Untold history of India

NDA
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 Source : Social network (c/p) 

आपको यह तो ज्ञात होगा कि NDA (National Defence Academy) में जो बेस्ट कैडेट होता है, उसको एक गोल्ड मैडल दिया जाता हैं, लेकिन क्या आपको यह ज्ञात हैं कि उस मैडल का नाम "लचित बोरफुकन" है ?

कौन हैं ये "लचित बोरफुकन" ? 

पोस्ट को पूरा पढ़ने पर आपकों भी ज्ञात हो जाएगा कि क्यों वामपंथी और मुगल परस्त इतिहासकारों ने इस नाम को हम तक पहुचने नहीं दिया।


क्या आपने कभी सोचा है कि पूरे उत्तर भारत पर अत्याचार करने वाले मुस्लिम शासक और मुग़ल कभी बंगाल के आगे पूर्वोत्तर भारत पर कब्ज़ा क्यों नहीं कर सके ?


कारण था वो हिन्दू योद्धा जिसे वामपंथी और मुग़ल परस्त इतिहासकारों ने इतिहास के पन्नो से गायब कर दिया - असम के परमवीर योद्धा 

"लचित बोरफूकन" अहोम राज्य (आज का आसाम या असम) के राजा थे चक्रध्वज सिंघा और दिल्ली में मुग़ल शासक था औरंगज़ेब। औरंगज़ेब का पूरे भारत पे राज करने का सपना अधूरा ही था बिना पूर्वी भारत पर कब्ज़ा जमाये।

इसी महत्वकांक्षा के चलते औरंगज़ेब ने अहोम राज से लड़ने के लिए एक विशाल सेना भेजी। इस सेना का नेतृत्व कर रहा था राजपूत राजा राजाराम सिंह राजाराम सिंह औरंगज़ेब के साम्राज्य को विस्तार देने के लिए अपने साथ 4, 000 महाकौशल लड़ाके, 30, 000 पैदल सेना, 21 राजपूत सेनापतियों का दल, 18, 000 घुड़सवार सैनिक, 2, 000 धनुषधारी सैनिक और 40 पानी के जहाजों की विशाल सेना लेकर चल पड़ा अहोम (आसाम) पर आक्रमण करने।


अहोम राज के सेनापति का नाम था "लचित बोरफूकन।" कुछ समय पहले ही लचित बोरफूकन ने गौहाटी को दिल्ली के मुग़ल शासन से आज़ाद करा लिया था।

इससे बौखलाया औरंगज़ेब जल्द से जल्द पूरे पूर्वी भारत पर कब्ज़ा कर लेना चाहता था।


राजाराम सिंह ने जब गौहाटी पर आक्रमण किया तो विशाल मुग़ल सेना का सामना किया अहोम के वीर सेनापति "लचित बोरफूकन" ने। मुग़ल सेना का ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे रास्ता रोक दिया गया। इस लड़ाई में अहोम राज्य के 10000 सैनिक मारे गए और "लचित बोरफूकन" बुरी तरह जख्मी होने के कारण बीमार पड़ गये। अहोम सेना का बुरी तरह नुकसान हुआ। राजाराम सिंह ने अहोम के राजा को आत्मसमर्पण ने लिए कहा। जिसको राजा चक्रध्वज ने "आखरी जीवित अहोमी भी मुग़ल सेना से लडेगा" कहकर प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया।


लचित बोरफुकन जैसे जांबाज सेनापति के घायल और बीमार होने से अहोम सेना मायूस हो गयी थी। अगले दिन ही लचित बोरफुकन ने राजा को कहा कि जब मेरा देश, मेरा राज्य आक्रांताओं द्वारा कब्ज़ा किये जाने के खतरे से जूझ रहा है, जब हमारी संस्कृति, मान और सम्मान खतरे में हैं तो मैं बीमार होकर भी आराम कैसे कर सकता हूँ ? मैं युद्ध भूमि से बीमार और लाचार होकर घर कैसे जा सकता हूँ ? हे राजा युद्ध की आज्ञा दें....


इसके बाद ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे सरायघाट पर वो ऐतिहासिक युद्ध लड़ा गया, जिसमे "लचित बोरफुकन" ने सीमित संसाधनों के होते हुए भी मुग़ल सेना को रौंद डाला। अनेकों मुग़ल कमांडर मारे गए और मुग़ल सेना भाग खड़ी हुई। जिसका पीछा करके "लचित बोफुकन" की सेना ने मुग़ल सेना को अहोम राज के सीमाओं से काफी दूर खदेड़ दिया। इस युद्ध के बाद कभी मुग़ल सेना की पूर्वोत्तर पर आक्रमण करने की हिम्मत नहीं हुई। ये क्षेत्र कभी गुलाम नहीं बना।


ब्रम्हपुत्र नदी के किनारे सरायघाट पर मिली उस ऐतिहासिक विजय के करीब एक साल बाद ( उस युद्ध में अत्यधिक घायल होने और लगातार अस्वस्थ रहने के कारण ) माँ भारती का यह अद्भुद लाड़ला सदैव के लिए माँ भारती के आँचल में सो गया |


माँ भारती के ऐसे अद्वितीय पुत्र को कोटि-कोटि नमन।

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नीरज अत्री के कलम से  

एक फिजिक्स के प्रोफेसर ने कक्षा 6 से 12 NCERT की हिस्ट्री बुक्स के अध्ययन का निश्चय किया और उसने पाया कि लगभग 110 बातें ऐसी हैं जो संदिग्ध हैं... 


NCERT की Book में लिखा है कि दो सुल्तान, कुतुबुद्दीन ऐबक और इल्लतुतमिश ने वो मीनार बनवाया था, जिसे आज कुतुबमीनार कहा जाता है।

इस पर प्रोफेसर साहब ने RTI लगाया कि NCERT ने इस तथ्य को कहाँ से सत्यापित किया है? सत्यापित करने वाले लोग कौन थे?


इस पर NCERT की तरफ से उत्तर आया है कि...


1. विभाग के पास कोई सत्यापित प्रति उपलब्ध नही है। 

2. इस पुस्तक को प्रोफेसर मृणाल मीरी ने मंजूर किया था, जो राष्ट्रीय निगरानी समिति का हेड था।


मृणाल मीरी शिलांग का एक ईसाई है जिसे काँग्रेस ने 12 सालों तक राज्यसभा में नॉमिनेट किया था। काँग्रेस राज के दौरान यह कई मलाईदार पदों पर था और कम्युनिस्ट चर्च के गठजोड़ से इसने भारतीय इतिहास में कई झूठे तथ्य जोड़ें जो आज भी बच्चों को पढ़ाए जाते है जिसका कोई सुबूत किसी के पास नहीं है।


जैसे कक्षा 6, सामाजिक विज्ञान के पृष्ठ 46 पर ऋग्वेद के आधार पर भारत के बारे में लिखा है कि "आर्यों द्वारा कुछ लड़ाइयाँ मवेशी और जलस्रोतों की प्राप्ति के लिए लड़ी जाती थी। कुछ लड़ाइयाँ मनुष्यों को बंदी बनाकर बेचने खरीदने के लिए भी लड़ी जाती थी।"


स्पष्ट है कि किताब लिखने वाला यह साबित करना चाहता है कि भारत में भी गुलाम प्रथा थी और मनुष्यों को खरीदने बेचने की जो बातें बाइबल और कुरान में हैं वे कोई नई नहीं हैं, बल्कि वैसा ही अमानवीय व्यवहार भारत में भी होता था।


ऐसे ही वे आगे लिखते हैं "युद्ध में जीते गये धन का एक बड़ा हिस्सा सरदार और पुरोहित रख लेते थे, शेष जनता में बाँट दिया जाता था।" यहाँ भी मुहम्मद के गजवों को जस्टिफाई करने की भूमिका बनाई गई है।


आगे एक जगह लिखा है "पुरोहित यज्ञ करते थे और अग्नि में घी अन्न के साथ कभी कभी जानवरों की भी आहुति दी जाती थी।"


आगे पृष्ठ 60 पर लिखा है "खेती की कमरतोड़ मेहनत के लिए दास और दासी को उपयोग में लाया जाता था।"


तब उस प्रोफेसर ने पहले तो स्वयं अध्ययन किया, मेगस्थनीज की इंडिका आदि के आधार पर यह सिद्ध हुआ कि ये सब मनगढ़ंत लिखा जा रहा है, तब उन्होंने NCERT में RTI डाली कि इन बातों का आधार क्या है? 

आप हिस्ट्री लिख रहे हैं, रेफरेंस कहाँ हैं? ऋग्वेद की सम्बंधित ऋचाएं, अनुवाद बताया जाए और यदि नहीं है तो खंडन या सुधार किया जाए।


जानकर आश्चर्य होगा कि NCERT ने सभी 110 प्रश्नों का एक ही जवाब दिया कि हमारे पास इसका कोई प्रूफ नहीं है। इसके अलावा जवाब टालने और लटकाने का रवैया रखा। कई वर्ष ऐसे ही बीत गए। हारकर वे पंजाब हरियाणा हाईकोर्ट में गये कि NCERT हमें इनका जवाब नहीं दे रही।


कोर्ट ने पिटीशन स्वीकार कर लिया और NCERT को जवाब देने के लिए कहा। तब NCERT ने कहा कि हमारी सभी पुस्तकों का लेखन जेएनयू के हिस्ट्री के प्रोफेसर ने किया है और हमने उन्हें जवाब के लिए कह दिया है। लगभग एक वर्ष बाद जेएनयू के लेखकों ने जवाब दिया कि हमने इन बातों के लिए ऋग्वेद के अनुवाद का सहारा लिया है।


ऋग्वेद में इंद्र को एक योद्धा बताया गया है और उसमें आये नरजित शब्द से यह साबित होता है कि वे लूटपाट करते थे और मनुष्यों को गुलाम बनाते थे।


इस पर इस प्रोफेसर ने संस्कृत के जानकारों को वे मंत्र बताए कि क्या इनका यही अर्थ होता है जो जेएनयू के प्रोफेसर ने किया है...


