्न मिल जाएगी, लेकिन आखिर सत्य क्या है इस पर सभी के मत भिन्न हो सकते हैं
'जो सर्वप्रथम ईश्वर को इहलोक और परलोक में अलग-अलग रूपों में देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात उसे बारम्बार जन्म-मरण के चक्र में फँसना पड़ता है।'-कठोपनिषद-।।10।।
सत्य का अलौकिक अर्थ : सत्य को समझना मुश्किल है, लेकिन उनके लिए नहीं जो धर्म और दर्शन को भलिभांति जानते हैं। सत्य का आमतौर पर अर्थ माना जाता है झूठ न बोलना, लेकिन यह सही नहीं है। सत् और तत् धातु से मिलकर बना है सत्य, जिसका अर्थ होता है यह और वह- अर्थात यह भी और वह भी, क्योंकि सत्य पूर्ण रूप से एकतरफा नहीं होता। परमात्मा से परिपूर्ण यह जगत आत्माओं का जाल है।
जीवन, संसार और मन यह सभी विरोधाभासी है। इसी विरोधाभास में ही छुपा है वह जो स्थितप्रज्ञ आत्मा और ईश्वर है। सत्य को समझने के लिए एक तार्किक और बोधपूर्ण दोनों ही बुद्धि की आवश्यकता होती है। तार्किक बुद्धि आती है भ्रम और द्वंद्व के मिटने से। भ्रम और द्वंद्व मिटता है मन, वचन और कर्म से एक समान रहने से।
शास्त्रों में आत्मा, परमात्मा, प्रेम और धर्म को सत्य माना गया है। सत्य से बढ़कर कुछ भी नहीं। सत्य के साथ रहने से मन हल्का और प्रसन्न चित्त रहता है। मन के हल्का और प्रसंन्न चित्त रहने से शरीर स्वस्थ और निरोगी रहता है। सत्य की उपयोगिता और क्षमता को बहुत कम ही लोग समझ पाते हैं। सत्य बोलने से व्यक्ति को सद्गति मिलती है। गति का अर्थ सभी जानते हैं।
जब व्यक्ति सत्य की राह से दूर रहता है तो वह अपने जीवन में संकट खड़े कर लेता है। असत्यभाषी व्यक्ति के मन में भ्रम और द्वंद्व रहता है, जिसके कारण मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। मानसिक रोगों का शरीर पर घातक असर पड़ता है। ऐसे में सत्य को समझने के लिए एक तार्किक बुद्धि की आवश्यकता होती है। तार्किक बुद्धि आती है भ्रम और द्वंद्व के मिटने से। भ्रम और द्वंद्व मिटता है मन, वचन और कर्म से एक समान रहने से।
तो सत्य को समझने के लिए जरूरी है तार्किक बुद्धि, सत्य वचन बोलना और होशो-हवास में जीना। जीवन के दुख और सुख सत्य नहीं है, लेकिन उनकी प्रतीति होना सत्य है। उनकी प्रतीति अर्थात अनुभव भी तभी तक होता है जब तक कि आप दुख और सुख को सत्य मानकर जी रहे हैं।
सत्य के लाभ : सत्य बोलने और हमेशा सत्य आचरण करते रहने से व्यक्ति का आत्मबल बढ़ता है। मन स्वस्थ और शक्तिशाली महसूस करता है। डिप्रेशन और टेंडन भरे जीवन से मुक्ति मिलती है। शरीर में किसी भी प्रकार के रोग से लड़ने की प्रतिरोधक क्षमता का विकास होता है। सुख और दुख में व्यक्ति सम भाव रहकर निश्चिंत और खुशहाल जीवन को आमंत्रित कर लेता है। सभी तरह के रोग और शोक का निदान होता है।
शिवम : शिवम का संबंध अक्सर लोग भगवान शंकर से जोड़ देते हैं, जबकि भगवान शंकर अलग हैं और शिव अलग। शिव निराकार, निर्गुण और अमूर्त सत्य है। निश्चित ही माता पार्वती के पति भी ध्यानी होकर उस परम सत्य में लीन होने के कारण शिव स्वरूप ही है, लेकिन शिव नहीं।
