आरक्षण(की)- वर्ण (वर्ग) व्यवस्था?

वैसे आरक्षण दबे
, कुचले खासतौर पर दलित, आदिवासियों को समाज और राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल करने का एक सरकारी प्रयास है। जिसमें सरकारी सेवाओं में जाति के आधार पर लोगों के लिए आरक्षण का प्राविधान किया गया। अब कौन सी जाति किस श्रेणी में शामिल होगी, इसका फैसला सरकार करती है। लोकतंत्र में सरकार यानी राज़नीतिक दल या फिर दलों का गठबंधन, हर दल का अपना एज़ेंडा और एज़ेंडे का मकसद सत्ता पाना और कैसे भी करके उसे बचाए रखना। यहाँ लोगो का सामाजिक, आर्थिक विकास या फिर गरीब लोगों या जातियों का सशक्तीकरण जैसी बातें दूर-दूर तक दिखायी नहीं पडती। इनका मकसद अपने लिए एक दबाव समूह को बनाए रखना है। मुद्दों और समस्याओं पर वास्तविक तार्किक बहस के लिए कोई तैयार नहीं है। वही सत्ता खोने का एक जैसा डर सभी नेताओं और दलों में है।
        हमारे यहाँ प्रत्येक दस वर्ष पर जनगणना करायी जाती है। उसके बाद भी आज़ तक आँकडों के न उपलब्ध होने की बाज़ीगरी जारी है। पता चला कि जो गिनना और जानना चाहिए था वह कोशिश तो अब तक हुई ही नहीं और सरकार ने एक नई वर्ण (वर्ग) व्यवस्था रच डाली। जो काफी हद तक प्रचीन व्यवस्था जैसी ही लगने लगी है। जिसके उच्च बिंदु पर सामान्य वर्ग (GENERAL) उसके पश्चात पिछडा‌ वर्ग (OBC), फिर अनुसूचित जाति (SC) और सबसे नीचे अनुसूचित जनजाति (ST)  के लोग आते हैं। यह विभाजन स्कूलों, कालेजों के स्तर पर भी छात्रों के बीच स्पष्ट दिखाई पडता है। इस व्यवस्था से जो सामाजिक बदलाव हुआ है या हो रहा वह अपनी जगह आकलन का विषय है। लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि इससे जातीय पहचान और मजबूत हुई है और लोगों मे एक दूसरे की स्वीकार्यता के बज़ाय खुद को अपनी पहचान में बाँधे रखने की छटपटाहट अधिक दिखायी दे रही है। इसका कारण निश्चित रूप से असुरक्षा बोध है चाहे वह सामाजिक हो या फिर आर्थिक। फिर वही आरक्षण और उसकी राजनीति कुल मिलाकर उसी आशंका और ड‌र का दोहन। समस्या और बडी तब हो जाती है जब हर वर्ग का व्यक्ति खुद को किसी न किसी रूप में सताया हुआ मानने लग जाता है और तो और ऐतिहासिक और पौराणिक सूचनाओ के आधार पर वह आज़ संघर्ष करना चाहता है और आज़ के लोगों से बदला भी लेना चाहता है कि तुम्हारे पुर्वजों ने ए-ए किया था, पूरी लिस्ट तैयार है, फिर चाहे यह पता हो या न हो कि किसका पुर्वज़ कौन था और वह किसकी संतति हैं। अतीत में जो भी अच्छा बुरा था तो वह हमारे अतीत का हिस्सा है हम उस अतीत को तो नहीं बदल सकते उस समाज की अपनी आवश्यकताएँ थी। उसका आज के समाज से तुलना या मूल्यांकन करना ठीक नहीं है, क्योंकि न तो अब वो ब्रह्मण हैं और न ही वो दलित और न ही वह समाज। फिर आज़ की जातियों को उनका वंशज मानते रहना ठीक नहीं है क्योंकि तुर्क, मुगल, अँग्रेज़ो के बीच