संस्कृत के विद्वानों ने एक स्वर में कहा कि जेएनयू वालों का अर्थ मनमाना, कहीं कहीं तो मूल कथ्य से बिल्कुल उलटा है। इस पर कोर्ट ने इन्हें पूछा कि क्या आप संस्कृत जानते हैं? आपने यह अनुवाद कहाँ से उठाया?


तो जेएनयू के कथित इतिहासकारों ने कहा कि वे संस्कृत का स भी नहीं जानते, उन्होंने एक बहुत पुराने अंग्रेज लेखक के ऋग्वेद के अनुवाद का इस्तेमाल किया है।


कोर्ट:- "और, जो आपने लिखा है कि लूट के माल को ब्राह्मण आदि आपस में बाँट लेते थे, उसका आधार क्या है?"

जेएनयू:- "चूंकि ऋग्वेद में अग्नि का वर्णन है और अग्नि को पुरोहित कहा गया है तो इसका अर्थ यही है कि जो जो अग्नि को समर्पित किया जा रहा है मतलब पुरोहित आपस में बाँट रहे हैं।"


अब जेएनयू के इतिहासकारों और NCERT के इन तर्कों पर माथा पीटने के सिवाय कोई चारा नहीं है और वे शायद यही चाहते हैं कि हम माथा पीटते रहें...


NCERT आगे कक्षा 11 की हिस्ट्री में लिखती हैं "गुलामी प्रथा यूरोप की एक सच्चाई थी और ईसा की चतुर्थ शताब्दी में जबकि रोमन साम्राज्य का राजधर्म भी ईसाई था, गुलामों के सुधार पर कुछ खास नहीं कर सका।"


यहाँ NCERT के लिखने के तरीके से छात्र यह समझते होंगे कि ईसाई धर्म गुलामी के खिलाफ है। जबकि सच्चाई यह है कि एक चौथाई बाइबल इन्हीं बातों से भरी हुई है कि गुलाम कैसे बनाने, उनके साथ कितना यौन व्यवहार करना, उन्हें कब कब मार सकते हैं, वगैरह वगैरह।


सच्चाई यह है कि NCERT के 2006 के पाठ्यक्रम का एक मात्र उद्देश्य था हिन्दू धर्म को जबरदस्ती बदनाम करना, यानि जो नहीं है उसे भी हिंदुओं से जोड़कर प्रस्तुत करना और ईसाइयों की बुराइयों पर पर्दा डालकर भारत में उसके प्रचार के अनुकूल वातावरण बनाना।


सोनिया गाँधी की तत्कालीन मंडली ने पूरी साजिश कर उक्त पाठ्यक्रम की रचना की थी और आज विगत 16 वर्ष से वही पुस्तकें चल रही हैं, एक अक्षर तक नहीं बदला गया।


और हाँ, उन प्रोफेसर का नाम आदरणीय नीरज अत्रि (Neeraj Atri) है, जिन्होंने कोर्ट में यह पिटीशन डाली थी, वे यूट्यूब पर हैं।

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Aryan  invasion Theory 

‘पश्चिमी आक्रांता चाहते थे
 #वैदिक_युग को नीचा दिखाना’: 
#आर्य_द्रविड़_थ्योरी
को सबूतों से नकारता #IIT_खड़गपुर_का_कैलेंडर, चिढ़े वामपंथी
#IIT_खड़गपुर, आर्य आक्रमण, द्रविड़ थ्योरी

IIT खड़गपुर ने #आर्य_द्रविड़_थ्योरी_की_पोल खोली, जारी किया कैलेंडर....

वामपंथी इतिहासकारों ने भारतीयों को, खासकर हिन्दुओं को नीचा दिखाने के लिए एक झूठी थ्योरी गढ़ी थी। उन्हें बाहरी होने का एहसास कराने के लिए कहा गया कि आर्य बाहर से आए थे और द्रविड़ यहाँ के मूल निवासी थे।
इस्लामी आक्रांताओं का बचाव करने के लिए हजारों पन्नों की हजारों पुस्तकें लिखने वाले इन फरेबी इतिहासकारों को अब विज्ञान भी गलत ठहराता है, जिन्होंने हिन्दुओं में खुद के प्रति ही हेय भाव भरने के लिए ईरान से आर्यों के आने और यहाँ के नगरों का विध्वंस करने की कहानी गढ़ी।

अब IIT खड़गपुर ने अपना 2022 का जो कैलेंडर जारी किया है, उसमें आर्य-द्रविड़ थ्योरी के सारे सबूतों को संकलित किया गया है। इसमें बताया गया है कि कैसे आर्यन इन्वेजन थ्योरी एक मिथ है, ये झूठ है। इसमें तस्वीरों के जरिए हर महीने नई-नई जानकारी देकर भारत के इतिहास की बात की गई है।

वैज्ञानिक और ऐतिहासिक सबूतों के साथ-साथ हिन्दू साधु-संतों व दार्शनिकों के उद्धरण भी पेश किए गए हैं।
आइए, हम आपको बताते हैं कि इस कैलेंडर में क्या है। वामपंथी इस कैलेंडर से चिढ़े हुए हैं।

आर्य-द्रविड़ थ्योरी (#Aryan_Invasion_Theory_Myth) का खंडन करता IIT खड़गपुर का कैलेंडर जनवरी 2022 के कैलेंडर में कैलाश पर्वत का चित्र है और इसे भारत का एक पवित्र जगह बताया गया है। बताया गया है कि कैलाश पर्वत का जो ग्लेशियर है, वो ऐसी महत्वपूर्ण नदियों का स्रोत रहा है जिसके किनारे भारत की कई सभ्यताएँ फली-फूलीं।

7000 ईसा पूर्व से पहले, जिसे ‘Pre Harrapan’ भी कहते हैं, सिंधु घाटी सभ्यता वाली सिंधु नदी का स्रोत भी यही है।
1000 ईसा पूर्व में हड़प्पा के बाद की सभ्यता भी यहीं पनपी।
वहीं पूर्व में भारत की सबसे लम्बी ब्रह्मपुत्र नदी का स्रोत भी इसी कैलाश पर्वत का ग्लेशियर रहा।

ऋग्वेद में सिंधु की कई सहायक नदियों का भी जिक्र है, जिनके स्रोत मध्य-पूर्वी हिमालय में स्थित शिवालिक की पहाड़ियाँ हैं। पूर्वी हिमालय से लेकर पश्चिमी नदी घाटी तक ये नदियाँ हैं – व्यास, झेलम, चेनाब, रावी और सतलुज। पूर्वी साँपो नदी (Sanpo River) ही वो जगह है, जहाँ एक खास प्रकार के जंगली घोड़े (Proto-Paleolithic Riwoche Horses) के पाए जाने की बात कही जाती है। इसे ‘आर्य आक्रमण’ काल के पहले पाए जाने की बात कही जाती है।

सिंधु से और पूर्व की तरफ गंगा-गोमती-घाघरा सभ्यता पनपी। ऋग्वेद के आठवें मंडल में गोमती नदी का भी जिक्र है।
ऋग्वेद में 1.8.8 संख्या श्लोक को देखिए – ‘ए॒वा ह्य॑स्य सू॒नृता॑ विर॒प्शी गोम॑ती म॒ही। प॒क्वा शाखा॒ न दा॒शुषे॑॥’, जिसमें गोमती नदी का जिक्र है।
ऋषियों के निवास स्थान के रूप में लोकप्रिय रहा जंगल ‘नैमिषारण्य’ इसी नदी के किनारे बसा हुआ था। उपनिषदों में इसका जिक्र है।
ऐतिहासिक लक्ष्मणपुर (उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ) और इसके आसपास ये स्थित रहा था।

IIT खड़गपुर का अध्ययन इस बात की ओर इशारा करता है कि कैसे अंग्रेजी इतिहासकारों ने भारतीय प्राचीन सभ्यता के पूर्वी और पश्चिमी छोर को नज़रअंदाज़ किया। उन्होंने 2000 ईसा पूर्व से पहले की वैदिक सभ्यता को नीचा दिखाने के लिए उन्होंने यूरेशिया के मैदानों से आर्यों के आने की बात कही। इसका परिणाम ये हुआ कि सिंधु घाटी सभ्यता के पुरातत्व अध्ययन में गड़बड़ी हुई।
उन्होंने ये कह दिया कि आर्य ने बाहर से आकर द्रविड़ों को मारा और यहाँ कब्ज़ा कर लिया।
इसके बाद आ जाते हैं फरवरी महीने पर।
फरवरी 2022 के कैलेंडर में क्या जानकारी दी गई है, अब इसे समझिए। इसमें पवित्र स्वस्तिक चिह्न के सहारे समय के चक्र और पुनर्जन्म को समझाया गया है।
स्वस्तिक का पैटर्न नॉन-लीनियर है और साइक्लिक है। आगे का भविष्य की तरफ इशारा करता है और पीछे का भूतकाल की तरफ का। ऋग्वेद के 7.1.20 के “नू मे॒ ब्रह्मा॑ण्यग्न॒ उच्छ॑शाधि॒ त्वं दे॑व म॒घव॑द्भ्यः सुषूदः। रा॒तौ स्या॑मो॒भया॑स॒ आ ते॑ यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥” श्लोक में स्वस्तिक का जिक्र आता है।

