Politics of name


सोचिए क्या बदला है और क्या सचमुच किसी वास्तविक बदलाव की कोशिश की जा रही है। सब कुछ  एक विज्ञापन जैसा ही है। जहाँ नया गढ़ सकने में नाकाम लोगों को पुराने की नयी पैकेजिंग ही आसान लगती है। जबकि पुराने को मिटाने के बजाय सहेज़ने की जरूरत है। यह कुछ ऐसे ही है कि किसी लाइन को छोटी करने के लिए उसे मिटाते रहे और इस कोशिश में न जाने कितनी टूटी फूटी लकीरें खिंच गयी और उसके चारों तरफ मिटाने के निशान पड़ गए। जबकि उसे छोटी करने के लिए सिर्फ इतना करना था कि उसके आसपास एक बड़ी लाइन खींचनी थी। इससे हमारे पास दो लाइनें होती और उन पर ढेरों शब्द अपनी-अपनी जगह पर जम जाते। वैसे भी आप एक व्यक्ति नहीं हैं, आप सरकार हैं, आप हमको नए शहर, नए बाजार, नए अस्पताल, ... दीजिए। उसके नाम जो मर्जी हो रख दीजिए। किसी को फर्क नहीं पड़ता। बस यह सोचना होगा कि आखिर हासिल क्या हुआ और हमने क्या-क्या खो दिया।
   
 इसी संदर्भ में एक पुरानी पोस्ट शेयर कर रहे हैं- जो
Tuesday, 17 July 2012 का है।

'नई सरकार- नए नाम'

सुनने में आ रहा है कि हमारे वर्तमान मुख्यमंत्री, पूर्व मुख्यमंत्री द्वारा अपनी विचार धारा के लोगों और शब्दों से जिन जिलों का नामकरण किया था. उनका पुनः नामकरण करने वाले है , यानि बदलने वाले है. खैर वह यह काम बड़ी आसानी से कर सकते हैं? बहन मायावतीजी को भी किसी ने नहीं रोका था और भैया अखिलेशजी को तो रोकने का सवाल ही नहीं उठता? वैसे भी उन्होंने ज्यादा रनों से मैच जीता है और उनके पांच साल तक बने रहने में  कोई संदेह नहीं है.
                     चलिए इसी बहाने एक बार हम कुछ शब्दों पर गौर करते हैं- सी.एस.एम.के.यू., डी.डी.यू.जी.यू., जे.एन.यू., आई.जी.एन.ओ.यू.. क्या आपको पता है कि ए हमारे विश्वविद्यालयों के नाम हैं न कि ए बी सी डी के बिखरे हुए शब्द और इसका कारण हमारे राजनैतिक दल हैं जो अपनी पार्टी या विचारों से जुड़े लोगों को अमर बनाने के लिए सरकारी खर्चे पर यह काम आसानी से कर लेते हैं. किसी भी संस्था का नाम बड़े-बड़े विशेषणों से युक्त नामों पर रख दिया जाता है, चाहे उस व्यक्ति का उस जगह से सम्बन्ध हो या न हो, कोई मायने नहीं रखता. अब चाहे जिस दल कि सरकार बने वह अपने इस महान कार्य को ज़रूर अंजाम देती है. ऐसा सिर्फ अपने प्रदेश  में नहीं होता बल्कि यह यह पूरे देश में एक मान्य परम्परा बन गयी है.
    जबकि इन संस्थाओं को कभी भी उन नामों से नहीं संबोधित किया जाता और उनका नाम अंग्रेज़ी के छोटे से छोटे आकार में गढ़ लिया जाता है. जैसे जे.एन.यू., इग्नू आदि. इस तरह ए नाम सिर्फ ए बी सी डी बनकर रह जाते हैं. ऐसे में इस नामकरण का भला क्या अर्थ रह जाता है. इस पूरी प्रक्रिया में सर्वधिक दुर्भाग्य कि बात यह है कि इसमे लोकतंत्र के किसी भी नियम को नहीं अपनाया जाता. न तो वहां के लोगों कि और न ही छात्रों कि ही कोई राय ली जाती है, बस एक बड़ा सा नाम रख दिया जाता है जिसका वहां के भूगोल, इतिहास से कोई सम्बन्ध नहीं होता. यह व्यक्तिवादी पूजा कि अजीब स्थिति है जहाँ चाटुकार बनने कि होड़ लगी है. ऐसे में इतिहास के तमाम नामों का कहीं कोई जिक्र नहीं होता और न ही किसी संस्था का नाम उनके नाम से जोड़ा जाता है.
          हमारी केंद्र सरकार स्थापित हो रहे नए केन्द्रीय विश्वविद्यालयों के नाम में केन्द्रीय शब्द लगाना तो जैसे अनिवार्य कर दिया है. जिससे राज्य और लोगों को हर वक़्त इस बात का एहसास रहे कि यह उनकी नहीं केंद्र सरकार कि संपत्ति है. ऐसे में यह नाम कि राजनीति पता नहीं कब ख़त्म होगी? कम से कम अभी के नेतृत्व और दलों से तो उम्मीद उम्मीद करना ही व्यर्थ होगा. शायद हमारी न्यायपालिका इस सन्दर्भ कोई स्पष्ट निर्देश देकर कोई सार्थक पहल कर सके और हम लोग जो  इन बड़े-बड़े विशेषण युक्त नामों कि जगह ए.बी.सी. डी. का उच्चारण करते हैं. उससे बच जाएँ और कानपुर, अवध, गोरखपुर .. जैसे विश्वविद्यलयों को उनके मूल नाम से संबोधित कर सकें.   
rajhansraju
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  1. सोचिए क्या बदला है और क्या सचमुच किसी वास्तविक बदलाव की कोशिश की जा रही है। सब कुछ एक विज्ञापन जैसा ही है।

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