को जो अंतराल है वह बहुत बडा है। इस दौरान चाहे अनचाहे न जाने कितने बदलाव हुए हैं जातियों ने अपनी ज़रूरतों के हिसाब से अपनी पवित्रता-अपवित्रता और अन्य धारणओं को विकसित किया है। जो जातियाँ समय के साथ ज्यादा समृध्द या सशक्त हो गयी, वही ऊँची और पवित्र भी हो गयी। ऐसे में जातियों की पुरानी धारणा को मानते रहना और छुआ-छूत जैसी चीजों के बने रहने का कारण वही श्रेष्ठता का अहं भाव है। फिर उसे यह लगता है कि जो अब तक उसका विशेषाधिकार था उससे वह वंचित होने जा रहा है और उसका कारण यही आरक्षण की व्यवस्था है। फिर वही सताया हुआ माने जाने की जागृति आती है। जबकी हकीकत यह है कि बढ़ते शहरीकरण और बाज़ारीकरण की वज़ह से पुरानी जाति व्यवस्था टूट रही है और जाति के आधार पर जो सुरक्षा पायी जा सकती थी अब वह संम्भव नहीं है क्योंकि रोज़गार पाने का कोई भी अवसर लोग छोड़ नहीं सकते। बस यह सतायापनवाली धारणा राज़नीति के लिए सर्वाधिक उपयुक्त साधन है क्योंकि इससे दो वर्ग बडी‌ आसानी से मिल जाता है। एक जो सताया जा रहा है और दूसरा जो सता रहा है हलाँकि दूसरा वर्ग भी खुद को सताया हुआ ही मानता है। ऐसे में नेता को किसी सामाजिक सरोकार की समझ, जन भागीदारी, अधिकार,संघर्ष जैसी चीजों की आवश्यकता नहीं रह जाती। उसे सिर्फ किसी दल में शामिल होना होता है और अगर उसने पैसा और ताकत कैसे भी करके हासिल कर लिया है तो उसका काम और आसान हो जाता है, तब उसके शासक बनने की इच्छा आसानी से पूरी हो जाती है।
           ऐसे में दलगत राजनीति के माध्यम से कोई सार्थक बहस या पहल हो पाए मुश्किल लगता है। यह सदैव समर्थक और विरोधी खेमों के संघर्ष जैसा बन जाता है। जबकी जिस बात के लिए इतनी हाय-तौबा मचायी जा रही है, उसकी वास्तविकता पता ही नहीं है। जिन सरकारी नौकरियों के लिए ए संघर्ष हो रहा है उनकी संख्या बहुत सीमित है कैसे भी करने पर ज्यादातर लोगों को अंततः निराश ही होना पडेगा औए फिर उसी श्रम बाज़ार की तरफ जाना पडेगा जहाँ हर किसी का उसकी क्षमता के हिसाब से मूल्य तय है और वहाँ कोई जाति भेद नहीं है। इस बाज़ार या जगह का नाम कुछ भी हो सकता है। वैसे इन सरकारी नौकरियों को पाने की अपनी ही अमर कथा है। जहाँ युवा दिन-रात सर खपाए रहता है और एक लम्बी उम्र उसी चाहत में गुज़र जाती है... फिर वही सीमित साधन, सीमित नौकरियाँ और पढायी के साथ ढेर सारे गुणा-गणित, फिर यह मानना कि आरक्षण है नौकरी मिल जाएगी.. आखिर कितने लोग सफल होंगे... बाकियों का क्या होगा? वो कहाँ जाएगे? क्या करेंगे?  