पूरा वैदिक विज्ञान के मूल में ही है समय, अंतरिक्ष और कारणों का पता करना। कार्य सम्बन्धी सिद्धांत परस्पर निर्भरता के सिद्धांत पर आधारित है, जो कि किसी भी कार्य के ‘फ्लो और वैल्यू’ के एक्शन-रिएक्शन पर आधारित होता है। इसका परिणाम पुनर्जन्म के रूप में निकलता है, जिसे कॉस्मिक स्तर पर एक शरीर से आत्मा का निकल कर दूसरे शरीर में जाना कहते हैं (Transmigration & Metempsychosis), जिसे ‘जन्मांतरवाद’ नाम दिया गया है।

इसके लिए ऋग्वेद अग्नि के जीवन सिद्धांत का उदाहरण भी देता है। भारतीय आध्यात्मिकता ही गुरुवाद और अवतारवाद पर आधारित है। वहीं पश्चिमी जगह के लिए भारतीय आध्यात्मिक का रहस्य ज्ञान एक अनजान चीज है, जिसमें वो कभी उतरे ही नहीं।
मध्य-पूर्व दुनिया के साहित्य में भी ये चीज गायब है। इसीलिए, आर्यों के आक्रमण वाली थ्योरी को भारतीय कॉस्मोलॉजी नकारती है।
मार्च महीने के कैलेंडर में स्पेस-टाइम और कार्य के सिद्धांत को समझाया गया है।

सबसे बड़ी बात तो ये है कि सिंधु घाटी सभ्यता के जो सील मिले हैं, वो आर्य ऋषियों द्वारा प्रतिपादित किए गए ‘योग-क्षेम’ के सिद्धांत से मिलता-जुलता है। ऋग्वेद (10.167.1) में ‘योगक्षेम विषय कर्म’ और फिर 7.36 में ‘योगेभी कर्मभिः’ का जिक्र है। 5.81.1 में योग को और अच्छे से समझाया गया है। इसमें बताया गया है कि कैसे योगी अपने मन एवं बुद्धि पर नियंत्रण रखते हैं। ‘होने और हो रहे (धार्यते आईटीआई धर्मः)’ के जरिए कॉस्मोलॉजी की वास्तविकता का भान कराया गया है।

चिंतन, ध्यान और सारी चीजों से ऊपर उठ जाने को योग समाधि नाम दिया गया है। इसे प्राप्त करने वाले ही योगी है। ये ‘कृष्ण (अंधकार)’ है। योग को सभी वैदिक कर्मकांड का मुख्य लक्ष्य माना गया है। इसी तरह ‘शुक्ल (उजाला)’ का भी सिद्धांत है। क्षेम या तंत्र उसे कहा गया है, जहाँ योगी को परम ज्ञान मिल जाता है और वो महायोगी हो जाता है। सप्तर्षि इसे प्राप्त कर चुके हैं। यूरोप और यूरेशिया के आक्रांताओं को ये चीजें पता नहीं थीं। आर्य आक्रमण थ्योरी यहाँ भी गलत साबित होती है।

इसी तरह ‘नॉन-लीनियर फ्लो’ और ‘चेंज’ का जो वैदिक सिद्धांत है, वो भी सिंधु घाटी सभ्यता से मिलता है। ऋग्वेद और पूरा का पूरा यजुर्वेद ही ‘क्रिया (Flow)’ को एक साइक्लिक चेंज के रूप में परिभाषित करता है। व्यक्तिगत स्तर पर ये विकास की प्रक्रिया के रूप में बताए गए हैं और कॉस्मिक स्तर पर ये प्रक्रियाएँ होती हैं। मौसम के चक्र को भी इससे जोड़ा गया है। चीन के दर्शन में भी ये सिद्धांत है। भारतीय ऋषियों ने चतुष्कोणीय बदलावों की व्यवस्था दी।

उन्होंने ऋतु चक्र को 6 भागों में बाँटा।
उन्होंने बाकी 4 ऋतुओं के अलावा शरद ऋतु और मानसून को भी परिभाषित किया। ये मौसम और संस्कृति का भारतीय इकोसिस्टम है। वेदों में जीवन के सिद्धांत को ‘एक श्रृंग’ से भी जोड़ा गया है, जो बौद्ध धर्म में भी मिलता है और सिंधु घाटी से मिले एक सींग वाले जानवर की सील भी इसी ओर इशारा करता है। अगर कोई आर्य बाहर से आया, तो उसे इन चीजों का भान नहीं था। ये बताता है कि आर्य-द्रविड़ वाली थ्योरी गलत थी।
मई 2020 के IIT खड़गपुर के कैलेंडर में स्वामी विवेकानंद का एक उद्धरण है, इसी विषय को लेकर। उन्होंने कहा था कि विदेशी विद्वान ये कहते हैं कि बाहरी भूमि से आर्य यहाँ आए और यहाँ के मूलनिवासियों की जमीनें छीन लीं, उन्हें अपने अधीन कर के भारत में बस गए – ये बेतुका है, मूर्खता भरी बातें हैं। उन्होंने इस पर दुःख जताया था कि हमारे छात्रों को इतना बड़ा झूठ फैलाया जा रहा है और भारतीय विद्वान इसकी काट नहीं खोज रहे। उन्होंने पूछा था कि वेद के किस सूक्त में ऐसा लिखा है कि आर्य बाहर से आए?

उन्होंने पूछा कि ये कहाँ लिखा है कि आर्यों ने भारत में आकर यहाँ के नगरों को तबाह किया? उन्होंने सवाल किया था कि इस तरह की बेतुकी बातें करने वालों को इससे क्या फायदा होता है? उन्होंने कहा था कि रामायण ठीक से पढ़ने वाला इस तरह का झूठ नहीं फैला सकता। उन्होंने आरोप लगाया था कि भारत में बने रहने के लिए यूरोपीय ताकतें ऐसा कर रही हैं। उन्होंने बताया था कि आर्यों का हमेशा लक्ष्य रहा है कि सभी को खुद के स्तर तक लेकर आएँ, खुद से भी ऊपर उठाएँ।

उन्होंने कहा था कि जहाँ यूरोप में मजबूर हमेशा विजेता बन कर रहते हैं और कमजोर हमेशा दुर्बल बन कर, बल्कि भारत भूमि में सारे नियम-कानून पिछड़ों के लिए बने हैं।
मई के कैलेंडर में ‘द मैट्रिक्स’ के बारे में बात करते हुए इसे कॉस्मिक क्रियाकलापों का गर्भाशय बताया गया है। यही बात सिंधु घाटी की कलाकृतियों में भी प्रतिलक्षित होती है। ऋग्वेद का सूक्त 1.164.46 विविधता में एकता के सिद्धांत को आगे बढ़ाता है, ‘यम’ के रूप में मृत्यु के सिद्धांत का भी प्रतिपादन किया गया।

देवी सूक्त (10.145) और रात्रि सूक्तम (10.127) कॉस्मो के निर्माण और विनाश को लेकर शुक्ल-कृष्ण के सिद्धांत को आगे बढ़ाता है। हमेशा से आर्य ऋषियों ने दिव्य शक्ति को बिना शर्त प्रेम के रूप में देखा। वेदों में ‘आदित्य’ और ‘इला, सरस्वती और भारती’ के रूप में प्रतिबिम्बों का विवरण भी उस समय दिया गया था। आचार्य अवनीन्द्रनाथ ठाकुर का ‘भारत माता’ का सिद्धांत इसी प्राचीन क्रम को आगे बढ़ाता है। जबकि पश्चिम में देशों को पितृसत्तात्मक रूप से देखा जाता रहा है, इसीलिए बाहर से कोई आर्य आया रहता तो उसकी सोच भी यही रहती।
जून महीने के कैलेंडर में वैदिक साहित्य में मिले एक सींग वाले घोड़े और हड़प्पा में एक सींग वाले जानवर की तुलना की गई है। रामायण में ऋष्यश्रृंगा की चर्चा है, जिनका जन्म हिरन के सींग से हुआ था। सिंधु घाटी सभ्यता में भी एक सींग वाले जानवर की चर्चा है, जिसे शक्ति, और उसके सींग को ईश्वर के तलवार का प्रतीक माना गया है। यूनिकॉर्न का सिद्धांत ईसाई और चीन में भी था। ये भारत से बाकी जगह फैला था, बाहर से यहाँ नहीं आया।
जुलाई महीने के कैलेंडर में बताया गया है कि कैसे पाश्चात्य अध्ययन ने शिव को गैर-आर्य देवता बताने की कोशिश की, जबकि वेदों में उनका जिक्र है।
अगस्त महीने के कैलेंडर में ‘Oscillation’ के सिद्धांत के प्रतीक अश्विनीयों की चर्चा की गई है। उनके बारे में लिखा था कि वो मधु देते हैं, जिससे मृत्यु पास भी नहीं फटकती। एशिया पैसिफिक और प्राचीन ग्रीस में भी इसी तरह दो देवताओं के साथ रह कर विचरण करने वाला सिद्धांत सामने आया। आधुनिक विज्ञान भी इस ‘Duality’ की बात करता है। मनुष्य के दिमाग के भी ‘Analytical’ और ‘Intuitive’ वाले दो हिस्से हैं।
सितम्बर महीने के कैलेंडर में बताया गया है कि कैसे महर्षि अरविन्द ने भी सिद्धांत को नकार दिया है।

