Swacch Bharat Abhiyan

स्वच्छता संस्कृति


राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान एक शानदार पहल है इस तरह के राष्ट्रीय अभियानों का सफल होना बेहद आवश्यक है क्योकि यह स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण कि पहली शर्त है जिसका प्रारम्भ स्वस्थ पर्यावरण से होता है जिसे खुद को और अपने परिवेश को स्वच्छ रखकर ही हासिल किया जा सकता
है। हम भारतियों कि सबसे बड़ी समस्या, हमारे सिद्धांत और व्यवहार का अंतर है जहाँ हम एक ओर जरूरत से ज्यदा धार्मिक और पवित्र होने का ढ़ोंग करते हैं तो दूसरी तरफ हमारे धर्म स्थलों के चारों तरफ गंदगी का अम्बार लगा होता है अब हम इलाहाबाद के संगम तट को ही लें जिसे देखकर ऐसा लगता है जैसे हम गंदगी करने ही आते हैं और कहीं भी कुछ भी करने, फेंकने की तो जैसे हमने जन्मजात आज़ादी हासिल कर रखी है। हमारे धर्मस्थलों के पास शौचालय होना एक दुर्लभ धारणा है आपने जैसे ही इसका जिक्र किया तो ऐसा लगता है जैसे धर्म खतरे में पड़ गया और सारी अपवित्रता की जिम्मेदारी बस आपके ऊपर आने वाली है। जबकी ऐसे जगहों पर हज़ारों लोग रोज़ आते हैं, इसके बाद भी इन जगहों पर ढंग का एक भी शौचालय नहीं मिल सकता।
                      किसी भी स्वच्छता के मानक को चंद सफाई कर्मियों या एकल प्रयासों से हासिल नहीं किया जा सकता जब तक यह संस्कार और संस्कृति के रूप में स्वीकार न किया जाय, जिसका प्रारम्भ और प्रशिक्षण परिवार और विद्यालय के स्तर से होना चाहिए। जहाँ हम व्यक्तिगत स्वच्छ्ता को लेकर हर वक्त सचेत रहते हैं और उसे कहीं न कहीं धार्मिक पवित्रता से जोड़ दिया जाता है जबकी अपने पास-पड़ोस को हमीं सर्वाधिक गंदा करते हैं। हमारा देश और समाज का तेजी से शहरीकरण हो रहा है और शहर में रहने के अपने तौर तरीके होते हैं। हमारी अधिसंख्य आबादी आज़ भी शहर और गाँव के संक्रमण में फंसी है। ऐसे में पूर्ण शहरी संस्कृति का विकास नहीं हो पाया है और एक बड़े तबके को यह पता ही नहीं है कि उनका लोकजीवन में कैसा व्यवहार होना चहिए, फिर इसके परिणाम को समझ पाना तो नामुमकिन है, जबकि इससे जीवन का हर क्षेत्र प्रभावित हो रहा होता है और एक बड़े तबके को यह लगने लग जाता है कि बिना पुलिस फोर्स के कुछ नहीं हो सकता है। नदी, सड़क, चौराहा हर जगह सेना के जवान तैनात होने चाहिए। बात और आगे बढ़ी तो प्रत्येक महिला कि सुरक्षा के लिए स्पेशल फोर्स होनी चाहिए। जबकि सच्चाई यह है कि हमें आज़ भी सड़कों पर चलना नहीं आता और हम सिर्फ आगे निकल जाना चाहते हैं, जबकि इस आगे निकलने कि कीमत हम आए दिन चुकाते रहते हैं।
                                                               नि‌‌‌‌:संदेह हमारा अतीत अच्छा और महान था(बाकी लोगों का भी ऐसा ही था)। जिस पर गर्व करने मे कोई हर्ज़ नहीं है। परन्तु दुरभाग्य यह है कि हम अतीत के किसी भी हिस्से में लौट नहीं सकते, वह कैसा भी रहा हो उसे स्वीकार करना ही पड़ता है और यह भी सच्चाई है कि एक अच्छे भविष्य कि नींव सदैव वर्तमान मे ही डाली जाती है जिसका प्रारम्भ आज़ ही करना होता है और अपनी सामाजिक, आर्थिक आवश्यकताओं के अनुरूप नए सामाजिक-धार्मिक उत्सवों और प्रतीकों को न केवल गढ़ना होता है बल्कि पुराने पड़ चुके प्रतीकों को छोड़ना भी पड़ता है, जहाँ तक छोडने की बात है तो यह आसन नहीं होता, वह भी धार्मिक..?   
                                फिलहाल हम स्वच्छता अभियान पर आते हैं कि सफाई को कैसे धर्म, सभ्यता, संस्कृति या फिर आदत से जोड़े वैसे अच्छी आदतों की शुरूआत तो घर से ही होती है और कोई व्यक्ति बाहर कैसा व्यवहार करता है इसकी प्राथमिक शिक्षा उसको परिवार से मिलती है। इसके पश्चात विद्यालय का नम्बर आता है और इन दोनों संस्थाओं में कुछ अच्छी आदतों को डालने की शुरुआत तो करनी ही होगी। जैसे अपने विद्यालय को स्वच्छ रखने की जिम्मेदारी छात्रों और शिक्षकों की हिनी चहिए न कि किसी सफाई कर्मचारी की, विद्यालयों का टाइम टेबल इस तरह बनाया जाय कि प्रत्येक छात्र को सप्ताह में कम से कम एक दिन एक घंटे सफाई (हफ्ते में एक पीरियड़) कार्य करना पड़े और इस कार्य में उनके साथ उनके शिक्षक भी शामिल हो, यह प्रक्रिया सिर्फ सफाई तक सीमित न हो बल्कि बच्चों की उम्र और क्षमता के अनुसार उन्हें अन्य सामाजिक सरोकारों से भी जोड़ा जाय। इस काम को स्कूल से विश्वविद्यालय तक प्रत्येक स्तर पर किया जाना चाहिए। जिससे छात्र महज़ किताबों कि दुनिया तक सीमित न रहें बल्कि अपने परिवेश के प्रति संवेदंशील भी बने रहें। अगर हमने अपनी आदत में स्वच्छता को शामिल कर लिया तो निश्चित रूप से हम एक स्वच्छ पर्यावरण का निर्माण कर पाएंगे जिसमें पानी, हवा, मृदा सबकुछ शामिल है क्योंकि कोई भी एक दूसरे से अछूता नहीं है और एक के गंदा होते ही दूसरा स्वत: बिमार हो जाता है। तो फिर अब समय आ गया है कि हम नए मूल्यों और प्रतीकों को रचें जो अधिक वास्तविक और प्रासंगिक हो जो आज के समाज, पर्यावरण को और अधिक जीवंत बना सके न कि हम अपने पर्यावरण से संघर्ष करते रहे अब आपसी संघर्षों को कम करने कि शुरुआत तो किसी न किसी अर्धविराम से करनी ही पड़ेगी...
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  1. हम नए मूल्यों और प्रतीकों को रचें जो अधिक वास्तविक और प्रासंगिक हो जो आज के समाज, पर्यावरण को और अधिक जीवंत बना सके न कि हम अपने पर्यावरण से संघर्ष करते रहे अब आपसी संघर्षों को कम करने कि शुरुआत तो किसी न किसी अर्धविराम से करनी ही पड़ेगी...

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