सरकारी नौकरी पाने के लिए युवाओं में संघर्ष कराना आज़ उनके साथ एक मज़ाक ही है। पूरी व्यवस्था में जिस तरह से प्रतोयोगिता हो रही है उसमें गाँव और दलित (गरीब) बाहर है ए सच्चाई है। आज़ की पढाई का खर्च वो भी मेडिकल, इंजीनीयरिंग या फिर सिविल सेवा की तैयारी का भला कौन लोग उठा रहे हैं या उठा सकते हैं? तो ऐसे में आर्थिक साधनों की भूमिका ही निर्णायक होती है। बाकी अच्छी-अच्छी बातें सिर्फ कहने के लिए होती हैं, जैसे फला-फला ऐसे ड्राप आउट जो दुनिया के सबसे सफल व्यवसायी हैं। ऐसे लोग हमेसा रहेंगे, इनके लिए कोई परीक्षा भी नहीं होगी। ए लोग अपना रास्ता खुद ही बनाते हैं, पर इनकी संख्या कितनी होती है? और इस तरह की नौसर्गिक क्षमताओं वाले कितनेलोग हो सकते हैं। यह बात कुछ ऐसे हि है कि जब सिविल का या फिर अन्य किसी बडी परीक्षा का परिणाम आता है उसमे दो-चार किसान, दलित या फिर गरीब बच्चों कि सफलता कि कहानियाँ‌ अखबारटीवी पर लगातार दिखायी जाती हैं और सारे लोग अपने बच्चों को डाटने लग जाते हैं कि देखो वह कितने अभाव में सफल हो गया और एक तुम हो? क्या सुविधा नहीं दे रखा है? आज़ से ए बंद, वो बंद.. अरे भाई पता है सिविल के बारह सौ पदों मे सिर्फ चार ऐसे लोग चयनित हुए है बाकी लोगों का कोई जिक्र नहीं हो रहा कि वह किस तरह के पारीवारिक माहौल और शैक्षिक पृष्ठभूमि वाले हैं उनकी श्रेणी कुछ भी हो .. तो यही पाएंगे कि कम से कम ए लोग न तो किसी गाँव मे रहकर पढे‌ हैं और न ही किसी मज़दूर तबके से सम्बंध रखते हैं। जो इस तरह के हैं भी तो वही दो चार लोग। अब ए दो चार लोग कितने सालों में कितना बदलाव ला सकेंगे, वह भी एक सौ पचीस करोड़ की आबादी में यह सोचने की बात है?
         जहाँ तक गरीबी का सवाल है तो अब पिछडी‌ और सामान्य जातियों के जीवन स्तर में बहुत अंतर नहीं रह गया है। दोनों समुदायों में एक तरह के अमीर गरीब हैं बस एक आरक्षित वर्ग में है और दूसरा नहीं, जैसे यादवजी के यहाँ काम करने वाले पंडितजी आरक्षित वर्ग में नहीं आते। जबकी यादवजी का रियल स्टेट का बडा कारोबार है.. और व्यवसाय का इनकम और उसके टैक्स का दूसरा ही सि.ए. वाला खेल है और इस तरह उनका कोटा बरकरार है। जबकी इस वर्ग में इतने पढे लिखे और सम्पन्न लोग आसानी से मिल जाते है कि सरकारी सेवा के लिए सामान्य वर्ग के समान ही प्रतियोगिता कर रहे हैं और उनसे किसी भी मामले में कम नहीं हैं। ऐसे में यह आरक्षण घूम फिर कर कुछ परिवारो तक ही सीमित हो जाता है और जो साधन सम्पन्न लोग हैं उन्ही के लोग इसका फायादा उठाते रहते हैं। सबसे बुरी स्थिति SC, ST, छात्रों की होती है। क्योकि  इस वर्ग के ज्यादातर लोगों के पास आज भी इतने संसाधन नहीं हैं कि वो आरक्षण का लाभ सही अर्थों में ले सके, पता चलता है कि आज़ भी विश्वविद्यालयों में इस वर्ग की सीटें (शिक्षण कार्य के लिए) नही भरी जा सक रही हैं, क्योंकि योग्य अभ्यर्थी मिले ही नहीं ऐसे में प्रथमिक जरूरत सामान्य शिक्षा की है जो आगे की शिक्षा का आधार है। जबकी गरीब आदमी की सबसे बडी जरूरत रोटी है और उसके लिए काम चाहिए.. वह अपने बच्चों को कितने साल पढा सकता है? वह भी उच्च शिक्षा... खैर भूख और रोटी की जीत होती है और फिर वही चंद सम्पन्न लोग सब कुछ हडपने को इस वर्ग में भी तैयार, घूम-फिर कर सब उन्ही लोगों तक।