असल में जो पुर्तगाली और ब्रिटिश आक्रांता थे, वो भारतीय और यूरोपीय भाषा में कई समान शब्दों को लेकर अचंभित थे। इसीलिए, उन्होंने एक इंडो-यूरोपियन लैंग्वेज सिस्टम के विकास का निर्णय लिया और बुद्ध से पहले आर्य के आक्रमण की सिद्धांत रखी।
उन्होंने लिखा कि भारत पर दूसरी बार 17वीं शताब्दी में उससे एक ‘ऊँची शक्ति’ ने आक्रमण किया। भारतीय, ग्रीक और लैटिन भाषाओं में समानता को लेकर अंग्रेजी विद्वान थॉमस स्टीफेंस ने भी अपने भाई को गोवा से एक पत्र सन् 1583 में लिखा था।

अक्टूबर महीने के कैलेंडर में बताया गया है कि कैसे पाश्चात्य विद्वान ये साबित करने को बेताब थे कि संस्कृति, और ज्ञान-विज्ञान का फ्लो पश्चिम से पूर्व की तरफ हुआ।
नवंबर के कैलेंडर में मैक्स मुलर, आर्थर दे गोबिनायउ और हॉस्टन स्टीवर्ट चैंबरलेन नामक तीन अंग्रेजी स्कॉलरों के विवरण हैं, जिन्होंने आर्य-द्रविड़ थ्योरी को आगे बढ़ाया। आर्य शब्द को यूरोप ने जैसे परिभाषित किया, वही आगे चल कर कत्लेआम का कारण बना और हिटलर ने इसी परिभाषा के आधार पर खून बहाया।।

श्रेय - अनुपम कुमार सिंह(ऑप इंडिया की पोस्ट)
दिनांक - २९.१२.२०२१
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बहुसंख्यक रामायण

रामायण अब तक हजार तक की संख्या में विविध रूपों में मिलती हैं। इनमें से संस्कृत में रचित वाल्मीकि रामायण (आर्ष रामायण) सबसे प्राचीन मानी जाती है।
म्यांमार के रामायण (रामजात्तौ) पर आधारित नृत्य
साहित्यिक शोध के क्षेत्र में  राम के बारे में आधिकारिक रूप से जानने का मूल स्रोत महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण है। इस गौरव ग्रंथ के कारण वाल्मीकि दुनिया के आदि कवि माने जाते हैं। श्रीराम-कथा केवल वाल्मीकीय रामायण तक सीमित न रही बल्कि मुनि व्यास रचित महाभारत में भी 'रामोपाख्यान' के रूप में आरण्यकपर्व (वन पर्व) में यह कथा वर्णित हुई है। इसके अतिरिक्त 'द्रोण पर्व' तथा 'शांतिपर्व' में रामकथा के सन्दर्भ उपलब्ध हैं।

बौद्ध परम्परा में श्रीराम से संबंधित दशरथ जातक, अनामक जातक तथा दशरथ कथानक नामक तीन जातक कथाएँ उपलब्ध हैं। रामायण से थोड़ा भिन्न होते हुए भी ये ग्रन्थ इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हैं। जैन साहित्य में राम कथा सम्बन्धी कई ग्रंथ लिखे गये, जिनमें मुख्य हैं- विमलसूरि कृत 'पउमचरियं' (प्राकृत), आचार्य रविषेण कृत 'पद्मपुराण' (संस्कृत), स्वयंभू कृत 'पउमचरिउ' (अपभ्रंश), रामचंद्र चरित्र पुराण तथा गुणभद्र कृत उत्तर पुराण (संस्कृत)। जैन परम्परा के अनुसार राम का मूल नाम 'पद्म' था।

परमार भोज ने भी चंपु रामायण की रचना की थी।

राम कथा अन्य अनेक भारतीय भाषाओं में भी लिखी गयीं। हिन्दी में कम से कम 11, मराठी में 8, बाङ्ला में 25, तमिल में 12, तेलुगु में 12 तथा उड़िया में 6 रामायणें मिलती हैं। हिंदी में लिखित गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस ने उत्तर भारत में विशेष स्थान पाया। इसके अतिरिक्त भी संस्कृत,गुजराती, मलयालम, कन्नड, असमिया, उर्दू, अरबी, फारसी आदि भाषाओं में राम कथा लिखी गयी। महाकवि कालिदास, भास, भट्ट, प्रवरसेन, क्षेमेन्द्र, भवभूति, राजशेखर, कुमारदास, विश्वनाथ, सोमदेव, गुणादत्त, नारद, लोमेश, मैथिलीशरण गुप्त, केशवदास, समर्थ रामदास, संत तुकडोजी महाराज आदि चार सौ से अधिक कवियों तथा संतों ने अलग-अलग भाषाओं में राम तथा रामायण के दूसरे पात्रों के बारे में काव्यों/कविताओं की रचना की है। स्वामी करपात्री ने 'रामायण मीमांसा' की रचना करके उसमें रामगाथा को एक वैज्ञानिक आयामाधारित विवेचन दिया। वर्तमान में प्रचलित बहुत से राम-कथानकों में आर्ष रामायण, अद्भुत रामायण, कृत्तिवास रामायण, बिलंका रामायण, मैथिल रामायण, सर्वार्थ रामायण, तत्वार्थ रामायण, प्रेम रामायण, संजीवनी रामायण, उत्तर रामचरितम्, रघुवंशम्, प्रतिमानाटकम्, कम्ब रामायण, भुशुण्डि रामायण, अध्यात्म रामायण, राधेश्याम रामायण, श्रीराघवेंद्रचरितम्, मन्त्र रामायण, योगवाशिष्ठ रामायण, हनुमन्नाटकम्, आनंद रामायण, अभिषेकनाटकम्, जानकीहरणम् आदि मुख्य हैं।

विदेशों में भी तिब्बती रामायण, पूर्वी तुर्किस्तानकी खोतानीरामायण, इंडोनेशिया की ककबिनरामायण, जावा का सेरतराम, सैरीराम, रामकेलिंग, पातानीरामकथा, इण्डोचायनाकी रामकेर्ति (रामकीर्ति), खमैररामायण, बर्मा (म्यांम्मार) की यूतोकी रामयागन, थाईलैंड की रामकियेनआदि रामचरित्र का बखूबी बखान करती है। इसके अलावा विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि ग्रीस के कवि होमर का प्राचीन काव्य इलियड, रोम के कवि नोनस की कृति डायोनीशिया तथा रामायण की कथा में अद्भुत समानता है।

विश्व साहित्य में इतने विशाल एवं विस्तृत रूप से विभिन्न देशों में विभिन्न कवियों/लेखकों द्वारा राम के अलावा किसी और चरित्र का वर्णन न किया गया।

भारत मे स्वातंत्र्योत्तर काल मे संस्कृत में रामकथा पर आधारित अनेक महाकाव्य लिखे गए हैं उनमे रामकीर्ति, रामाश्वमेधीयम्, श्रीमद्भार्गवराघवीयम्, जानकीजीवनम, सीताचरितम्, रघुकुलकथावल्ली, उर्मिलीयम्, सीतास्वयम्बरम्, रामरसायण्, सीतारामीयम्, साकेतसौरभम् आदि प्रमुख हैं। डॉ भास्कराचार्य त्रिपाठी रचित साकेतसौरभ महाकाव्य रचना शैली और कथानक के कारण वशिष्ठ है। नाग प्रकाशन नई दिल्ली से प्रकाशित ये महाकाव्य संस्कृत-हिन्दी मे समानांतर रूप में है। पर इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि कथानक एक जैसी नहीं है। पात्रों के संबंधों में भी काफी फेर बदल है, केवल राम ही जिसे नायक के रूप में चित्रित किया गया है, अन्यथा अन्य पात्रों का चरित्र संशय से भरा पड़ा है।  आदिपुरूष भी इसी संस्करण का एडवांस रूप है फिर इसके टीजर को लेकर इतना हो हल्ला क्यों? फ़िल्म इंडस्ट्री शुद्ध लाभ को ध्यान में रखकर बनाया जाने वाला प्रोडक्ट है, बिकता वही है जो शानदार है। सभी ग्रंथकारों ने अपनी तरह से मौलिक कल्पना किया है। निराला ने राम की शक्तिपूजा में राम को मार्क्सवादी बना दिया है।तो क्या उनके रामायण का महत्व घट है। आदिपुरूष फ़िल्म के निर्देशक की भी मौलिक कल्पना है। कल्पना को कल्पना के रूप में देखने से ही आनंद की  नुभूति होगी। लेकिन कुछ लोग केवल रामानंद निर्देशित रामायण को प्रामाणिक कल्पना मानकर आदिपुरूष का विरोध कर रहा है, मुझे लगता है अपनी अनुभूति को जबरन किसी पर थोपने का प्रयास है। रामायण  कोई सच्ची घटना नहीं है यह एक महाकाव्य है और काव्य में मौलिक कल्पना करने का अधिकार सभी कलाकारों का है।








