भीड़ की अराजकता
किसी भी परिवार के लिए उसके प्रिय की मृत्यु से भयावह कुछ नहीं होता। पर हमारे यहाँ राजनीतक लक्ष्यों और मीडिया में बिकाऊ, मसालेदार, सबसे जल्दी कुछ भी परोसने की गजब कि प्रतिस्पर्धा है, जहाँ दूसरे पक्ष की कोई भी बात सुनने को तैयार ही नहीं है, पहले से ही सब तय है। अगर आप महिला, दलित, अल्पसंख्यक हैं तो आप पीड़ित ही हैं और ऐसे में आपको राष्ट्रीय ही अंतरराष्ट्रीय सहानुभुति भी मिल जाएगी और राजनीतिक दलों के सक्रिय होते ही, सरकारी रहमोकरम की बरसात शुरू हो जाएगी, बस एक ही समस्या है कि आप सजातीय, सधार्मिक दबंग से मत टकराइए क्योंकि तब यह उत्पीड़न की श्रेणी में नहीं आएगा और यह बात ख़बर भी नहीं बनेगी, आप कितने भी बड़े लफंगे क्यों न हों, दबा, कुचला, बेचारे का टैग आप की ताकत है। अभी कटरा में चाय की दुकान पर बकइती हो रही थी, तब यही सर्व सम्मति बनी कि किसी भी झगड़े की शुरुआत बहस से शुरू होती है ऐसे में पहला सवाल यही होना चाहिए कि. .. कवन जाति ?? ? नहीं तो.. जानते ही हो भाई.. .. आगे पूरा शहर चपेटे में आ जाएगा.. ।
अभी एक छोटी सी खबर छपी कि इलाहाबाद शहर से तकरीबन 50 कि.मी. दूर मांडा में दो सगे भाइयों को मामूली विवाद में पीट पीट कर मार डाला गया, वो भी पर्याप्त गरीब और जाति से दलित भी थे, पर उनके लिए न तो मीडिया में कोई सहानुभूति, न ही मुआवजा और न ही .. कोई और समाचार... और तो और उन्हें दलित भी नहीं कहा गया .. जानते हैं क्यों ..?? उनकी जघन्य हत्या करने वाले उन्हीं के परिवार और जाति के लोग थे। अपराधियों कि और पीड़ित की ए जो जाति वाला फार्मूला है वह बड़ा गजब का है। इसका सीधा सा अर्थ है सजातीय, सधार्मिक अपराध, उतना बड़ा अपराध नहीं होता और उत्पीड़न तो बिलकुल भी नहीं होता, ऐसी मीडिया और हमारे नेता दोनों ही धन्य हैं।
हम रोज़ अराजक, हिंसक भीड़ के कारनामे सुनते रहते हैं, यह भीड़ जिन लोगों से बनती है, वह हमी लोग हैं और जो उनका व्यावहार दिखता है वह भी हमारे पारिवारिक, सामाजिक, शैक्षिक या यूँ कहें कि हमारे समस्त सीखे गए आचार, विचार का एक पैमाना बन जाता है कि हम अपने ही लोगों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं, इसको हम साधारण बातों से समझना चाहें तो खुद पर गौर करिए कि हमारा महिलाओं, बुजुर्गों के प्रति कैसा व्यवहार है या फिर जब हम थोड़े से आर्थिक या संख्या बल में अधिक होते हैं तब हमारा व्यवहार कैसा होता है और वही मनोदशा भीड़ के अराजक व्यवहार के रूप में सामने आ रही है और यह सब कुछ लोगों में व्याप्त कुंठा, हताशा, गुस्सा, नाराजगी को दर्शाती है, जो हकीकत में उसकी खुद की नाकामी का परिणाम है और ज्यादातर घटनाओं में लोग बेमकसद शामिल हो जाते हैं क्योंकि भीड़ का हिस्सा बनते ही पहचान खत्म हो जाती है और कुछ भी करने के बाद पकडे जाने का भय नहीं रहता और फिर तोड़ फोड़, ... आगजनी .. मजे के लिए शुरू हो जाती है..
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