शिव का अर्थ है शुभ। अर्थात सत्य होगा तो उससे जुड़ा शुभ भी होगा अन्यथा सत्य हो नहीं सकता। वह सत्य ही शुभ अर्थात भलिभांति अच्छा है। सर्वशक्तिमान आत्मा ही शिवम है। दो भोओं के बीच आत्मा लिंगरूप में विद्यमान है।
शिवम : शिवम का संबंध अक्सर लोग भगवान शंकर से जोड़ देते हैं, जबकि भगवान शंकर अलग हैं और शिव अलग। शिव निराकार, निर्गुण और अमूर्त सत्य है। निश्चित ही माता पार्वती के पति भी ध्यानी होकर उस परम सत्य में लीन होने के कारण शिव स्वरूप ही है, लेकिन शिव नहीं।
शिव का अर्थ है शुभ। अर्थात सत्य होगा तो उससे जुड़ा शुभ भी होगा अन्यथा सत्य हो नहीं सकता। वह सत्य ही शुभ अर्थात भलिभांति अच्छा है। सर्वशक्तिमान आत्मा ही शिवम है। दो भोओं के बीच आत्मा लिंगरूप में विद्यमान है।
सुंदरम् : यह संपूर्ण प्रकृति सुंदरम कही गई है। इस दिखाई देने वाले जगत को प्रकृति का रूप कहा गया है। प्रकृति हमारे स्वभाव और गुण को प्रकट करती है। पंच कोष वाली यह प्रकृति आठ तत्वों में विभाजित है।
त्रिगुणी प्रकृति :
परम तत्व से प्रकृति में तीन गुणों की उत्पत्ति हुई सत्व, रज और तम। ये गुण सूक्ष्म तथा अतिंद्रिय हैं, इसलिए इनका प्रत्यक्ष नहीं होता। इन तीन गुणों के भी गुण हैं- प्रकाशत्व, चलत्व, लघुत्व, गुरुत्व आदि इन गुणों के भी गुण हैं, अत: स्पष्ट है कि यह गुण द्रव्यरूप हैं। द्रव्य अर्थात पदार्थ। पदार्थ अर्थात जो दिखाई दे रहा है और जिसे किसी भी प्रकार के सूक्ष्म यंत्र से देखा जा सकता है, महसूस किया जा सकता है या अनुभूत किया जा सकता है। ये ब्रहांड या प्रकृति के निर्माणक तत्व हैं।
प्रकृति से ही महत् उत्पन्न हुआ जिसमें उक्त गुणों की साम्यता और प्रधानता थी। सत्व शांत और स्थिर है। रज क्रियाशील है और तम विस्फोटक है। उस एक परमतत्व के प्रकृति तत्व में ही उक्त तीनों के टकराव से सृष्टि होती गई। सर्वप्रथम महत् उत्पन्न हुआ, जिसे बुद्धि कहते हैं। बुद्धि प्रकृति का अचेतन या सूक्ष्म तत्व है। महत् या बुद्धि से अहंकार। अहंकार के भी कई उप भाग है। यह व्यक्ति का तत्व है। व्यक्ति अर्थात जो व्यक्त हो रहा है सत्व, रज और तम में। सत्व से मनस, पाँच इंद्रियाँ, पाँच कार्मेंद्रियाँ जन्मीं। तम से पंचतन्मात्रा, पंचमहाभूत (आकाश, अग्नि, वायु, जल और ग्रह-नक्षत्र) जन्मे।
पंचकोष : जड़, प्राण, मन, विज्ञान और आनंद। इस ही अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय कहते हैं। दरअसल, आप एक शरीर में रहते हैं जो कि जड़ जगत का हिस्सा है। आपके शरीर के भीतर प्राणमय अर्थात प्राण है जो कि वायुतत्व से भरा है। यह तत्व आपके जिंदा रहने को संचालित करता है। यदि आप देखे और सुने गए अनुसार संचालित होते हैं तो आपम प्राणों में जीते हैं अर्थात आप एक प्राणी से ज्यादा कुछ नहीं।
रावण