चंगेज खान

क्या वाकई इतिहासकारों ने चंगेज खान को बदनाम किया है?
   बिल्कुल सही इस्लामी और ईसाई इतिहासकारों ने चंगेज खान को बदनाम किया।

• यह जानकर बहुत से लोगों का दिमाग चकरा गया होगा क्योंकि हमारे देश में ज्यादातर लोग चंगेज खान को मुसलमान ही समझते हैं। आम तौर पर लोगों के बीच में ये मान्यता है कि जो खान है इसका मतलब वो पक्का मुसलमान ही है। लेकिन ऐसा है नहीं।

• चंगेज खान मुसलमान नहीं था वो हिंदू धर्म की तरह ही एक प्रकृति पूजक धर्म का अनुयायी था जिसे तेंगरिज्म कहा जाता है । तेंगरिज्म में आकाश के देवता... तेंगरी को ही पूजनीय माना जाता है । इस्लाम मूर्तिपूजा का विरोध करता है जबकि तेंगरिज्म में मूर्तिपूजा होती है । इसलिए इस्लाम और तेंगरिज्म के बीच एक ऐतिहासिक दुश्मनी और घृणा रही है।

• फिर लोगों के मन में ये सवाल भी उठेगा कि आज सारे खान मुसलमान क्यों होते हैं ये इतिहास में सामूहिक धर्मपरिवर्तन की एक अलग कहानी है जिससे हम सबको सबक लेना चाहिए।

• दरअसल सच्चाई ये है कि चंगेज खान इतिहास का वो किरदार है जिसके बारे में इतिहासकारों ने सबसे ज्यादा झूठ बोला है । इस्लामी और ईसाई इतिहासकारों ने चंगेज खान को अत्यंत क्रूर, बर्बर और आतातायी साबित करने के लिए पूरा जोर लगा दिया है। जबकि हकीकत में चंगेज खान ऐसा नहीं था... चंगेज खान इससे उलट.... एकदम उसूलों और आदर्शों वाला इंसान था... ये बात आपको बहुत अजीब और उलझन वाली लगेगी लेकिन आपको इस सवाल का भी जवाब मिल जाएगा कि आखिर चंगेज खान ने उस वक्त दुनिया के सबसे धनी देश भारत पर हमला क्यों नहीं किया ?

• इस्लामिक इतिहासकारों की ही तरह ईसाई यूरोपीय इतिहासकार भी चंगेज खान से बहुत नफरत करते थे। क्योंकि वो कभी ये बर्दाश्त नहीं कर सके कि यूरोपियन नस्ल के अलावा कोई एशिया की नस्ल का इंसान विश्व विजेता बन गया। आपने इस बात पर गौर किया होगा कि यूरोपियन नस्ल के योद्धा जैसे सिकंदर, नेपोलियन और जूलियस सीजर की प्रशंसा में यूरोपियन इतिहासकारों ने चार चांद लगा दिए हैं। इन योद्धाओं को यूरोपियन इतिहासकारों ने विश्वविजेता की पदवी से नवाजा। लेकिन चंगेज खान ने इन योद्धाओं से भी बड़ा साम्राज्य खड़ा किया फिर भी यूरोपियन इतिहासकारों ने चंगेज खान को कभी विश्वविजेता की संज्ञा नहीं दी।

• इसी तरह इस्लाम के विद्वान चंगेज खान से बहुत ज्यादा नफरत करते हैं। क्योंकि अगर चंगेज खान नहीं होता तो आज मुसलमानों की संख्या तीन गुनी होती। चंगेज खान और उसके वंशजों ने बहुत बड़े पैमाने पर मुसलमानों का सफाया कर दिया था और इसकी वजह थी इस्लामिक क्रूरता और अनाचार। इस इस्लामिक अनाचर और क्रूरता का बदला चंगेज खान ने बहुत बेरहमी से लिया था‌। मुसलमान इतिहासकार इसलिए भी चंगेज खान से नफरत करते हैं क्योंकि उन्हें ये बात अच्छी नहीं लगती है कि एक काफिर सेनापति ने दुनिया का सबसे विशाल साम्राज्य खड़ा किया था।

• चंगेज खान ने अपने पूरे जीवनकाल में कभी भी किसी पर बिना वजह हमला नहीं किया । उसने युद्ध को यथासंभव टालने की कोशिश की थी । चीन के नक्शे के ठीक ऊपर एक देश मौजूद है जिसे मंगोलिया कहा जाता है। मंगोलिया में बहुत सारी जनजातियां और कबीले थे जो सदैव आपस में लड़ते रहते थे। इस आपस की लड़ाई का लाभ हमेशा चीन के राजाओं ने उठाया। चीन के राजा बहुत चालाकी से इन जनजातियों को आपस में लड़वाते थे और इनसे टैक्स और उपहार प्राप्त करते थे।

• जिस मंगोल योद्धा ने भी मंगोलिया की सभी जनजातियों को इकट्ठा करके एक राष्ट्र बनाने की कोशिश की उस मंगोल योद्धा को चीन के राजाओं ने मरवा दिया। अंबागाई... चंगेज खान के चाचा थे... चंगेज खान के जन्म के कुछ साल पहले ही अंबागाई ने मंगोलिया की सभी जनजातियों को इकट्ठा करने की कोशिश की थी लेकिन चीन के राजा ने अंबागाई को कैद कर लिया और उनको चीन लाकर कत्ल करवा दिया।

• इन घटनाओं से पता चलता है कि मंगोलिया की ... चीन के राजाओं से एक ऐतिहासिक और जन्मजात दुश्मनी थी। 1206 में चंगेज खान ने सभी मंगोल जनजातियों को इकट्ठा कर लिया और मंगोलिया को एक राष्ट्र में बदल दिया। इसके बाद चंगेज खान की उपाधि हासिल की... दरअसल पहले चंगेज खान का नाम तिमुजिन था‌

• 1215 तक चंगेज खान ने पूरे चीन पर कब्जा कर लिया और बीजिंग को नष्ट कर दिया। इस तरह चंगेज खान ने अपनी चाचा की मौत का बदला लिया। लेकिन 1218 में चंगेज खान को मजबूरी में कारा खिताई एम्पायर पर हमला करना पड़ा। कारा खिताई एम्पायर आज के दक्षिणी रूस के आस पास फैला हुआ साम्राज्य था। दरअसल कारा खिताई एम्पायर के राजा ने मंगोल के एक शहर पर हमला किया और उस शहर के शासक का कत्ल कर दिया। संयोग से उस शहर के शासक का विवाह.... चंगेज खान की एक रिश्तेदार के साथ होने वाला था। इस घटना ने चंगेज खान को क्रोधित कर दिया और इसीलिए उसने पूरे कारा खिताई साम्राज्य का सफाया कर दिया।

• 1218 में कारा खिताई एम्पायर को नष्ट करने के बाद चंगेज खान के साम्राज्य की सीमा ख्वाराज्म के साम्राज्य से जाकर भिड़ गई। ख्वारज्म उस वक्त एक बहुत बड़ी रियासत थी जिसकी सीमाएं भारत की सिंधु नदी से टकराती थी। ख्वारज्म की रियासत में आज का पूरा अफगानिस्तान था। यहां का बादशाह अलालुद्दीन मोहम्मद शाह द्वितीय था जो तुर्की_ममलूक नस्ल का मुसलमान था और वो ईरान से राज चला रहा था। ये वो समय था जब तुर्की नस्ल के मुसलमान एशिया के कई बड़े देशों को गुलाम बनाकर उन पर राज कर रहे थे। ईरान तब तुर्की नस्ल के अलाउद्दीन का गुलाम था... यानी तुर्की का ही एक उपनिवेश था। अलालुद्दीन के ख्वाराज्म के साम्राज्य में ईरान के अलावा तजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, किर्गिस्तान, और आज के पाकिस्तान के पेशावर के आसपास के कुछ हिस्से भी शामिल थे। यानी ये अपने आप में एक बहुत बड़ा साम्राज्य था।

• 1218 में चंगेज खान ने व्यापार करने के उद्देश्य से ख्वाराज्म में 500 लोगों का एक व्यापारिक और राजनीतिक दल भेजा। लेकिन अलालुद्दीन ने अपने विनाश को निमंत्रण दिया और उन सभी 500 लोगों को बेरहमी से अपने उतरार राज्य में कत्ल करवा दिया। इसके बाद भी चंगेज खान ने अपना धैर्य नहीं खोया और दोबारा तीन राजदूत अलाउद्दीन के दरबार में भेजे। इनमें से एक दूत का सिर अलाउद्दीन ने कटवा दिया और बाकी दो राजदूतों को बहुत जलील करके भेज दिया।

• इसके बाद चंगेज खान के पास अलाउद्दीन के खिलाफ युद्ध के अलावा कोई विकल्प ही नहीं कर गया। चंगेज खान जैसी आर्मी उस वक्त किसी के पास थी ही नहीं। अलाउद्दीन परास्त हो गया और उसने भागकर कैस्पियन सागर के पास एक द्वीप पर शरण ली जहां 1220 में उसकी मौत हो गई। इसके बाद अलाउद्दीन का बेटा जलालुद्दीन ख्वाराज्य का वारिस बना। बाद में मंगोल सेनाओं ने जलालुद्दीन का भी खात्मा कर दिया।