          कुल मिलाकर आज़ आरक्षण का राज़नीतिक विमर्ष अधिक है, जिसका डर हर किसी को है एक को वंचित होने का है तो दूसरे को कभी भी सरकारी उच्चवर्ग में न शामिल हो पाने की आशंका। समर्थक और विरोधी दोनों का डर एक दूसरे में घृणा पैदा करने और बनाए रखने का माध्यम बनता जा रहा है। जबकी सरकारी सेवा में चयनित होने वालों की संख्या अति सीमित है। कैसे भी करके करोडो‌ लोगो को वंचित ही होना है यानिकि उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा चाहे वे उसके समर्थक हों या फिर विरोधी। उनका काम तो खुद कुँआ खोदने से ही होगा अब उसमे पानी निकलेगा या नहीं यह उनकी किस्मत जाने? और पानी वाले कुँए की खोज़ जब तक मिल न जाए करते रहना है। जिसका शयद! कोई अंत नहीं है। उन्हे महानगरों की खाक छाननी ही पडेगी या फिर अपने शहर में, आस-पास दिहाडी‌ करनी पडेगी, बिना किसी जात या पहचान के। अंत में वह उसी श्रम बाज़ार में, खुद को पाता है। इस काम का इतना ही मिलेगा बताओ करना है कि नहीं.. किसी और से बात करूँ... बहुत लोग हैं... या फिर ... इस काम का इतना लूँगा ... एक पैसा भी कम नहीं... कोई कम में करता हो तो करा लो... दोनों ही स्थितियाँ मज़बूरी की हैं... जिसको जब मौका मिला फायदा उठा रहा है। लेबर चौराहों पर भीड बढती जा राही है। अब इस काम में तकनीक भी शामिल हो गयी है। भूमि अब खेती और किसानो के लिए नहीं बलकी व्यापारियों यानी करोबारियों के हाथों में जा रही है और किसान श्रमिक में बदलता जा रहा है और इन कारोबारियों की कोई जात नहीं है। सभी राजनीतिक दलों को यही लोग चला रहे हैं। वैसे और अच्छा करने और होने की कोई सीमा नहीं होती। ऐसे में आरक्षण भी सही लोगों तक पहुँचे इसका निरंतर प्रयास होना चाहिए और इसे वोट पाने का राजनीतिक हथियार बनाने से रोकना आवश्यक है। इसके लिए इसकी ईमानदार समीक्षा और उसके अनुरूप बदलाव की आवश्यकता सदैव रहेगी। जैसे किसी को जीवन में सिर्फ एक बार आरक्षण मिलना चाहिए। उनके बच्चों को तो बिलकुल भी नहीं (जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाती, पोतों को भी आरक्षण की सुविधा है, जबकि उनके बच्चे ए सुविधा एक बार ले चुके हैं, भाई अब तो बंद कर दो)। जिससे दूसरे लोगों को भी मौका मिल सके, नहीं तो फिर वही कुछ परिवार ..........
rajhansraju   
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Comments

  1. सुन्दर , वास्तविकता पर खरा, पर खेल की भाति , जो जीता वही सिकन्दर, बस रिकार्ड वहीं, कब क्यों कैसें का महत्व नहीं----------

    ऐसा ही सत्ता सेवा के लियें नहीं मेवा के लियें, कीं जातीं हैं, कैसें मिलें या मिली **महत्व** नहीं---यहीं व्यवहारिक प्रजातंत्र हैं ,

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