ब्रह्मा से वरदान पाकर, अहंकारी असुर रावण विश्व में ताण्डव मचाने लगा था । युद्ध में हारे राजा की प्रजा को सताना और सैकड़ों अबलाओं को जबरन उठा ले जाना उसका नित्य कर्म था । अपनी बहन सूर्पनखा के पति का हत्यारा भी वही था । कुबेर के बेटे की पत्नी रम्भा, रावण की पुत्रवधु के समान हुई । रावण ने उसका बलात्कार कर दिया । पुञजिकस्थल का बलात्कार किया तो ब्रह्मा ने श्राप दे दिया । उस श्राप के भय से मां सीता पर बल प्रयोग नहीं कर पाया ।
अरे भाई, आपकी बहन को यदि कोई छेड़ दे तो उसको मारोगे कि चोरी से उसकी पत्नी उठा ले जाओगे । खर दूषण ने भाई धर्म निभाया, रावण ने नहीं ।
जरा रामायण ठीक से पढ़ा जाए । कर्मकाण्ड सीख लेने से कोई ब्राह्मण नहीं कहलाता । लंका भी छल से प्राप्त करने वाला असुर, इतिहास का पहला दुराचारी था, जिसका पुतला आज तक जलता है । कृपया, जबरदस्ती के वामपंथी logic में न फंसें की रावण ने अपनी बहन का बदला लिया ।
और सूर्पनखा गई थी सीता की हत्या करने, भगवान राम ने आमंत्रित नहीं किया था । शुक्र है कि सूर्पनखा की सिर्फ नाक कटी वरना श्री राम हमलावर असुरों सीधा उपर पहुंचा देते हैं ।
दान और वरदान
सारंग से भगवान राम ने युद्ध किया था और रावण के अत्याचारी राज्य को ध्वस्त किया था !
और, पिनाक था भगवान शिव जी के पास जिसे तपस्या के माध्यम से खुश भगवान शिव से रावण ने मांग लिया था !
परन्तु वह उसका भार लम्बे समय तक नहीं उठा पाने के कारण बीच रास्ते में जनकपुरी में छोड़ आया था !
इसी पिनाक की नित्य सेवा सीताजी किया करती थी ! पिनाक का भंजन करके ही भगवान राम ने सीता जी का वरण किया था !
ब्रह्मर्षि दधिची की हड्डियों से ही एकघ्नी नामक वज्र भी बना था जो भगवान इन्द्र को प्राप्त हुआ था !
इस एकघ्नी वज्र को इन्द्र ने कर्ण की तपस्या से खुश होकर उन्होंने कर्ण को दे दिया था! इसी एकघ्नी से महाभारत के युद्ध में भीम का महाप्रतापी पुत्र घटोत्कच कर्ण के हाथों मारा गया था ! और भी कई अश्त्र-शस्त्रों का निर्माण हुआ था उनकी हड्डियों से !
1- जन्म से 5 वर्ष तक किसी भी बालक की कुंडली में शनि का स्थान नहीं होगा। जिससे कोई और बालक मेरे जैसा अनाथ न हो।
सम्प्रति शनि की काली मूर्ति और पीपल वृक्ष की पूजा का यही धार्मिक हेतु है। आगे चलकर पिप्पलाद ने #प्रश्न_उपनिषद की रचना की, जो आज भी ज्ञान का वृहद भंडार है.....
✍️krishna shubham maharaj ji
इस दुनिया को,
ReplyDeleteआबाद रखने की यही शर्त है,
इसका खारापन सोखने को,
हमारे पास,
एक समुंदर हो।
प्रभु भल कीन्ह मोहिसिख दीन्ही,
ReplyDeleteमरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी,
सकल ताड़ना के अधिकारी ।। 3।।
अर्थ -
प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी
अर्थात दंड दिया
किंतु मर्यादा (जीवो का स्वभाव)
भी आपकी ही बनाई हुई है
ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री
यह सब शिक्षा के अधिकारी हैं..