• साल 1221 में चंगेज खान का पड़ाव सिंधु नदी के तट पर था और वो भारत पर हमला कर सकता था क्योंकि उसने ख्वारज्म के बादशाह जलालुद्दीन की सेना के आखिरी आदमी का भी कत्ल करवा दिया था।

• ख्वाराज्म का साम्राज्य खत्म करते हुए चंगेज खान ने समरकंद, बुखारा, निशापुर, उतरार और गोरगान जैसे तमाम इस्लामिक सभ्यता के सेंटर्स को नष्ट कर दिया था। यही वजह है कि मुल्ला मौलवी और आलिम उलेमा चंगेज खान से आज भी बहुत ज्यादा नफरत करते हैं।

• इन पूरी ऐतिहासिक घटनाओं से ये समझ में आता है कि चंगेज खान ने सदैव युद्ध को टालने की ही कोशिश की थी। उसने भारत पर इसलिए हमला नहीं किया क्योंकि भारत पर हमला करने की कोई वजह उसके पास नहीं थी । और वो पहले से तुर्की के क्रूर मुसलमानों की गुलामी झेल रहे हिंदुओं को और ज्यादा परेशान नहीं करना चाहता था।

• किसी के भी बारे में कोई धारणा बनाने से पहले अच्छी तरह से उसके बारे में जानकारी होना जरूरी है। ये लेख अभिजीत चावड़ा के रिसर्च पर आधारित है।

धनीराम सूर्यवंशी जी













द बैटल ऑफ दिवेर 
या मेवाड़ मैराथन नाम से कितने मित्र परिचित है ?? 

हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात के इतिहास से कितने मित्र वाकिफ है ?? .... क्या किसी ने दिवेर के महासंग्राम को पढा है ?? ....

1576 में हल्दीघाटी युद्ध की अनिर्णीत समाप्ति के पश्चात चित्तोड़ महाराणा के हाथों से फिसल चुका था .... मुगल सेना का मनोबल इस युद्ध के बाद बढ़ चुका था और धीरे धीरे कुम्भलगढ़ गोगुन्दा उदयपुर जैसे मेवाड़ के बड़े ठिकाणों और अनेक छोटे ठिकाणों पर मुगलों और शाही सेनाओं का आधिपत्य हो चुका था ....

महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी युद्ध के पश्चात अरावली के घने जंगलों में शरण ली .... सुरक्षा की दृष्टि से महाराणा प्रताप ने अरावली के जंगलों में स्थित मानकियावास नाम के एक छोटे से गांव में पड़ाव डाला .... यहां जंगली बिलावों का खौफ ज्यादा था इसलिए इस गांव का नाम ही मानकियावास पड़ गया .... देवनगर रूपनगर आमेट जैसे ठिकाणे भी मानकियावास के समीप थे जहां से महाराणा को मदद मिलती रहती थी ....

इसी मानकियावास की गुफा में दिवेर युद्ध की रणनीति बनी ....

1578 में ईडर के पास जूलिया ग्राम में जब महाराणा का पड़ाव होता है तो उनके अभिन्न मित्र और मंत्री भामाशाह कावड़िया (वैश्य) अपने भाई ताराचंद कावड़िया के साथ महाराणा से मिलने आते हैं ....

भामाशाह के पूर्वज भी मेवाड़ में मंत्री और खजांची थे .... जो मेवाड़ का खजाना भामाशाह के आधिपत्य में था भामाशाह वो खजाना महाराणा को भेंट कर देते हैं .... यह खजाना इतना होता है कि 25 हज़ार सैनिकों का 12 वर्ष तक भरण पोषण रशद हथियारों का खर्चा वहन किया जा सके ....

उधर मुगलों ने सोचा कि महाराणा धीरे धीरे अपने कदम मेवाड़ से पीछे हटा रहे हैं ....

महाराणा प्रताप के खौफ का आलम ये था कि 1576 से 1582 तक अकबर ने करीब 1.5 लाख सैनिकों को मेवाड़ महाराणा की गिरफ्तारी के लिए भेजा ....

मानकियावास के घने जंगलों और गुफाओं में भामाशाह के सहयोग के पश्चात महाराणा युद्ध की तैयारियां करने लगे .... सेना को एकत्रित किया .... खुफिया सूचनाओं का आदान प्रदान होने लगा .... हथियारों अस्त्रों शस्त्रों का निर्माण हुआ .... सेना को कुशल प्रशिक्षण दिया जाने लगा ....

महाराणा ने खुद को युद्ध की हर स्थिति से निबटने के लिए शारीरिक मानसिक रूप से तैयार कर लिया ....

दिवेर युद्ध की योजना बनी और तारीख तय हुई विजयादशमी 1582 .... महाराणा को इस युद्ध मे सर्वप्रथम ईडर और सिरोही के शासकों का सहयोग मिला .... तदोपरांत जालोर नाडोल और बूंदी के शक्तिशाली शासक भी अकबर के खिलाफ खुला विद्रोह करते हुए महाराणा के समर्थन में आ गए ....

सेना को 2 भागों में विभक्त किया गया .... एक टुकड़ी का नेतृत्व स्वयं महाराणा के हाथों में था तो दूजी टुकड़ी की कमान महाराणा के पुत्र और मेवाड़ के युवराज कुंवर अमरसिंह के हाथों में सौंपी गयी ....

तय विजयदशमी 1582 के दिन महाराणा ने पूरी ताकत से दिवेर के ठिकाणे पे शाही सेना पे हमला किया .... दिवेर ठिकाणे की कमान अकबर ने अपने काका सुल्तान खान को सौंप रखी थी .... 

सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण दिवेर ठिकाणे पे हजारों हजारों की संख्या में मुगलों की शाही सेना तैनात थी .... वहीं महाराणा के पास शाही सेना के मुकाबले बहुत कम सैनिक थे ....

दिवेर का युद्ध इतना भयावह था जितना भयावह हल्दीघाटी का युद्ध था ....

महाराणा के नेतृत्व में मुट्ठी भर राजपूत शाही सेना पे बिजली की गति से टूट पड़े और देखते ही देखते दिवेर में शाही सेना को गाजर मूली की तरह मेवाड़ी योद्धाओं ने चीरना शुरू कर दिया ....

अकबर का काका सुल्तान खान एक विशाल सेना के साथ मैदान छोड़ के भागने लगा .... किन्तु मेवाड़ी सेना और महाराणा तथा उनके पुत्र अमरसिंह ने आमेट तक सुल्तान खान का पीछा किया और सेनाओं सहित उसे मौत के घाट उतार दिया ....

यह युद्ध इतना भीषण था कि .... महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने मुगल सेनापति सुल्तान खान पर भाले का ऐसा वार किया कि भाला उसके शरीर और घोड़े को चीरता हुआ जमीन में जा धंसा और सेनापति मूर्ति की तरह एक जगह गड़ गया .... 

उधर महाराणा प्रताप ने बहलोल खान के सिर पर इतनी ताकत से वार किया कि उसे घोड़े समेत 2 टुकड़ों में चिर दिया .... 

स्थानीय इतिहासकार बताते हैं कि इस युद्ध के बाद यह कहावत बनी कि .... मेवाड़ के योद्धा सवार को एक ही वार में घोड़े समेत चिर दिया करते हैं ....

अपने सिपाहसालारों की यह गत देखकर मुगल सेना में बुरी तरह भगदड़ मची और राजपूत सेना ने मुगलों के होश पख्ता कर दिए .... 

दिवेर के युद्ध ने मुगलों के मनोबल को बुरी तरह तोड़ दिया .... दिवेर के युद्ध के बाद प्रताप ने उदयपुर .... गोगुंदा .... कुम्भलगढ़ .... बस्सी .... चावंड .... जावर .... मदारिया .... मोही .... माण्डलगढ़ जैसे महत्वपूर्ण 32 ठिकाणों पर पुनः कब्ज़ा कर लिया .... 

आहिस्ता आहिस्ता मेवाड़ घाटी को मरुस्थल बनाते हुए महाराणा ने मेवाड़ को मुगलों के रक्त से रंजित कर दिया .... एक एक मुगल को ढूंढकर निर्ममता से मौत के घाट उतारा गया ....
 
स्थानीय इतिहासकार बताते हैं कि इसके बाद भी महाराणा और उनकी सेना ने अपना अभियान जारी रखते हुए सिर्फ चित्तौड़ को छोड़ के मेवाड़ के अधिकतर ठिकाणे/दुर्ग वापस स्वतंत्र करा लिए ....

अंग्रेजी इतिहासकारों ने लिखा है कि हल्दीघाटी युद्ध का दूसरा भाग जिसको उन्होंने बैटल ऑफ दिवेर कहा है .... मुगल बादशाह के लिए एक करारी हार सिद्ध हुआ था ....
 
कर्नल टॉड ने भी अपनी किताब में जहां हल्दीघाटी को थर्मोपल्ली ऑफ मेवाड़ की संज्ञा दी .... वहीं दिवेर के युद्ध को मेवाड़ का मैराथन बताया है .... (मैराथन का युद्ध 490 ई.पू. मैराथन नामक स्थान पर यूनान केमिल्टियाड्स एवं फारस के डेरियस के मध्य हुआ था .... जिसमें यूनान की विजय हुई थी .... इस युद्ध में यूनान ने अद्वितीय वीरता दिखाई थी) ....

