India of my idea

मेरा भारत-मेरा विचार


मै जब सोचता हूँ कि मेरा भारत कैसा है या फिर उसे कैसा होना चाहिए? तो मुझमे सपने देखने और सोचने कि एक प्रक्रिया शुरू हो जाती है, जिसमें मै अपना भारत गढता हूँ और यही वाला भारत मेरे अंदर बसता है मुझे इसके प्रतीकों से कोई फर्क नहीं पडता, किसी और वाला माडल मुझे उतना शूट नहीं करता फिर वही दकियानूसी सही-गलत होने का फार्मूला एक ही ढाँचे में सबको ढालने की कोशिश, अरे मेरी पंजाबियत, बिहारीपन, बंगाली, मणीपुरी, मराठी...पन... सब जैसे हैं वसे ही रहने दो इसकी खूबसूरती इसके ऐसे होने में ही है और मै अपने भारत को इन्ही नज़रिए से देखूँ और महसूस करूँ। भारत मेरे लिए सिर्फ माँ नहीं है मै उसे पिता, भाई, बहन, दोस्त, प्रेमी, प्रेमिका भी मानना चाहता हूँ या फिर इनमे से कुछ भी नहीं। मै उसे अब भी एक छोटा सा बच्चा मानता हूँ जिसे जतन की जरूरत है, यह मेरी मर्ज़ी है कि मै उसे क्या मानूँ इससे किसी को फर्क नहीं पडना चाहिए, जो मुझे आकर रोके और कहे ऐसे ही मानो, सिर्फ यही तरीका सही है |
                  अब आगे सवाल ए उठता है कि यदि मै अपनी सरकार और व्यवस्था से असहमत या नाराज़ हूँ और मेरी बात लगातार नहीं सुनी जा रही है तो मुझे क्या और कैसे करना चाहिए मुझे धार्मिक, जातीय गिरोहों के पास जाना चाहिए या फिर नक्सलवादियो, आतंकवादियों या फिर दूसरी निज़ी संस्थाओं के पास जाना चाहिए जिसे कोई कार्पोरेट, माफिआ धर्मगुरू या नेता चला रहे होतें है। वैसे भी यह काम और कठिन हो जाता है जब लडाई अपनों से हो, आज़ादी के दौरान सबको पता था कि हम किसके खिलाफ लड़ रहे है और उसके प्रतीकों और लोगों को आसानी से निशाना बनाया जा सकता था। पर आज़ सबकुछ अपना है और हर जगह अपने ही लोग हैं, शोषक और शोषित दोनों एक ही एक ही वर्ग में हैं बस वर्तमान स्थिति का अंतर है, वही नवयुवक सरकारी सेवा में आते ही कुछ और बन जाता है, उसका व्यवहार उसकी स्थिति पर निर्भर करता है। इसको हम कश्मीर घाटी में सेना, अर्द्धसैनिक या फिर पुलिस भर्ती के दौरान होने वाली भीड़ को देखकर आसानी से समझ सकते हैं कि कौन सी विचार धारा है और कौन सी लडाई लडी जा रही है। कमोबेस यही स्थिति हर जगह है और सही अर्थो में कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है क्योंकि भ्रष्ट होने के तरीके सभी जगह एक जैसे ही है। 
                     इस मामले में हमने पूरी तरह से समाज़वाद को हासिल कर लिया है जहाँ जात-धर्म का कोई भेद भाव नहीं है अब ऐसे में सबसे सफल वह व्यक्ति हो जो इस समाजवाद को भलीभाँति न केवल समझ लेता है बल्कि उसे अपना भी लता है और पूरी गंगा अपने घर में मोड लेता है। खैर अब आगे बढ‌ते है कि आखिर हमे विरोध कैसे करना चाहिए? तो क्या रेल की पटरियाँ उखाड देनी चाहिए और और महीनों देश को बंधक जैसी स्थिति में डाल देना चाहिए जैसा कि हरियाणा, पंजाब वाले करते हैं (कुछ और राज्य भी हैं) या फिर सरकार के खिलाफ बंदूक उठा लेना चाहिए और जंगल, ज़मीन के नाम पर वसूली के नेटवर्क में शामिल हो जाना चाहिए। अब स्थिति ए है कि मै बेहद सामान्य आदमी हूँ न मै खुद को मार सकता हूँ न ही किसी और को, ऐसे में मै अपनी बात कैसे कहूँ जो सुनी जाय और तब मै दलित होने के कारण मै मंदिरों का बहिष्कार करता हूँ, धर्मिक प्रतीकों पर प्रहार करता हूँ और अपने लिए कुछ नया गढने का प्रयास करता हूँ और यह बात समाज़ के ऊपरी तबके या सत्ता शीर्ष पर बैठे लोगों को बर्दास्त नहीं होती क्योंकि यह उनके लिए एक चुनौती होती है। ऐसा ही खेल देशभक्ति वाले ड्रामे में हो रहा हमने जो देश भक्ति के प्रतीक गढे है वह धार्मिक प्रतीको जैसे है जिसका आसानी से कोई भी अपमान कर सकता है जरूरत है कि हम अपने प्रतीकों को और व्यापक बनाएं। बस हमे अपने लोगों पर भरोसा करना सीखना होगा थोडी‌ बहुत नाराज़गी या फिर गुस्से को बर्दास्त भी करना होगा, हो सकता है वह गलत ही हो पर तुरंत बहुत ज्यादा परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। भारत एक सौ पच्चीस करोड़ लोगों के मिलने से बनता है ऐसे मे कुछ असहमती, नाराज़गी का भी अपना मज़ा है जिसको इसका एक रंग मानना चाहिए और हम अपनी बेवकूफियों, नाकामियों पर खूब हँसे और ऐसे ही खेल-खेल में एक हँसता खिलखिलाता भारत गढ़ डालें.....   
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  1. भारत एक सौ पच्चीस करोड़ लोगों के मिलने से बनता है ऐसे मे कुछ असहमती, नाराज़गी का भी अपना मज़ा है जिसको इसका एक रंग मानना चाहिए और हम अपनी बेवकूफियों, नाकामियों पर खूब हँसे और ऐसे ही खेल-खेल में एक हँसता खिलखिलाता भारत गढ़ डालें.....

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