कर्नल टॉड ने महाराणा और उनकी सेना के शौर्य पराक्रम युद्ध कुशलता को स्पार्टा के योद्धाओं सा वीर बताते हुए लिखा है कि वे युद्धभूमि में अपने से 4 गुना बड़ी सेना से भी नहीं डरते थे ....

लेकिन अफसोस वामपंथी इतिहासकारों ने दिवेर के निर्णायक युद्ध और महाराणा प्रताप के शौर्य साहस और भीम-पराक्रम को इतिहास में वो जगह नहीं दी जिसके वो हकदार थे ....

वहीं राजस्थान के कांग्रेसी शिक्षामंत्री लोगों से सुझाव मांग रहे हैं कि ....

अकबर महान या महाराणा महान ?? ....





"उसने कभी अपने घोड़े पर मुगलो का दाग नही लगाया, उसने कभी अपने सिर को किसी के सामने नही झुकाया, नो रोज के जलसों में वह कभी नही गया, ओर ऐसे झरोखे के नीचे कभी नही आया, जिसका रौब दुनिया पर काबिज था । इस तरह का वह गुहिलोत जीवन भर नियति को धूल चटाता रहा। यह महाराणा प्रताप थे।

एक बार महाराणा प्रताप के पुत्र अमरसिंह ने महाराणा के आगे सुखों की बात क्या की, की महाराणा प्रताप ने कहा, " कहीं दूर मेरी आँखों के सामने से लेजाकर इस कुल के इस कलंक का वध कर दो, यह आज छोटी सी उम्र में सुखों के लिए इतना लालायित है, यह कल मुगलो की गुलामी करेगा। तब महाराणा अमरसिंह ने अपने पिता को वचन दिया, की वह जीते जी, कभी भी मुगलो के आगे अपना शीश नही झुकायेगा।

#महाराणा_अमरसिंह युवा ही थे, की #महाराणा_प्रताप के साथ युद्ध मे चले गए, यह एक मुगल थाने पर हमला था, इस थाने को दिवेर शाही थाना कहा जाता। वीर विनोद जो कि राजपूतो का सबसे प्रामाणिक इतिहास की पुस्तक में से एक है, वहां लिखा है --

" महाराणा अमरसिंह ने दिवेर थाने के सुल्तान खान पर इतना भयंकर प्रहार किया, की अमरसिंह के हाथ का बरछा सुल्तान खान की छाती चीरते हुए, घोड़े के भी आर पार हो गया । घोड़े समेत सुल्तान खान मारा गया । अमरसिंह के दूसरे हाथ की तलवार का प्रहार इतना भयंकर था, की एक ही वार में हांथी का पिछला पाँव कट गया । महाराणा अमरसिंह के खोफ से सारे मुगल थानाधिकारी भाग खड़े हुए। महाराणा अमरसिंह के रौद्र रूप से मुगल इतना डर गए, की कुम्भलमेर का किला सिर्फ इतना सुनकर छोड़ के भग गए " की अमरसिंह राजपूत सरदारों के साथ आ रहा है " ।

महाराणा अमरसिंह ने मुगलो से 17 युद्ध लड़े, ओर अंत तक नही हारे । आजकल कुछ लोग कहते है, महाराणा अमरसिंह ने जहांगीर से संधि कर ली , जब अमरसिंह ने जहांगीर के बाप अकबर से संधि नही की, तो जहांगीर की तो औकात ही क्या थी ? महाराणा अमरसिंह ने जितना संघर्ष किया, शायद ही इतिहास में इतना कष्ठ किसी ने झेला हो ...

क्षत्रियो  में दो दो चार चार पीढियां सबकी मारी गयी, पहाड़ो के चारो तरफ से मुगलो के हमले होते थे, आज एक बहादुर राजपूत मौजूद है, ओर वह कल वीरगति को प्राप्त हो गया, परसो उसके बेटे ने भी शत्रु पर हमला करके अपनी जान दे दी, उसकी बेवा अपने पति के साथ चिता में जलती थी, अब पीछे जो बच्चे अनाथ रह जाते, उनकी देखरेख खुद महाराणा अमरसिंह को करनी पड़ती , उसके ऊपर भी सबसे बड़ा खोफ यह था, की राजपुत बच्चे मुसलमानों के हाथ पड़कर गुलाम ना बन् जाएं । अगर ऐसा कभी हो जाता, तो अमरसिंह अंदर तक टूट जाते । एक एक दिन में कई जगह रसोई बदलकर खाना खाना पड़ता था, यानि एक जगह भोजन तैयार हुआ की मुगलो के थानों से आक्रमण हो जाता ,जहां दूसरी जगह खाना बना, वहां भी शत्रु हमला हो जाता । बच्चे रो रो कर अपने माँ बाप से खाना मांगते थे, लेकिन धन्य है वीर राजपूत, जो इस अवस्था मे भी लड़ने ओर मरने के लिए तैयार रहते थे ।

आप इसे पढ़े, ओर जन जन तक पहुंचाएं ।

"@राम जी..











चोल वंश
वामपंथियों और नास्तिकों का ताजा कमाल यह है कि उनकी नजर में तमिलनाडु का शैव मतालंबी महान शासक राजराजा हिंदू नहीं था।
हार्वर्ड के महान विद्वानों का हिंदू धर्म को मिटा देने का षडयंत्र अपने शबाब पर है। हिंदू धर्म पर ताजा आघात दक्षिण भारत के राज्य तमिलनाडु में निर्मित फिल्म के जरिए किया गया है। तीन शिव मंदिरों का निर्माता, अनगिनत हिंदू मंदिरों का निर्माण करवाने वाला ,दुर्गा को अपनी कुल देवी मानने वाला शासक, खुद को राम का वंशज बताने वाला चोला शासक राजराजा अचानक हिंदू नहीं रहा। उसे हिंदू पंथ से निकालने वालों ने शिव को भी नहीं बख्शा।अब शिव भी हिंदुओं के अराध्य नहीं रहे, क्योंकि राजराजा शिव का उपासक था। 
वामपंथ के ज्ञानियों ने एक बार फिर इतिहास को झुठला कर नया इतिहास गढ़ दिया है। उनकी इस नई व्याख्या के अनुसार, तमिलनाडु के निवासी कभी भी हिंदू नहीं रहे। इस नई बहस को हवा दी " महान " इतिहासकार अभिनेता कमल हासन ने और उनकी इन बेहूदा बातों को सारे दिन प्रचारित करने का काम किया हमारे टीवी चैनलों ने।कमल हासन द्वारा ऐसा कहना बनता है।खुद को नास्तिक प्रचारित करने वाले कमला हसन राजनीतिक फायदे के लिए ऐसा नहीं कहेंगे तो और कौन कहेगा। 
जबसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तमिल कवियों और लेखकों को अपने भाषणों में स्थान देना शुरू किया है, तबसे तमिलनाडु के स्थानीय दल आतंकित हैं।सभी को भय है कि कहीं यदि हिंदू मोदी के पीछे एकजुट हो गए तो फिर मोदी तमिलनाडु में भी चुनावी सफलता हासिल कर लेगा। प्रेम और जंग में जायज और नाजायज का भेद नहीं रखा जाता,इस नीति पर विश्वास करने वाले राजनीतिज्ञ समूचे इतिहास को बदल कर तमिलों को हिंदू धर्म से ही अलग कर देना चाहते हैं। उनकी नजर में अंग्रेजों से पहले हिंदू धर्म का अस्तित्व ही नहीं था तो फिर चोला शासक राजराजा भला हिंदू कैसे हो सकता है।
अयोध्या के राम का रामेश्वरम में आगमन,वहां शिवलिंग की स्थापना कर उसकी पूजा करना अब उनकी नजर में केवल एक कपोल कल्पना है।सच तो केवल अंग्रेज ही कह,लिख सकते थे। सो सभी प्रकार के रामायण के रामेश्वरम प्रसंग को नकार देने का नेक काम नास्तिकों ने कर दिया है और गौरांग प्रभु की वाणी को अंतिम सच मान कर उसे स्वीकार कर लिया गया है। यहां बताता चलूं कि तमिल में रचित रामायण में भी राम के द्वारा रामेश्वरम के समुद्र तट पर शिवलिंग की स्थापना को नकारा नहीं गया है। कदंबम, जिसने तमिल में रामायण की रचना की थी, वह गरीब पालिटिक्स नहीं समझता था, जो राम के तमिलनाडु आने के जिक्र को गोल कर जाता।अब कामरेड फिल्मों और प्रचारतंत्र के माध्यम से राम के तमिलनाडु आगमन और उसके द्वारा शिवलिंग की स्थापना और उसकी पूजा की सच्चाई को मिटा कर दम लेंगे, ताकि हिंदू के नाम पर मोदी कहीं चुनावी फायदा न ले जाए। यानी मोदी की वजह से शिव ही नहीं, बल्कि राम भी एक बार फिर से बनवास भेजे जाएंगे।
चोला शासक राजराजा को आने वाले युग के झूठों का अंदेशा था।इसलिए उसने जितने भी मंदिर बनवाए उसकी दीवारों पर यह अंकित करवा गया कि वह राम के कुल का है,देवी दुर्गा उसकी कुलदेवी हैं और वह शिव भक्त है। मंदिर पत्थरों से बने हैं सो उनमें उकेरे गए शब्दों को मिटाना आसान काम नहीं है। इसका तोड़ हिंदू विरोधी ताकतें अभी तक ढूंढ नहीं पाई हैं।राजराज़ा के द्वारा उकेरे गए शब्द तमिल और संस्कृत दोनो ही भाषा में हैं।सो भाषाई युद्ध की भी कोई गुंजाइश नहीं है। करेले पर नीम चढ़ा यह उल्लेख भी मंदिर की दीवारों पर है कि राजराजा ने वेद अध्यन के कई केंद्र भी स्थापित करवाए थे। बहुत जल्द वामपंथी यह भी बताएंगे कि चारों वेद हिंदू धर्म का हिस्सा ही नहीं हैं, क्योंकि जब वेद लिखे गए थे, तब हिंदू शब्द का जन्म ही नहीं हुआ था। उनकी नजर में मोदी का विरोध हिंदू धर्म के विरोध तक जा पहुंचा है। हिंदू धर्म को मिटाने का जो काम एक हजार साल के इस्लामी शासन में मुसलमान नहीं कर सके,वही काम हिंदुओं का एक वर्ग अपने राजनीतिक फायदे के लिए, करने को निकल पड़ा है। अतीत में भी हिंदू धर्म के शत्रु पराजित हुए थे।वर्तमान में भी धर्म शत्रु हारेंगे।
Rajen Kishore Jha




आदिपुरुष 
हलांकि हम अपने-अपने राम की धारणा में विश्वास करने वाले लोग हैं। पर भगवान राम और रामायण को लेकर एक भावुकता उन सभी लोगों में रहती है जो बचपन से किसी न किसी रूप में अपने घरों में राम कथा सुनते आए हैं और रामानंद सागर जी कि रामायण अब तक कि सभी प्रस्तुतियों पर भारी पड़ती है तो इसका मूल कारण इसको जिस मनोयोग और भक्ति भाव से बनाया जाना है जो राम के भाव को कहीं छोड़ता नहीं है और प्रत्येक चरित्र को निभाने वाला प्रत्येक व्यक्ति सोचिए उस चरित्र के आगे अभिनय का कोई दूसरा पहचान नहीं बना पाया मतलब रामायण ने उन्हें उस मुकाम पर पहुँचा दिया जिसके उनके लिए कुछ बचा ही नहीं।
   आज भी इसी माध्यम में उसी रामायण के संवाद, गीत, संगीत, उसी तरह सुने जा रहे हैं और तमाम तकनीकी कौशल के बावजूद जल्दबाजी और मूल भाव समझे बिना दुनिया के सिनेमाई विजुअल की अनावश्यक नकल चीजों को हास्यास्पद बना देती है।
फिलहाल अपने अपने राम की धारणा अब भी उतनी ही सार्थक है ऐसे ही प्रयास करते रहिए और बाजार में बच्चों की भूमिका बहुत ज्यादा है और हर तरह के मसाला के लिए लोग मौजूद हैं।
वैसे एक बार सभी plateform पर पुरानी रामायण के प्रसंगों का view हर creater को देखना चाहिए। बाकी अपने-अपने राम तो हैं ही
जय सियाराम जय जय सियाराम
#ramayana #AdipurushTeaser #adipurush #jaysriram
#loudspeaker #rajhansraju








महत्वपूर्ण है,भारतीय समाज के प्रत्येक व्यक्ति को इसे पढ़ना चाहिए श्री विनय श्रीवास्तव की व्हाट्सएप भित्ति से प्राप्त-

चलिए हजारो साल पुराना इतिहास पढ़ते हैं।

सम्राट शांतनु ने विवाह किया एक मछवारे की पुत्री सत्यवती से।उनका बेटा ही राजा बने इसलिए भीष्म ने विवाह न करके,आजीवन संतानहीन रहने की भीष्म प्रतिज्ञा की।

सत्यवती के बेटे बाद में क्षत्रिय बन गए, जिनके लिए भीष्म आजीवन अविवाहित रहे, क्या उनका शोषण होता होगा?

महाभारत लिखने वाले वेद व्यास भी मछवारे थे, पर महर्षि बन गए, गुरुकुल चलाते थे वो।

विदुर, जिन्हें महा पंडित कहा जाता है वो एक दासी के पुत्र थे, हस्तिनापुर के महामंत्री बने, उनकी लिखी हुई विदुर नीति, राजनीति का एक महाग्रन्थ है।

भीम ने वनवासी हिडिम्बा से विवाह किया।

श्रीकृष्ण दूध का व्यवसाय करने वालों के परिवार से थे,

उनके भाई बलराम खेती करते थे, हमेशा हल साथ रखते थे।

यादव क्षत्रिय रहे हैं, कई प्रान्तों पर शासन किया और श्रीकृषण सबके पूजनीय हैं, गीता जैसा ग्रन्थ विश्व को दिया।

राम के साथ वनवासी निषादराज गुरुकुल में पढ़ते थे।

उनके पुत्र लव कुश महर्षि वाल्मीकि के गुरुकुल में पढ़े जो वनवासी थे

तो ये हो गयी वैदिक काल की बात, स्पष्ट है कोई किसी का शोषण नहीं करता था,सबको शिक्षा का अधिकार था, कोई भी पद तक पहुंच सकता था अपनी योग्यता के अनुसार।

वर्ण सिर्फ काम के आधार पर थे वो बदले जा सकते थे, जिसको आज इकोनॉमिक्स में डिवीज़न ऑफ़ लेबर कहते हैं वो ही।

प्राचीन भारत की बात करें, तो भारत के सबसे बड़े जनपद मगध पर जिस नन्द वंश का राज रहा वो जाति से नाई थे ।

नन्द वंश की शुरुवात महापद्मनंद ने की थी जो की राजा नाई थे। बाद में वो राजा बन गए फिर उनके बेटे भी, बाद में सभी क्षत्रिय ही कहलाये।

उसके बाद मौर्य वंश का पूरे देश पर राज हुआ, जिसकी शुरुआत चन्द्रगुप्त से हुई,जो कि एक मोर पालने वाले परिवार से थे और एक ब्राह्मण चाणक्य ने उन्हें पूरे देश का सम्राट बनाया । 506 साल देश पर मौर्यों का राज रहा।

फिर गुप्त वंश का राज हुआ, जो कि घोड़े का अस्तबल चलाते थे और घोड़ों का व्यापार करते थे।140 साल देश पर गुप्ताओं का राज रहा।

केवल पुष्यमित्र शुंग के 36 साल के राज को छोड़ कर 92% समय प्राचीन काल में देश में शासन उन्ही का  रहा, जिन्हें आज दलित पिछड़ा कहते हैं तो शोषण कहां से हो गया? यहां भी कोई शोषण वाली बात नहीं है।

फिर शुरू होता है मध्यकालीन भारत का समय जो सन 1100- 1750 तक है, इस दौरान अधिकतर समय, अधिकतर जगह मुस्लिम शासन रहा।

अंत में मराठों का उदय हुआ, बाजी राव पेशवा जो कि ब्राह्मण थे, ने गाय चराने वाले गायकवाड़ को गुजरात का राजा बनाया, चरवाहा जाति के होलकर को मालवा का राजा बनाया।

अहिल्या बाई होलकर खुद बहुत बड़ी शिवभक्त थी। ढेरों मंदिर गुरुकुल उन्होंने बनवाये।

मीरा बाई जो कि राजपूत थी, उनके गुरु एक चर्मकार रविदास थे और रविदास के गुरु ब्राह्मण रामानंद थे|।

यहां भी शोषण वाली बात कहीं नहीं है।

मुग़ल काल से देश में गंदगी शुरू हो गई और यहां से पर्दा प्रथा, गुलाम प्रथा, बाल विवाह जैसी चीजें शुरू होती हैं।

1800 -1947 तक अंग्रेजो के शासन रहा और यहीं से जातिवाद शुरू हुआ । जो उन्होंने फूट डालो और राज करो की नीति के तहत किया।

अंग्रेज अधिकारी निकोलस डार्क की किताब "कास्ट ऑफ़ माइंड" में मिल जाएगा कि कैसे अंग्रेजों ने जातिवाद, छुआछूत को बढ़ाया और कैसे स्वार्थी भारतीय नेताओं ने अपने स्वार्थ में इसका राजनीतिकरण किया।

इन हजारों सालों के इतिहास में देश में कई विदेशी आये जिन्होंने भारत की सामाजिक स्थिति पर किताबें लिखी हैं, जैसे कि मेगास्थनीज ने इंडिका लिखी, फाहियान,  ह्यू सांग और अलबरूनी जैसे कई। किसी ने भी नहीं लिखा की यहां किसी का शोषण होता था।

योगी आदित्यनाथ जो ब्राह्मण नहीं हैं, गोरखपुर मंदिर के महंत  हैं, पिछड़ी जाति की उमा भारती महा मंडलेश्वर रही हैं। जन्म आधारित जातीय व्यवस्था हिन्दुओ को कमजोर करने के लिए लाई गई थी।

इसलिए भारतीय होने पर गर्व करें और घृणा, द्वेष और भेदभाव के षड्यंत्रों से खुद भी बचें और औरों को भी बचाएं..






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Comments

  1. प्रभु भल कीन्ह मोहिसिख दीन्ही,
    मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्ही।
    ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी,
    सकल ताड़ना के अधिकारी ।। 3।।

    अर्थ -

    प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी
    अर्थात दंड दिया
    किंतु मर्यादा (जीवो का स्वभाव)
    भी आपकी ही बनाई हुई है
    ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री
    यह सब शिक्षा के अधिकारी हैं..

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